आज 28 अक्टूबर की बात करे तो स्वामी विवेकानंद जी की शिष्या भगिनी निवेदिता का स्मरण करना आवश्यक हो जाता है।
स्वामी विवेकानंदजी को याद करने पर सिस्टर निवेदिता का याद आना स्वाभाविक है। वे न केवल स्वामीजी की शिष्या थीं, वरन् पूरे भारतवासियों की स्नेहमयी बहन थीं। सिस्टर निवेदिता का असली नाम मार्गरेट एलिजाबेथ नोबुल था। स्वामी विवेकानन्द की शिष्या भगिनी निवेदिता का जन्म 28 अक्टूबर, 1867 को आयरलैंड में हुआ था। वे एक अंग्रेज-आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक एवं एक महान शिक्षिका थीं। भारत के प्रति अपार श्रद्धा और प्रेम के चलते वे आज भी प्रत्येक भारतवासी के लिए देशभक्ति की महान प्रेरणा का स्रोत है। स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित होकर आयरलैण्ड की युवती मार्गरेट नोबेल ने अपना जीवन भारत माता की सेवा में लगा दिया। प्लेग, बाढ़, अकाल आदि में उन्होंने समर्पण भाव से जनता की सेवा की। बचपन से ही मार्गरेट नोबेल की रुचि सेवा कार्यों में थी। वह निर्धनों की झुग्गियों में जाकर बच्चों को पढ़ाती थी।निवेदिता ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लन्दन के चर्च बोर्डिंग स्कूल से प्राप्त की। बाद में वे कॉलेज में पढने लगी। उस कॉलेज की प्रधानाध्यापिका ने उन्हें जीवन में उपयोगी कई महत्वपूर्ण बातो एवम बलिदान के बारे में सिखाया। निवेदिता कई विषयों का अभ्यास करती थी, जिनमे कला, म्यूजिक, फिजिक्स, साहित्य भी शामिल है। वे 17 साल की उम्र से ही बच्चो को पढ़ाने लगी।बाद में उन्होंने एक विशाल स्कूल की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश गरीब बच्चो को शिक्षित करना था और समाज का आंतरिक रूप से विकास करना था। भगिनी निवेदिता एक प्रभावशाली लेखिका भी थी जो किसी समाचार पत्र के लिए लेख लिखती थी।
निवेदिता और स्वामी विवेकानंद का मिलना :-
मार्गरेट नोबल नवम्बर 1895 में स्वामी विवेकानंद से मिलीं जब वे अमेरिका से लौटते वक़्त लन्दन में 3 महीने के प्रवास पर थे। मार्गरेट उनसे अपने एक मित्र के निवास पर मिलीं जहाँ वे उपस्थित व्यक्तियों को ‘वेदांत दर्शन’ समझा रहे थे। वे विवेकानंद के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुईं और इसके बाद उनके कई और व्याख्यानों में गयीं।इस दौरान उन्होंने स्वामी विवेकानंद से ढेरों प्रश्न किये जिनके उत्तरों ने उनके मन में विवेकानंद के लिए श्रद्धा और आदर उत्पन्न किया। इसके बाद मार्गरेट ने गौतम बुद्ध और विवेकानंद के सिद्धांतों का अध्ययन किया जिसका उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। विवेकानंद मार्गरेट के अन्दर सेवा की भावना और उत्साह देख यह समझ गए थे कि वे भारत के शैक्षणिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती।
निवेदिता की भारत यात्रा एवं ब्रहाचर्य की प्रतिज्ञा :-
स्वामी विवेकानंद जी के कहने पर मार्गेट ने भारत आने का फैसला लिया और 28 जनवरी 1898 को वे कोलकता पहुंच गईं। भारत में स्वामी विवेकानंद ने उन्हें भारतीय दर्शन, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, दर्शनशास्त्र, परंपराओ आदि के बारे में बताया। इसके बाद 11 मार्च, साल 1898 में एक सभा में विवेकानंद जी ने कोलकाता वासियों का परिचय मार्गेट से करवाया।25 मार्च 1898 को मार्गरेट नोबल ने स्वामी विवेकानंद के सामने ‘ब्रह्मचर्य’ अपनाया था, तभी स्वामी विवेकानंद ने उन्हें ‘निवेदिता’ नाम दिया था। इस तरह भगिनी निवेदिता किसी भी भारतीय पंथ को अपनाने वाली पहली पश्चिमी महिला बनीं थी। आपको बता दें कि भगिनी निवेदिता ने विवेकानंद जी के साथ अपने अनुभवों का जिक्र अपनी किताब ‘द मास्टर ऐज आई सॉ हिम’ में किया था।17 मार्च को वे रामकृष्ण परमहंस की पत्नी और आध्यात्मिक संगिनी सारदा देवी से मिलीं जिन्होंने उन्हें बेटी कहकर संबोधित किया।1898 में वे स्वामी विवेकानंद के साथ हिमालय भ्रमण के लिए गयीं। अल्मोड़ा में उन्होंने पहली बार ध्यान की कला को सीखा। अल्मोड़ा के बाद वे कश्मीर गयीं और फिर अमरनाथ की भी यात्रा की। 1899 में वे स्वामी वेवेकानंद के साथ अमेरिका गईं।
