धर्म! ऐसा पथ जिस पर यदि मनुष्य सदैव चले तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। परंतु वर्तमान में धर्म पालन से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में हम कुछ ऐसे कार्य कर रहे हैं जिनसे हमारी आत्मा तृप्त हो ना हो अपितु हम ऐसे अक्षम्य में पाप के भागीदार बन रहे जिसका प्रायश्चित शायद ही किसी शास्त्र या धर्म ग्रंथ में वर्णित होगा।
आदिकाल से ही सनातन धर्म के अनुयायी प्रकृति एवं उसके तत्वों को देवतुल्य मानकर उनकी आराधना करते आए हैं, फिर चाहे वह पर्वत हो या नदियां, पेड़ हो या धरती।लेकिन समय के साथ हम जाने अनजाने उन्हीं पूजनीय तत्वों को प्रदूषित कर रहे हैं।
यदि हम सिर्फ नदियों की तरफ ध्यान केंद्रित करें तो हमें खुद से यह प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि आखिर कब तक हम अपने देश की नदियों को विभिन्न विषैले तत्वों द्वारा प्रदूषित करते रहेंगे और फिर उसी “पवित्र” जलधारा में अपने पापों को धोने के लिए डुबकियां लगाएंगे। यह सभी नदियां उन्हीं धार्मिक बुद्धिजीवियों द्वारा मैली की जाती हैं जो उन्हें देवी का दर्जा दिया करते हैं। गंगा नदी जिसे युग युगांतर से ही माॅं का स्थान प्राप्त है और यदि उसे विश्व की सबसे पवित्र नदी कहा जाए तो यह संशय का विषय कदापि नहीं होगा,यह उसका दुर्भाग्य ही है कि वह आज विश्व की कुछ सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है।
एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष तकरीबन 8000000 टन फूल जो कि पूजा के उद्देश्य से नदियों में अर्पित किए जाते हैं वह ईश्वर को अर्पित हो ना हो लेकिन नदियों को प्रदूषित अवश्य करते हैं। यही नहीं हर वर्ष लगभग 35000 शवों को सिर्फ गंगा नदी में प्रवाहित किया जाता है। तनिक विचार करिए यह आंकड़ा कितना बढ़ जाएगा यदि देश की हर नदी में प्रवाहित होने वाले शवों को जोड़कर देखा जाए।
यह सब लोग शास्त्रानुसार कर रहे यह मुझे भली-भांति विदित है पर क्या इसके साथ हमारा यह कर्तव्य नहीं कि जिन नदियों को हम अपने पाप धोने के लिए उपयोग करते हैं,हम उनकी अविरलता एवं निर्मलता का ध्यान रखें?
जन्म से मरण तक हम जिन नदियों पर आश्रित हैं क्या हम उन नदियों की स्वच्छता के प्रति कर्तव्यबध्य नहीं? जैसे-जैसे मानव ने खुद को आधुनिक बनाया है उसका झुकाव प्राकृतिक से रासायनिक तत्वों की तरफ बढ़ा है जिसके उदाहरण हम अपने आसपास सरलता से देख सकते हैं। मानव की इस आधुनिक बनने की लालसा से हमारी नदियां भी अछूती नहीं रही हैं।
आज नदियों में विसर्जित की जाने वाली देव प्रतिमाओं पर लगे विभिन्न रासायनिक रंगो एवं तत्वों से हमारी नदियों की शुद्धता का लोप हो गया है। हालात यह हैं कि हम उन्हीं नदियों के जल से आचमन तक नहीं कर सकते जिन्हें कभी हमारे पूर्वज पीने के लिए नित उपयोग किया करते थे।
हम उसी संस्कृति के ध्वजवाहक हैं जिसके मूल धर्म ग्रंथ में ही हमें स्वयं ईश्वर से प्रकृति के महत्व का ज्ञान होता है परंतु विडंबना देखिए की हम अपनी उसी संस्कृति की शिक्षा को ताक पर रख चुके हैं। उच्च पदों पर बैठे जनप्रतिनिधि एवं बुद्धिजीवी भी अपनी सामाजिक छवि को विवादों से बचाकर रखने के लिए इन महत्वपूर्ण विषयों पर कुछ कहने या करने से बचा करते हैं। परंतु प्रश्न यह है कि क्या किसी विषय पर सिर्फ इसलिए आवाज ना उठाना क्योंकि वह विषय अपने साथ धर्म के कुछ पहलू एवं धार्मिक भावनाएं लिए हुए है क्या कर्तव्य विमुखता का पर्याय नहीं है?
विभिन्न पर्वों पर सामूहिक स्नान के दौरान नदियों में अर्पित किए जाने वाले पुष्प, घृत इत्यादि से जल में ऑक्सीजन की मात्रा प्रभावित हुई है जिससे विभिन्न जलीय जीव विलुप्त होने की कगार पर आ गए हैं। जलीय जीवों से इतर सामूहिक स्नान में डुबकियां लेने से लोगों में विभिन्न त्वचा रोग आदि के मामले सामने आए हैं, साथ ही साथ उन लोगों के स्वास्थ्य पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है जो नदियों के जल को पीने के उपयोग में लाते हैं।
मात्र मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो अपनी बुद्धि एवं विवेक से उन्हीं संसाधनों के दोहन के प्रति कार्यरत है जिनसे उसके जीवन की आधारशिला निर्मित है। यदि समय रहते इन गंभीर विषयों के प्रति समाज में चेतना नहीं आई तो भविष्य में हम वही करते रहेंगे जो हम आज कर रहे हैं, “दोषारोपण”।
बस फर्क इतना होगा की वर्तमान में हम नदियों की अशुद्धता पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं और भविष्य में हम उन्हीं नदियों के विलुप्त हो जाने का शोक मनाएंगे।
लेखक ― आशुतोष सिंह , साक्ष्य, सहायक ― अमन सिंह