दोस्तों जैसा की हम सभी जानते हैं की तिब्बत व् भारत का रिश्ता अत्यंत ही प्राचीन है। तिब्बत प्राचीन भारतीय संस्कृति, धर्म और सभ्यता का एक प्रमुख केंद्र रहा है।कैलाश पर्वत और मानसरोवर तिब्बत में ही स्थित है। तिब्बत स्थित पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांग्पो नदी पश्चिमी कैलाश पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है। कालिदास ने कैलाश और मानसरोवर के निकट बसी हुई कुबेर की नगरी ‘अलकापुरी’ का ‘मेघदूत’ में वर्णन किया है।प्राचीनकाल में तिब्बत को त्रिविष्टप कहते थे। तिब्बत ही प्राचीन आर्यों की भूमि है। पौराणिक ग्रंथों अनुसार वैवस्वत मनु ने जल प्रलय के बाद इसी को अपना निवास स्थान बनाया था और फिर यहीं से उनके कुल के लोग संपूर्ण भारत में फैल गए थे। वेद-पुराणों में भी तिब्बत को त्रिविष्टप ही कहा गया है।
महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण प्रकरण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत हिमालय के उस राज्य को पुकारा जाता था जिसमें नंदनकानन नामक देवराज इंद्र का देश था। इससे सिद्ध होता है कि इंद्र स्वर्ग में नहीं धरती पर ही हिमालय के छेत्र में रहते थे। वहीं शिव और अन्य देवता भी रहते थे। कई माह तक वैवस्वत मनु (इन्हें श्रद्धादेव भी कहा जाता है) द्वारा नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नाव गोरी-शंकर के शिखर से होते हुए नीचे उतरी, इसी गोरी-शंकर को एवरेस्ट कहा जाता है। दुनिया में इससे ऊंचा, बर्फ से ढंका हुआ और ठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।
डा.सतीश चन्द्र मित्तल द्वारा लिखित लेख “तिब्बत पर चीन के खूनी अत्याचारों के पचास वर्ष” के अनुसार ” जवाहर लाल नेहरू ने १९३५ में कहा कि तिब्बत एक स्वतंत्र देश है परन्तु चीन में साम्यवादी शासन स्थापित हो जाने पर, माओत्से तुंग की सरकार की भांति उन्होंने भी तिब्बत को चीन का आंतरिक मामला बतलाया, जो इतिहास की भयंकर भूल है। गृहमंत्री सरदार पटेल ने नवम्बर, १९५० में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में परिस्थितियों का सही मूल्यांकन करते हुए लिखा- “मुझे खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि चीन सरकार हमें शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आडम्बर में उलझा रही है। मेरा विचार है कि उन्होंने हमारे राजदूत को भी “तिब्बत समस्या शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने” के भ्रम में डाल दिया है। मेरे विचार से चीन का रवैया कपटपूर्ण और विश्वासघाती जैसा ही है।” सरदार पटेल ने अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को “किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा” कहा है। भविष्य में इसी प्रकार के उद्गार देश के अनेक नेताओं ने व्यक्त किए। डा. राजेन्द्र प्रसाद ने चीनियों को तिब्बत का लुटेरा, राजर्षि टण्डन ने चीन सरकार को “गुण्डा सरकार” कहा। इसी प्रकार के विचार डा. भीमराव अम्बेडकर, डा. राम मनोहर लोहिया, सी. राजगोपालाचारी तथा ह्मदयनाथ कुंजरू जैसे विद्वानों ने भी व्यक्त किए हैं।”