निस्वार्थ सेवा :-
स्वामी विवेकानंद से दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे स्वामी जी की शिष्या बन गई और रामकृष्ण मिशन के सेवाकार्य में लग गयीं। समाजसेवा के कार्यों में पूर्णरूप से निरत होने के बाद उन्होंने कलकत्ता में भीषण प्लेग के दौरान भारतीय बस्तियों में प्रशंसनीय सुश्रुषा कार्य कर एक आदर्श स्थापित कर दिया। 1898 में उन्होंने कलकत्ता में एक स्कूल की स्थापना की। वहा निवेदिता उन बच्चो को पढ़ना चाहती जिनको कई लोग प्राथमिक शिक्षा से भी दूर रखते थे।1899 में कोलकाता में प्लेग फैल गया। निवेदिता सेवा में जुट गयीं। उन्होंने गलियों से लेकर घरों के शौचालय तक साफ किये। धीरे-धीरे उनके साथ अनेक लोग जुट गये।भगिनी निवेदिता भारत की स्वतंत्रता की जोरदार समर्थक थी ।राष्ट्रवादियों से उनका घनिष्ठ सम्पर्क था। धीरे-धीरे निवेदिता का ध्यान भारत की स्वाधीनता की ओर गया।उन्होंने सीधे तौर पर कभी भी किसी राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग नहीं लिया, पर उन्होंने भारतीय युवाओं को अपने व्याख्यानों और लेखों के माध्यम से प्रेरित किया।
अंत समय तक भारत :-
सिस्टर निवेदिता पूरे भारत के बारे में सोच-विचार करती थीं, क्योंकि स्वयं को भी इसी देश की निवासी मानती थीं। इसीलिए उनकी लेखनी से दिल के जो उद्गार व्यक्त हुए वे इस प्रकार हैं- मुझे अपने हल की नोक से भारत की इस भूमि पर लकीरें खींचने दो, गहरी, गहरी, इतनी गहरी कि वे वस्तुओं के अंत:स्थल तक पहुँच सकें। यह चाहे कोई अज्ञात कंठ ध्वनि हो, जो अपने सूक्ष्म रन्ध्रों द्वारा मूक प्रेरणाओं को विसर्जित कर रही हों, अथवा किसी साकार व्यक्तित्व का स्वरूप हो जो बड़े-बड़े नगरों में प्रचंड झंझा के समान स्वतंत्र विचरण करता हो, किसी भी रूप में हो, इसकी मुझे चिंता नहीं। पर मेरी अपनी बलिष्ठ दक्षिण-बाहु का ईश्वर मुझे वरदान दे कि मैं अपने इस उच्छल उत्साह को परिचय की निरर्थक उच्छृंखलताओं में व्यर्थ न बहा दूँ। इससे तो यही अच्छा होगा कि मैं अपने शरीर का ही अंत कर दूँ। जहाँ तक मेरा संबंध है, भारत वर्ष ही आदि बिंदु है और भारत वर्ष ही अंतिम लक्ष्य। यह उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वह परिचय का भी योगक्षेत्र वहन करे।’ इन एक-एक शब्दों से झलकता है कि उन्होंने एक सच्ची शिष्या की तरह अपने नाम को पूर्ण ‘समर्पण’ से सिद्ध कर दिया। विदेशी मूल की होकर भारत को ही अपनी कर्मभूमि मानने वाली एवं सच्चे मन एवं समर्पण की भावना से भारतवासियों की सेवा करने वाली सिस्टर निवेदिताहम सबकी स्नेहमयी बहन यह विलक्षण महिला 13 अक्टूबर 1911 को भारतवासियों में आशा का संचार कर चिरनिद्रा में लीन हो गई।इसके साथ ही भारत सरकार ने भी साल 1968 में उनके त्याग और बलिदान को याद करने के लिए एक डाक टिकट भी जारी किया था। सिस्टर निवेदिता सभी लोगों के लिए आज भी प्रेरणास्त्रोत हैं उनके समर्पण, त्याग, सेवा और बलिदान की भावना से हर किसी को सीख लेने की जरूरत है।
उन्होंने अपने कामों से न सिर्फ भारतीय महिलाओं के अंदर आत्मविश्वास पैदा किया बल्कि शिक्षा के माध्यम से समाज में महिलाओं की स्थिति में भी काफी सुधार किए। इसके अलावा विदेशी मूल की होते हुए भी उन्होने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अप्रत्यक्ष रुप में योगदान दिया था, जो कि देशभक्ति का अप्रत्यक्ष उदाहरण है।
– पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक