Tuesday, April 16, 2024
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अटल स्मृतियाँ: दैनन्दिनी 16.08.2018

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काल के कपाल पर, अमिट रेख खींच कर, 
अमर आग सींच कर, कर चला महाप्रयाण…….
भारती को मौन कर, रार सभी छोड़कर,
गीत नया गाने को,  लौट के फिर आने को
कर चला महाप्रयाण…….. 

स्मृतियाँ मन मस्तिष्क में घुमड़ रही हैं, कभी वर्ष खो जाते हैं, कभी घटनाएँ अनुक्रम तोड़ आगे पीछे हो जाती हैं। क्रमवार संस्मरण लिखना संभव नहीं। शब्द भी साथ नहीं दे रहे हैं। आज लिख नहीं पा रही हूँ। अटल जी की बात नहीं मानी शायद इसीलिए ……

हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन ने अपना पहला कादम्बिनी साहित्य महोत्सव लखनऊ में किया था वर्ष 1991 में, उस समय श्री राजेंद्र अवस्थी जी इस पत्रिका के संपादक हुआ करते थे। साहित्य महोत्सव में अप्रत्याशित रूप से मेरी कहानी प्रथम पुरस्कार के लिए चयनित हुयी थी। मेरे लिए ये बड़ा आश्चर्य था, क्योंकि इस स्थल लेखन प्रतियोगिता में बड़ी संख्या में चर्चित कथा लेखकों  ने भाग लिया था और वो पूरी तैयारी के साथ आये थे, मैं शायद सब में छोटी थी उनके बीच बच्ची जैसी और उस दिन लिखी गयी कहानी मेरे जीवन की लगभग पहली कहानी थी। श्रद्धेय अटल जी लखनऊ के सांसद होने के साथ साथ कवि, लेखक और पत्रकार भी थे अतः पुरस्कार वितरण समारोह के मुख्य अतिथि भी थे. अटल जी के हाथों मुझे मेरे जीवन का पहला साहित्य पुरस्कार मिला ………आज उस सम्मान पत्र को बार बार देख रही हूँ…..इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा। किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात थी कि अटल जी ने समारोह में आने से पहले सभी पुरस्कृत कहानियों को पढ़ा था। समारोह के पश्चात् अटल जी ने हमारे साथ चर्चा में कुछ समय बिताया था और उसी दौरान कहा था …..अच्छा लिखती हो, आदर्श वाद है तुम्हारे भीतर जो समाज में जाना चाहिए…..लेखन में जुटो…ध्येय बनाओ……लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी। अपनी उर्जा दूसरी कई जगहों पर लगा दी। आज  इस बात का जितना दुःख हो रहा है पहले कभी नहीं हुआ।

जब स्वयंसेवक पिता जी की प्रेरणा से मैंने संघ कार्य हेतु अपना समय देने की बात की तो श्री यादव राव देशमुख जी ने मुझे पूर्णकालिक तौर पर नाना जी देशमुख के चित्रकूट वाले  प्रकल्प  से जुड़ने का सुझाव दिया और वीरेश्वर जी ने राष्ट्रधर्म पत्रिका से जुड़ने का जिसके संपादक स्वयं अटल जी रहे थे, साहित्यिक अभिरुचि के कारण मैंने राष्ट्रधर्म को अपना समय देने का निश्चय किया और सम्पादकीय विभाग में काम किया। वहाँ बैठकर एक अलग ही गौरव की अनुभूति होती थी। राष्ट्रधर्म के एक समारोह में अटल जी ने मुख्य अतिथि के रूप में वर्षों पूर्व अपने समय में पत्रिका प्रकाशन के किसी भी स्तर पर जुड़े रहे एक एक व्यक्ति जो उस कार्यक्रम में उपस्थित था नाम लेकर मंच पर आमंत्रित किया था। उनकी याददाश्त देखकर लोग दंग रह रह गए थे और प्रेम से अभिभूत हो गए थे, कई लोगों की ऑंखें नम थीं। उसी मंच से उन्होंने साहित्य के आदर्शवादी होने और उस साहित्य के माध्यम से आदर्श समाज के विकास की बात भी दोहराई थी।

