कारीगर समाज का ऐसा तबका जिसने संस्कृति को बचा कर उन्हें आगे बढ़ाने का जिम्मा लिया है. कारीगर की मेहनत से लोगों के घर और बाज़ार सजते हैं लेकिन क्या कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की कि इनका घर कैसे चलता है? आप इन कारीगरों की मेहनत को ऊँचे दामों में खरीदते हैं लेकिन इन कारीगरों को उनकी मेहनत के इतने कम मूल्य मिलते है की वो ठीक तरह से अपना जीवन यापन भी नहीं कर पाते.
हस्तशिल्प क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह ग्रामीण और अर्ध शहरी लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है और देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाता है और विदेशो में भी नाम कमाता है. लेकिन देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ साथ क्या वाकई इनका भी विकास हो रहा है? दूसरों के बच्चो के लिए अलग अलग खिलौने बनाते है क्या इनके खुद के बच्चे खिलौनों से खेल पाते हैं? जवाब मिलेगा नहीं क्योंकि इन तक इनकी मेहनत का न तो नाम पहुँचता है न पैसा. देश में इन कारीगरों की संख्या लगभग 47 लाख से भी ज्यादा है. ग्रामीण खंड में इन कारीगरों की संख्या लगभग 76|5% हैं. चाहे वो गुजरात के कच्छ की कसीद्कारी हो या उत्तर परदेश के जरी जरदोजी की चिकनकारी, कर्नाटक के लकड़ी के खिलौने हो या असम की बांस की कारीगरी आदि हम सब के लिए ये सब महज राज्यों की पारंपरिक कलाएं है लेकिन इनके लिए ये इनकी ज़िंदगी है.
इनके बनाए हुए उत्पादों को तो समाज में नाम मिल जाता है लेकिन इन कारीगरों को गुमनाम कर दिया जाता है. इनकी मेहनत को ऊँचे दामों में बिचौलिया बेचता है और इन्हें कम दाम देकर एहसान जताता है इनके संघर्षो की कहानी इनके घरो की दीवारे बखूबी बयाँ करती है जहां गर्मी में वो दीवारे ज्वालामुखी बन जाती है और बरसात में हर दीवार रो कर उस कारीगर के दुखों को बयाँ करती हैं. ये हर रोज़ नए उत्पाद को इस उम्मीद से बनाते है की आज उन्हें कुछ ज्यादा पैसे मिलेंगे और शाम होते होते तक उनकी उम्मीद मायूसी बनकर वापस घर लौटती हैं जहाँ उनके बच्चे खाने का इंतज़ार कर रहे होते है. कितना अजीब लगता होगा उस कारीगर को जो दुनिया के घरो में रौनकें बेचता है लेकिन अपने खुद के घर में झूठी रौनक लाता है. ऐसे ही कारीगरों को उनका नाम और हक दिलाने के लिए उत्थान ने नायब कदम उठाया है.
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गोपालन का पैर लकवाग्रस्त है लेकिन इनकी कला इनकी इस कमजोरी पर हावी है. यह बांस से कारीगरी जैसे शो केस आइटम, की चेन, फ्लावर वेस आदि बनाते हैं. उन्हें बाज़ार का मूल्य न पता होने के कारण उनकी मेहनत का पैसा उन्हें नहीं मिल रहा था. उत्थान ने उन्हें बाजार में बांस उत्पादों की पहुंच और मांग के बारे में बताते हुए प्रोत्साहित किया। मुन्दाद का रहने वाला बीजू बोल और सुन नहीं सकता लेकिन उसकी कारीगरी ये साबित करती है की इच्छाशक्ति अगर प्रबल हो तो हर काम किया जा सकता है. वहीं मूलनकोली की पुश्पावली और गाँव की औरते घास से कारीगरी बनाकर ये साबित करती है की औरते किसी से कम नहीं होती. राजू जो बांस से कलात्मक चीज़े बनाता है लेकिन आर्थिक समस्या के कारण न तो वो उत्पाद का सामान खरीद पाता था न अपने बच्चो के लिए जरुरी सामान. उत्तराखंड के राम कुमार जो एक कारीगर के साथ साथ एनजीओ भी चलाते हैं. इस एनजीओ में उनके जैसे कई और कारीगर भी है जो सर्दी में उपयुक्त कपड़े आदि बनाते हैं. टेराकोटा के अभिमन्यु के पास न रहने के लिए सही छत है न अपने बच्चो को स्कूल भेजने के पैसे. शरत कुमार साहू जिन्हें पत्रकारिता के लिए राष्ट्रीय पुरूस्कार मिला है, इनके घरों की दीवारे इनके बनाए हुए उत्पादों से सजी है लेकिन दिल में परिवार का सही तरह से पालन न कर पाने की मायूसी भी है. पश्चिम बंगाल के देबासीस साहू जो इस लॉक डाउन में पूरी तरह से सरकारी फण्ड पर निर्भर है जो की समय पर मिलता नहीं है. बिहार के भोगेन्द्र जिनकी आमदनी मधुबनी पेंटिंग है. महंगाई के इस दौर में एक बड़े परिवार का घर चलाने की दिक्कत इन कारीगरों के सामने रोजाना आती है.
इन सबके नाम भले ही अलग अलग हो लेकिन एक चीज़ समान है इनकी हर रोज़ खुद से लड़ाई. इनकी इन्ही लड़ाई को आसान करने के लिए उत्थान एक रौशनी की तरह आया. उत्थान ऑनलाइन मीडिया के माध्यम से कारीगरों का सामान लोगों तक पहुंचाता है. इसमें लोगों और कारीगरों के बीच सीधा संपर्क होने की वजह से उन्हें उनकी मेहनत का पूरा पैसा मिलता है. उत्थान करीब 10000 से ज्यादा कारीगरों के परिवारों के रोजगार का साधन बना हुआ है. इसमें कोई और बिचौलिया न होने की वजह से मुनाफा सीधे कारीगर के पास जाता है. उत्थान के जरिये ग्राहक तक ये उत्पाद पहुंचता है.