Saturday, May 11, 2024
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शमशान के वैराग्य सा व्यवहार- “मैं हूँ ना”

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बॉलीवुड के एक कलाकार ने आत्महत्या कर ली. कारण मानसिक अवसाद बताया गया. लोकप्रिय कलाकार था इसलिए अवसाद और मानसिक स्वास्थ्य पर मीडिया के सभी माध्यमों पर व्यापक चर्चा प्रारंभ हो गयी. फेसबुक, व्हाट्स एप जैसे सोशल मीडिया माध्यमों पर तो ऐसे संदेशों की बाढ़ आ गयी जो कहते हैं, “मेरा घर, मेरा डीएम सदा आपके लिए खुला है, जब चाहे बेझिझक आकर अपनी बात कहें”. मूलतः ये फ़ॉर्वर्डेड या कॉपी पेस्ट सन्देश हैं जो भेजने वाले द्वारा अपनी संवेदनशीलता के कार्बन चरण चिन्ह बनाने के लिए प्रस्तुत किये जा रहे हैं. इसके साथ कुछ ज्ञानवर्धक उपदेशात्मक सन्देश भी आ रहे हैं. जैसे– अवसाद बीमारी है, इसका इलाज़ है. मानसिक रोग को छुपाइये नहीं. हम भारतीय मानसिक रोग को ठीक होने योग्य नहीं समझते इत्यादि और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कुछ एक दो वर्ष पूर्व छोटे परदे की एक कलाकार ने आत्महत्या की थी तब भी कुछ ऐसा ही प्रकटीकरण हुआ था. “मानसिक स्वास्थ्य दिवस” पर भी ऐसे संदेशों की बाढ़ आती है.

एक समाज के रूप में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति ये हमारा शमशान के वैराग्य सा व्यवहार है, जब तक चिता जल नहीं जाती तब तक जीवन से वैराग्य रहता है और बाहर आकर स्नान करते ही वो वैराग्य भी धुल जाता है. आत्महत्या (कोई भी आत्महत्या उद्वेलित या अवसादग्रस्त मानसिक स्थिति का ही परिणाम है) की किसी एक घटना से उपजा दुःख जितनी देर रहता है उतनी ही देर हमारी ये, “मैं हूँ ना” वाली सामाजिक चेतना भी रहती है. स्वाभाविक भी है क्योंकि हम उस दुःख को भूल दैनिक जीवन में आगे बढ़ जाते हैं. यदि हम सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य के विषय में किये जा रहे प्रयासों को देखें तो वर्ष  1982 से ही राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया जा रहा है जो अब राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का अंग है और इसके पास पर्याप्त आर्थिक प्रावधान हैं, किन्तु यह विषय की एक अन्य दिशा है आज हम उस ओर न जाकर केवल मानसिक उद्विग्नता और अवसाद को प्रश्रय देने वाले अपने सामाजिक व्यवहार पर ही केन्द्रित रहेंगे.

