Saturday, April 20, 2024
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कहानी भारत के उस पड़ोसी की जो आज विश्व का 10वा सबसे बड़ा देश होता

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साल 2011 में रणबीर कपूर की एक मूवी रिलीज़ हुई, मूवी का नाम था ‘रॉकस्टार’। फ़िल्म बॉक्स आफिस पर औसत रही पर इस फ़िल्म का एक गाना लोगों की ज़बान पर गहरा चढ़ा और सबके दिल मे घर कर गया। गाने का नाम था ‘साड्डा हक़’ पर इस गाने का नाम एक बहुत बड़े अंतरराष्ट्रीय विवाद से भी जुड़ गया ज्यादा बवाल बढ़ता देख डायरेक्टर इम्तियाज़ अली ने गाने में आए हुवे उस particular scene के उन हिस्सों को blur किया गया जिससे इस विवाद ने जन्म लिया था।

जिसे आप अभी अपने स्क्रीन पर देख सकते हैं, यूं तो ये सीन गाने में सिर्फ 10 सेकंड के लिए ही आता है पर इस 10 सेकंड ने भी ऐसा बवाल मचा दिया था कि बात 2 देशो के आपसी संबंध तक पहुंच गई। दरअसल ये जो भीड़ आपको हाथों में झंडा लिए दिख रही है ये झंडे आज़ाद तिब्बत की लड़ाई लड़ रहे लोगों की मुहिम का प्रतीक ध्वज है और जिस पार्ट को blur कर दिया गया था उस पर फ्री तिब्बत नाम का स्लोगन लिखा था। तो आखिर क्या कहानी है तिब्बत की और आखिर क्यों पिछले 70 सालों से वहां के लोग अपने ही देश की आज़ादी की मांग कर रहे हैं।

अगर मैं आपसे ये कहूं कि भारत के पड़ोस में एक देश है जो अपने सम्पूर्ण स्वरूप में विश्व का 10वा सबसे बड़ा मुल्क हो सकता था और एक समय था भी…तो क्या आप मेरा यकीन करेंगे? शायद नहीं। आप आज इस देश की कहानी जानने के बाद शायद आपकी यह सोच बदल जाएगी। जी हां ये कहानी माओवादी साम्राज्यवाद की चोट खाये एक ऐसे ही देश की है जो पिछले 10, 20 या 50 सालों से नही बल्कि पूरे 70 सालों से अपने ऊपर हुवे आघातों का बहता हुआ खून लेकर सम्पूर्ण विश्व में अपनी आजादी के लिए जंग छेड़े हुवे है। आखिर क्यों दुनिया की छत कहा जाने वाला तिब्बत और उसके लोग आज खुद ही एक छत से महरूम हो गए हैं।

दरअसल तिब्बत की ये कहानी जानने के लिए हमें समय में थोड़ा पीछे चलना पड़ेगा। ये कहानी शुरू होती है 1 अक्टूबर 1949 से जब तत्कालीन चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी और यह तय हुआ कि अब चीन में कम्युनिस्ट शासन ही राज करेगा। कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनने के कुछ ही समय बाद उस वक्त के तत्कालीन कम्युनिस्ट लीडर माओ जेडोंग ने यह घोषित किया कि चीन तिब्बत को आज़ाद करेगा और इस आज़ादी से उनका मतलब था कि चीन दरसल तिब्बत पर आक्रमण करके उससे अपना कम्युनिस्ट साम्राज्यवादी एजेंडा पूरा करने के प्लान को मूर्त स्वरूप प्रदान करेगा।

और हुआ भी कुछ ऐसा ही। इधर माओ के इस घोषणा की देरी थी कि उधर हजारों की संख्या में peoples आर्मी ऑफ चाइना के जवान तिब्बत में घुस गए। और यदि हम 14वे दलाई लामा की बात मानें तो करीब एक बार मे 9-10 हज़ार तिब्बती फौजियों को मार डाला गया था।अब जरा अंदाजा लगाने की कोशिश कीजिये चीन के उस वीभत्स और घिनौने चेहरे का जिसने एक देश जो सदियों से आज़ाद रहा है, जिसकी अपनी करेंसी रही है, अपना अलग झंडा रहा है और अपने पड़ोसियों के साथ उसने राजनीतिक और कूटनीतिक संबंध स्थापित किये हों असे देश पर आक्रमण करके रातों रात उसे और उसके लोगों को गुलामी की बेड़ियों में जकड़ दिया। इसी बीच 1950 में तत्कालीन दलाई लामा जो महज़ 15 साल के थे उन्हें तिब्बत का राष्ट्र प्रमुख घोषित कर दिया गया।

तिब्बत में चीन के इस बढ़ते हुवे कदम के बीच चीन के तरफ से एक अप्रत्याशित घटना होती है। दरअसल तिब्बत में तेज़ी से अपने कदम बढाता हुआ चीन ‘खाम’ नाम की जगह पर आकर रुक गया और उसने तिब्बत के शीर्ष नेताओं से मुलाक़ात और बात करने का प्रस्ताव रखा।

तत्कालिन तिब्बत के नेतृत्व ने चीन के इस समझौते के प्रस्ताव को मान लिया और चीन तथा तिब्बती नेताओं के बीच एक ट्रीटी साइन हुई जिसे ‘सेवेनटीन पॉइंट एग्रीमेंट’ के नाम से जाना गया। और जिसके सारे प्रावधान आप इसवक्त अपने स्क्रीन पर देख सकते है। इस ट्रीटी का सार यह था कि तिब्बत के जिस भूभाग तक चीन अपने कदम रख चुका था जो कि तिब्बत के कुल भूभाग का आधा से भी बड़ा हिस्सा था वह भूभाग अब चीन के हिस्से में समाहित हो जाएंगे और PRC के भाग माने जाएंगे, तथा जिस हिस्से पर चीन का शासन नहीं है वह TAR (TIBBETIAN AUTONOMOUS REGION) कहा जायेगा।

उस वक़्त तिब्बत के लोगों को ये लगा था कि चीन के साथ इस ट्रीटी को साइन करने के बाद वह अपने बचे हुवे भूभाग पर शांति के साथ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार सकेंगे। पर जैसा कि चीन की फितरत में साम्राज्यवाद का कीड़ा घर कर चुका था। हुवा इसका उल्टा दरसल जिस क्षेत्र को चीन ने TAR घोषित किया था चीन ने पहले तो अपनी सेना को वहां पर भी जमाये रखा और वक़्त के साथ जब लोगों का गुस्सा बढ़ता गया और लोग कम्युनिस्ट चीन के खिलाफ प्रदर्शन करने सड़क पर उतर आये तो चीन की तत्कालीन कम्युनिस्ट सरकार ने लोगो का दमन करने की ऐसी नीतियो को अपनाया जो एक सभ्य देश कभी किसी के साथ नही करेगा।

लोगों को ज़िंदा जलाया गया, जवान लोगों का public exicution किया गया। जो भी communist चीन के खिलाफ आवाज़ उठाता था जनता की भीड़ में उनके नाक कान और अन्य बॉडी पार्ट्स को काट दिया जाता था। आर्मी को खुली छूट थी कि वो किसी भी प्रकार से इस विरोध को शांत करवाया जाए। 1959 में तिब्बत के ल्हासा नामक शहर में लोगों के खिलाफ चीन के इस दमन को बढ़ता देख तत्कालीन तिब्बत के राष्ट्र प्रमुख दलाई लामा ने तिब्बत के 80 हज़ार लोगों के साथ भारत में शरण ली। पर दलाई लामा के इस तरह अपने देश के बाहर जाने के बावजूद भी चीन ने न सिर्फ अपने एजेंडा को तिब्बत में फैलाना जारी रखा बल्कि और भी ज़ोरों शोरों से उसे लोगों के बीच फैलाया।

खैर समय अपनी गति से चलता है और फिर आता है साल 1965 इसी साल चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने अपनी कुख्यात क्रांति जिसे वो क्रांति कहते थे ‘cultural revolution’ नाम का एजेंडा चलाया। जिसकी आंच तिब्बत तक भी पहुंची। दरअसल ये चीन की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा किसी भी प्रकार से स्वतंत्र विचारधारा और उनकी communist पार्टी से भिन्न विचारधारा और धर्म रखने वाले लोगों को खत्म करने के लिए चलाया गया एक genocide था। जिसके तहत जो भी उनकी विचारधारा पर सवाल खड़े करता था या अपना अलग विचार लोगों के सामने रखता था उनको पब्लिकली जान से मार दिया जाता था। लाखों की संख्या में लेखक, विचारक और आम जनता को इस सो कॉल्ड ‘रेवोल्यूशन’ में मौत के घाट उतार दिया गया।

और तिब्बत के लोगों के साथ क्या हुआ इसका एक छोटा सा नमूना आप इस चित्र में देख सकते है। करीब करीब 10 से 12 लाख लोगों को इस कल्चरल रेवोल्यूशन के नाम पर मार डाला गया और ये संख्या सिर्फ तिब्बतियों की है। तिब्बती धर्म और संस्कृति को खत्म करने के लिए चीनी सरकार ने ‘हान चाइनीज़’ लोगों को वहाँ पर बसाया, औरतो को जबरन sterile बनाया गया ताकि तिब्बत के मूल लोगों की जनसंख्या उस क्षेत्र में कम हो सके। और ये सब हो रहा था और सम्पूर्ण विश्व मूकदर्शक बना देख रहा था।

सालों के इस कत्लेआम और दबाव के बावजूद आज भी भारत के धर्मशाला में करीब 1.5 लाख से ज़्यादा तिब्बती लोग शांति के साथ अपने देश वापस जाने की राह देख रहे है।इसी बीच 1989 में दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।दलाई लामा को नोबेल पुरस्कार मिलने के तुरंत बाद ही चीन ने अपने आधिकारिक बयान में ये बोला कि अब इस मुद्दे पर हम दलाई लामा से किसी भी तरह की कोई बात नही करेंगे।

चीन आज भी अपने उसी पुराने कम्युनिज्म और साम्राज्यवाद की सड़ी हुई विचारधारा पर अड़ा हुवा है। और तिब्बत के लोग आज भी अपने शांति पूर्ण आंदोलन और दलाई लामा के प्रयासों से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी आज़ादी की इस लड़ाई को मुखरता से उठाते हैं और अपने देश की आज़ादी के लिए अपनी लड़ाई को ज़िंदा रखे हुवे है। मगर आखिर आज आप सबको तिब्बत के लोगों की और तिब्बत की ये कहानी जाननी क्यों जरूरी है? और भारत के लोग आखिर तिब्बत की इस लड़ाई से क्या सीख ले सकते है? यकीन मानिए एक दो नही बल्कि ऐसी दसियों तरह की सीख एक देश और एक समाज के नाते सिर्फ भारत ही नही बल्कि पूरे विश्व ले सकता है।

आज जब कश्मीर में झूठी आज़ादी के नाम पर हजारों की संख्या में बच्चे और जवान हथियार लेकर हज़ारों जवानों की हत्या कर रहे है और कुछ लोग धर्मगुरु बनकर धर्म की रक्षा की झूठी लड़ाई छेड़े हुवे है तो ऐसे में उन लोगों को तिब्बत के लोगों से और दलाई लामा से ये सीख लेनी चाहिए कि अगर आपकी आज़ादी की लड़ाई सच्ची है तो इस लड़ाई में आपको हथियारों की कोई ज़रूरत ही नही पड़ती है। आज़ादी के नाम पर हथियार उठाने वाले सिर्फ कायर और डरपोक होते है जो अपनी गलत बात को आने फैलाये डर के सहारे मनवाना चाहते है।

आज लाखों लोगों के मरने और कुर्बानी देने के बावजूद भी किसी एक भी तिब्बती व्यक्ति ने हथियार उठाने को सोचा भी नही। एक देश होने के नाते आज जब सारे विश्व में ये होड़ मची हुई है कि वो अपने देश में शरण लिए हुवे लोगों को हथियार पकड़ा कर उनके आतंक की तरफ भेज देते है और दूसरे देशों की शांति को भंग करते है जैसा कि पाकिस्तान जैसे कुछ मुल्कों ने किया भी है तो वही एक तरफ भारत जैसा देश भी है जिसने अपने शरणार्थियों को न सिर्फ अपने मेहमान का दर्जा दिया बल्कि उन्हें अनुशासन के साथ रहना भी सिखाया है और लोकतांत्रिक तरीके से अपनी लड़ाई लड़ने को प्रेरित किया है।

आज जब पूरे भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी की एक बहस सी छिड़ी हुई है, बड़े बड़े पत्रकार और इस बहस के सबसे बड़े पैरोकार भी उसी राजनीतिक विचारधारा के लोग है जिनकी विचारधारा ने तिब्बत में सबसे ज़्यादा हिंसा फैलाई है लाखों लोगों का कत्ल किया है तो ये बड़ा हास्यास्पद सा महसूस होता है। अभी कुछ दिन पहले ही आसाम में लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने पर एक राष्ट्रीय TV channle का बड़ा एंकर उनके शान में कसीदे पढ़ता है और बड़ी ही बेशर्मी से लोगों को सिर्फ एकतरफा इतिहास बताता है तो उससे आपका ये सवाल पूछना लाज़मी है कि उसने और उसके तथाकथित सोशलिस्ट चैनल ने आखिर तिब्बत के लाखों मजबूर बेसहारा लोगों की इस पीड़ा को कभी लोगों के सामने क्यों नही रखा? उनके लिए आवाज़ क्यों नही उठाया।

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