इतिहास गवाह है की राजनीतिक दृष्टि से तिब्बत कभी चीन का अंग नहीं रहा। ७ वीं शताब्दी तक मध्य एशिया के एक भू-भाग पर तिब्बत का आधिपत्य रहा। चीन का तिब्बत के साथ सम्बंध ७ वीं शताब्दी में हुआ, वह भी चीन की पराजय के रूप में। ८२१ में चीन की तिब्बत के साथ युद्ध में भारी पराजय हुई तथा ऐसी के साथ दोनों देशों की सीमाएं भी तय हो गइ। १२४९-१३६८ तक मंगोलों का आधिपत्य अवश्य रहा। १६४९-१९१० तक मंचू शासक रहे। परन्तु १९१० से १९४९ तक तिब्बत एक स्वतंत्र देश रहा। उल्लेखनीय है कि वर्ष १९४७ में नई दिल्ली में हुए एफ्रो-एशियाई सम्मेलन में तिब्बत एक स्वतंत्र देश के रूप में आया। तब तक इस देश में भारतीय मुद्रा चलती थी तथा भारत की ओर से डाक व्यवस्था थी।
माओत्से तुंग के पास भी डलहौजी के जैसी परन्तु थोड़ी अलग “राज्य हड़पने की निति” थी, अत: बड़ी ही मक्कारी से उसने तिब्बत को चीन का हिस्सा बताना शुरू कर दिया और १ जनवरी, १९५० को चीन की कम्युनिस्टों की सरकार ने घोषणा की कि तिब्बत की “मुक्ति”, चीन सेना का एक मुख्य उद्देश्य है। अत: ७ अक्तूबर, १९५० को चीन ने तिब्बत पर विशाल सेनाओं के साथ आक्रमण कर दिया, परिणामस्वरूप 40,000 की संख्या में चीनी सेना तिब्बत के 410 किलोमीटर भीतर तक घुस गई। भारत को इसकी जानकारी २५ अक्तूबर को मिली। अप्रैल, १९५१ में चीन ने तिब्बत को हड़प लिया। १९५४ में भारत के साथ एक समझौता हुआ, जिसमें जवाहर लाल नेहरू नें दब्बू व् झुक जाने वाली नीति का परिचय देते हुए तिब्बत को चीन का क्षेत्र स्वीकार कर लिया।
स्वतंत्रता के लिए संघर्ष :-
स्वाभाविक रूप से चीन के भारी अमानवीय दबाव से तिब्बतीयों में बेचैनी तथा विद्रोह की भावना भड़की। १९५६-१९५८ के दौरान तिब्बत में स्वतंत्रता के लिए कई संघर्ष हुए। १९५९ तिब्बत के स्वतंत्रता इतिहास में बड़ा संघर्ष का वर्ष रहा। चीन ने स्वतंत्रता आन्दोलन को दबाने के लिए सभी हथकण्डे अपनाए। हजारों तिब्बतियों को पकड़कर चीन ले जाया गया तथा उन्हें कम्युनिस्ट बनाया गया। लगभग 60,000 तिब्बतियों का बलिदान हुआ। 11 हजार से अधिक को चीन की जेलों में रखा गया। तिब्बत के अन्न भण्डार चीन ले जाए गए। 50 लाख चीनियों को तिब्बत में बसाने की योजना बनी। सोना, चांदी तथा यूरोनियम आदि बहुमूल्य पदार्थ चीन ले जाए गए। तिब्बत के धर्म गुरुओं तथा बौद्ध भिक्षुओं का अपमान किया गया। उन्हें “मुण्डित मस्तक”,”चीवरधारी आवारा”,”लाल रंग का चोर” आदि कहकर अपमानित किया गया। करीब 27 प्रतिशत आबादी का सफाया कर दिया गया।
१९५९ -२०२० तक अर्थात पिछले ६१ वर्षों से चीनियों का तिब्बत में यह खूनी दमन चक्र निरन्तर चल रहा है, परन्तु तिब्बतियों ने कभी हार नहीं मानी और अपने संघर्ष को जारी रखा। चीन के द्वारा पुरे विश्व में कोरोना विषाणु (कोविद-१९) फ़ैलाने तथा उससे हुए लाखों निर्दोषो की मौत व् उसके राज्य हड़पने की निति ने सम्पूर्ण विश्व को चीन के विरुद्ध कर दिया है| विश्व के अधिकांश देश चीन के विरुद्ध एकजुट होकर कई प्रकार के प्रतिबन्ध लगा चुके हैं और दिन प्रतिदिन लगा रहे हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका की संसद ने वर्ष २००२ से विचाराधीन अवस्था में पड़े “तिब्बतियन निति व् समर्थन विधेयक” को अंतत: वर्ष २०२० में पारित कर दिया और अमेरिका के महान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा हस्ताछर कर देने के बाद अब यह “तिब्बतियन निति एव समर्थन अधिनियम २०२०” का रूप लेकर कानून बन चूका है।
आइये देखते हैं इसके मुख्य प्रावधान क्या हैं।
१:-यह अधिनियम तिब्बती लोगों के हर पहलू को संबोधित करता है।इसमें उनके मौलिक अधिकार, पर्यावरण अधिकार, मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता इत्यादि शामिल हैं।
२:- यह अधिनियम तिब्बत के अंदर और बाहर तिब्बतियों के लिए फंडिंग को मजबूत करता है।