पंडित वचनेश त्रिपाठी जो अब स्मृतिशेष हैं, अटल जी के राष्ट्रधर्म संपादक रहने के दौरान उनके साथ रहे थे और अटल जी के बड़े रोचक किस्से सुनाते थे. एक कभी नहीं भूलता। तब राष्ट्रधर्म कार्यालय ऐसा कोई बड़ा भवन नहीं था । कोई सुविधा नहीं थी। एक शाम अटल जी सिर के नीचे ईंट का तकिया लगाकर दीवार की ओर मुंह करके कुछ बडबडा रहे थे , उनकी तबियत भी कुछ अनमनी थी। वचनेश जी वहीँ थे, देख रहे थे, कुछ समय बाद उनको लगा कि अटल जी का बुखार दिमाग पर चढ़ गया है और वो बुखार में बडबडा रहे हैं। चिंतित हो गए, पूछा……पता चला कि अटल जी तो कविता बना रहे थे …वचनेश जी के अनुसार संभवतः ये प्रख्यात कविता, “हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन रग रग हिन्दू मेरा परिचय” थी।

पिता जी के पास भी अटल जी के कम किस्से नहीं थे वे स्वयंसेवक थे, अटल जी से प्रेरणा लेते थे। अमीनाबाद का हमारा घर मारवाड़ी गली और राजेंद्र नगर के बीच है जो एक समय अटल जी की कर्मस्थली हुआ करते थे, इन दोनों जगहों के बीच अटल जी की जिंदादिली की अनगिनत कहानियां हैं जो हमेशा जिंदा रहेंगी।

अटल जी लम्बे समय तक लखनऊ से सांसद रहे, इसी लोकसभा सीट से निर्वाचित होकर देश के प्रधानमंत्री बने। लखनऊ के लोगों के लिए उनसे मिलाना हमेशा सहज रहा। वो कहते थे मैं यहाँ का जन प्रतिनिधि हूँ और प्रत्येक जन का मुझ पर अधिकार है। यदि वो लखनऊ में अपने घर पर हों तो कोई भी सामान्य व्यक्ति जाकर उनकी बैठक में बैठ सकता था और अटल जी आकर उससे मिलते थे, ये नहीं पूछा जाता था कि, समय लिया है?

धर्मयुग पत्रिका ने एक बार मुख पृष्ठ पर अटल जी का तेजस्वी चित्र छापा था। तत्कालीन संपादक थे श्री धर्मवीर भारती। अटल जी ने भारती जी को पत्र लिखा –

धन्यवाद जो छापा ऐसा चित्र भयंकर,
कौन कहेगा इसे देखकर बूढा जर्जर। 
बाल सफ़ेद हुए तो क्या गालों पर लाली, 
उर्ध्वबाहु की मुद्रा भीष्म पितामह वाली।

प्रत्येक व्यक्ति अपने को अटल जी से जुड़ा हुआ पाता था, अनगिनत लोग स्मृतियाँ साझा कर रहे हैं। स्मृतियाँ ही इतिहास बनाती हैं। बहुत कुछ पढ़ रही हूँ, सुन रही हूँ। प्रत्येक व्यक्ति का किसी भी घटना और विषय को देखने का अपना दृष्टिकोण होता है। कई जगह कुछ लोग कह रहे थे कि अटल जी ने मंदिर आन्दोलन से अपने को एकदम अलग रखा था। कई पुस्तकों में भी ये साबित करने का प्रयास किया गया है कि अटल जी इस आन्दोलन से स्वयं को अलग रखना चाहते थे। हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन  मेरा अपना अनुभव और समझ ये कहती है कि ऐसा नहीं था। वर्ष 1990 में अटल जी अयोध्या मुद्दे पर गिरफ्तारी देने लखनऊ आये थे उस समय उनकी एक विशाल जनसभा हुयी थो और अत्यंत तार्किक और ओजस्वी रूप से उन्होंने मंदिर का पक्ष रखा था। ये अटल जी की अत्यंत सफल जनसभाओं में से एक थी। जो भी उस जन सभा का हिस्सा रहा होगा वो कभी ये विश्वास नहीं करेगा कि अटल जी स्वयं को मंदिर आन्दोलन से अलग रखना चाहते थे।

इसका दूसरा प्रमाण है, जब श्री राम जन्म भूमि के शलाका पुरुष महंत रामचंद्र परमहंस ने देह त्यागी तो अटल जी श्रद्धा सुमन अर्पित करने गए और उनके स्वप्न पूरे करने की बात कही, यदि अटल जी स्वयं को मंदिर आन्दोलन से अलग रखते तो ऐसा कभी नहीं करते। मुझे लगता है, अटल जी स्वयं को मंदिर आन्दोलन से अलग रखना चाहते थे ये एक राजनीति प्रेरित भ्रम है जो फैलाया गया है।

सार्वजनिक जीवन से सन्यास लेने के बाद भी अटल जी किस तरह जन सामान्य के मन मानस में जीते थे। इसका एक अनुपम उदाहरण देखने को मिला मुझे, बात वर्ष 2012 की है, हम कार्यालयीय यात्रा से वापस लखनऊ आ रहे थे। सौभाग्य से वो अवकाश का दिन था तो साथियों से सोचा क्यों न प्रसिद्ध बटेश्वर होते हुए चला जाए। अत्यंत रमणीक स्थान, कल कल करती नील वर्णी यमुना देख कर की लगता है कृष्ण कालिय नाग को सबक सिखाने इसी में कूदे होंगे…..आगरा के ताज के पीछे वाली यमुना से एकदम अलग….उसके तट पर सुन्दर ऊँचे शिवलिंग वाले बटेश्वर महादेव। यमुना से कलश भर जल लाओ और जी भर शिव को चढ़ाओ। भीड़ भाड़ बहुत कम। एक पुजारी जी हमारे साथ हो लिए। मार्ग दर्शन किया, पूजा करायी। दक्षिणा लेने से पूर्व बोले, अभी आपकी यात्रा पूरी नहीं हुयी। मेरे साथ आइये। वो हमें यमुना तट पर ले गए और दूर एक घर दिखाया जिस पर भगवा फहरा रहा था। उसे दिखा कर अभिमान पूर्वक बोले…वो भगवा देख रही हैं………..हमारे पूर्व प्रधानमंत्री परम पूज्य अटल बिहारी वाजपयी का पैतृक निवास है। ये भी किसी तीर्थ से कम नहीं …….फिर श्रद्धा से प्रणाम किया……..जब मैंने उन्हें बताया मैंने भी राष्ट्रधर्म पत्रिका में काम किया जो अटल जी की पत्रिका है तो उन्होंने मुझे सम्मान दिया वो अभिभूत करने वाला था।

“वो जी भर जिए, वो मन से मरे” उनको जो सम्मान देश ने दिया उसे देख कर मन अभिभूत हो गया, माँ कह रहीं थी। सच ही तो है. किसी की शवयात्रा में उसके देश का प्रधान मंत्री भरी धूप में किलोमीटरों तक पैदल चले, लाखों लोग -स्त्री पुरुष, बच्चे, युवा, बुजुर्ग  रोते हुए  फूल बरसायें, राष्ट्रपति चक्र चढाये और 65 वर्ष तक दोस्ती निभाने वाला मित्र आखों में आंसू लिए खड़ा हो……ऐसी अन्यतम विदाई।

देह धर्म तो सिमटना ही है लेकिन अटल जी द्वारा जीवन भर सींची गयी अमर आग और जीवन पर्यंत तपने का प्रकाश, …….इस धरा को सदा आलोकित करेगा।

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