हम प्रतिद्वन्द्विता के समय में जी रहे हैं. स्वस्थ प्रतियोगिता पीछे छूट गयी है. शिशु जन्म के समय माता –पिता और परिवार अपने समाज के अन्य लोगों के साथ प्रतिद्वन्द्विता में होता है कि शिशु जन्म कहाँ हो, सरकारी अस्पताल में या निजी में, निजी में तो थ्री स्टार में या फाइव स्टार में? जहाँ “उनका” हुआ था उससे अच्छे में होना चाहिए. कुछ दिनों बाद दूसरे रिश्तेदारों से अच्छा बेबी फ़ूड देने की प्रतिद्वन्द्विता, फिर विद्यालय चुनाव और एक बार बच्चा विद्यालय पहुँच गया तो वो भी उसी प्रतिद्वन्द्विता का अंग बनकर रह गया. शिक्षा व्यवस्था तो प्रशंसनीय है, अपने प्रचार –प्रसार के लिए विद्यालय कुछ भी करते हैं. कक्षा पांच का एक बच्चा, अध्यापिका के लिखाये छह प्रश्नोत्तर रट कर वापस परीक्षा की उत्तर पुस्तिका में लिख आता है. कक्षा में प्रथम आता है. उसके माता -पिता को विद्यालय में फूलों की तुला पर बिठाया जाता है और सारे समाचार पत्रों और स्थानीय मीडिया चैनलों में स्तुति गान होता है. बच्चा तो अभी बच्चा ही है, इस दिखावे में माता –पिता, दादा-दादी नाना- नानी किसी को समझ में नहीं आता कि क्या है जो छूट रहा है? वो प्रतिद्वन्द्विता में व्यस्त हैं. अपने समाज में अपनी धाक जमा रहे हैं. अपने अहम को संतुष्ट कर रहे हैं. किसी भी दिन जब ये बच्चा असफल होता है तो बच्चे से अधिक तनाव और अवसादग्रस्त उसका परिवार होता है. वो स्वयं उबरेगा या बच्चे को संभालेगा? जब तक परिवारों के बड़े, संतानों की सफलता –असफलता, हार –जीत जैसी बातों को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदंड बनाये रखेंगे संतानें स्वाभाविक रूप से तनाव और अवसाद का शिकार होंगी और अतृप्ति में जीते ये लोग उन्हें राह नहीं दिखा पाएंगे.

कार्यस्थल चाहे किसी भी क्षेत्र का हो शिक्षा, कला, विज्ञान और चाहे  व्यवसाय हो, नौकरी हो या अपना कोई पेशेवर अभ्यास आगे बढ़ना है, सफलता पानी है, कुछ कर दिखाना है तो प्रतिद्वन्द्विता के उबलते पानी की नदी में उतरना ही होगा. जहाँ सभी जीतने के लिए उबलते पानी में तैर रहे हों वहाँ कोई किसी की तकलीफें साझा करने के लिए नहीं रुकेगा ये कटु सत्य है. कोई दूसरे को धक्का देकर या रौंद कर आगे नहीं बढ़ेगा ये भी संभव नहीं है जिसको भी ऐसा करने का अवसर मिलेगा वो ऐसा करेगा. तनाव और अवसाद में जाने के पर्याप्त कारण हैं यहाँ. पारिवारिक जीवन में उपभोक्तावादी संस्कृति ने दिखावे का इतना बोझ रख दिया है कि लोग परिवार लेकर नहीं तनाव लेकर चलते हैं.

वस्तुतः क्षणिक आवेग में ये जो, “मैं हूँ ना” की बात कही जाती है ये आज के सामाजिक ताने बाने में तब तक वास्तविक रूप नहीं ले पायेगी जब तक समाज अपने “प्रतिद्वान्द्वात्मक व्यवहार” को नहीं बदलता. इस परिमार्जन में समय लगेगा. यदि समाज के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारना है तो शिक्षा के मूल ढांचे में आध्यात्मिक शिक्षा को स्थान दिया जाना अनिवार्य है. ऐसी आध्यात्मिक शिक्षा जो असफलताओं, दुष्चक्रों, दुर्व्यवहारों से उपजी हताशा, निराशा, दुःख और अवसाद पर विजय पाने का सामर्थ्य दे. जो हर समय राह दिखाती रहे कि एक मनुष्य के रूप में अपनी भौतिक दौड़ को सम पर रहते हुए कैसे पूरा करना है. ऐसी आध्यात्मिक शिक्षा जो  “तत-त्वम्-असि” का विश्वास दिलाए और मनुष्य कभी एकाकी अनुभव न करे. आध्यात्मिक शिक्षा ही एक सफल, तनाव और अवसाद रहित संतुष्ट, विचारवान, गतिमान और अग्रगामी समाज का आधार है इसकी अनुपस्थिति में कोई भी उच्च शिक्षा, कला, कौशल या  प्रतिभा भी तनाव और अवसाद का कारण बनती है.

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