३:-इस अधिनियम में दलाई लामा द्वारा एक लोकतांत्रिक शासन को लागू करने की सराहना की गई है।इसके अलावा, इस अधिनियम में तिब्बती निर्वासन समुदाय को स्वशासन की प्रणाली को सफलतापूर्वक अपनाने के लिए सराहता की गयी है। दलाई लामा का मतलब होता है ज्ञान का महासागर, तिब्बत के लोग उन्हें अपना शिक्षक मानते हैं. जो उन्हें सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं. माना जाता है दलाई लामा ऐसे धर्म गुरु हैं जिन्होंने मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म का फैसला किया। तिब्बत में दलाई लामा का इतिहास करीब 600 वर्ष पुराना है. तिब्बत में दलाई लामा के बाद दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति पंचेन लामा होते हैं। उनका पद भी दलाई लामा की तरह पुनर्जन्म पर आधारित है. वर्ष 1995 में तिब्बत में 6 वर्ष के एक बच्चे को पंचेन लामा का अगला अवतार माना गया था. हालांकि पंचेन लामा और उसके पूरे परिवार को उसके बाद से आज तक देखा नहीं गया। तिब्बत के लोगों का दावा है कि उनके गायब होने के पीछे चीन का हाथ है। यह अधिनियम केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को एक वैध संस्थान के रूप में मान्यता देता है।यह संस्थान दुनिया भर में तिब्बती प्रवासी लोगों की आकांक्षाओं को दर्शाता है।
४:- इस अधिनियम में तिब्बती पठार के पर्यावरण और जल संसाधनों की सुरक्षा के लिए प्रावधान हैं।यह इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में पारंपरिक तिब्बती घास के मैदान के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
यह अधिनियम तिब्बत में व्यापारिक गतिविधियों में कार्यरत्त अमेरिकी नागरिकों और कंपनियों को व्यापार और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के मार्गदर्शक सिद्धांतों में कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
५:- यह अधिनियम तिब्बत की राजधानी ल्हासा में अमेरिका के वाणिज्य दूतावास की स्थापना पर बल देता है। अमेरिका (America) तिब्बत की राजधानी ल्हासा में एक वाणिज्य दूतावास (Consulate) खोलना चाहता है. इस दूतावास की मदद से अमेरिका, तिब्बत में खुद को कूटनीतिक रूप से मजबूत करना चाहता है. इस कानून के मुताबिक, जब तक अमेरिका को ये दूतावास शुरू करने की इजाजत नहीं मिलेगी, तब तक वो चीन को भी, अमेरिका में नए दूतावास खोलने की अनुमति नहीं देगा.
6:-अमेरिकी संसद में तिब्बतियन नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020 के पास होने के बाद मैक्लोडगंज स्थित निर्वासित तिब्बत सरकार ने खुशी जताते हुए इस पल को तिब्बती समुदाय के लोगों के लिए ऐतिहासिक बताया है।बिल पास होने के बाद अमेरिका ने सीनेट में तिब्बतियन नीति एवं समर्थन अधिनियम 2020 को पास करके यह संदेश साफ दिया है कि तिब्बत मुद्दा उसके लिए महत्वपूर्ण है। साथ ही यह भी संदेश दिया है कि अमेरिका का धर्मगुरु दलाईलामा और केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को पूरा समर्थन है।
और इस प्रकार हम देखते हैं कि इस अधिनियम के द्वारा अमेरिका ने चीन को उसकी गुंडागिरी व् असामाजिकता का पर्याप्त उत्तर देते हुए भारत को संकेत कर दिया है की उसे भी तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए अब उचित और समुचित कदम अवश्य उठाने चाहिए। तिब्बत की पवन भूमि पर नापाक चीनी कम्युनिस्टों की उपस्थिति एक श्राप की तरह है और इसे मिटाना भारत का कर्तव्य है।
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)