Sunday, October 13, 2024
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भारतीय वेबसीरीज़- पोस्टमार्टम

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ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म पर कुछ समय से अलग ही हिन्दू तिरस्कार चल रहा है। पहले सेक्रेड गेम्स, फिर लीला, फिर पाताल लोक और अब कृष्णा एंड हिज लीला। मानो झड़ी लग गयी है कि कौन अधिक हिन्दू घृणा फैला सकता है।

इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने सोचा कि क्यों बेवजह ये लोग मेहनत कर रहे हैं। जब एक ही विषय इनका टारगेट है तो इनका काम आसान किया जाए। तो फिर तैयार हुआ एक आदर्श वेब सीरीज़ बनाने का सूत्र।

निर्देशक/निर्माता इन बिंदुओं पर ध्यान दें —

किरदार

कहानी का प्रमुख किरदार ग्रे शेड का होना चाहिए। अगर अच्छे चरित्र हो तो सामाजिक रूप से असफल दिखा दीजिये, मतलब कोई एक कमी होना चाहिए हीरो में। संसार की सारी बुरी आदतें पालता है, लेकिन दिल का अच्छा है ।संसार के सारे बुरे काम करता है, लेकिन किसी एक भलाई के लिए। शुरू में वह खलनायक सा होगा लेकिन कहानी के मध्य में वह सही राह पर आ जायेगा।

फिर एक पात्र होगा जिसे विलेन कुर्बान करेगा, जिसे कुछ गुप्त जानकारी मिल गई हो। कुछ साइड रोल सीरीज में 18+ कंटेंट के लिए ही होंगे। एक दो अल्पसंख्यक व दलित प्रतिनिधित्व किरदार भी होने चाहिए, वो भी पूर्णतः बेदाग एवं चरित्रवान।

फिर होगा खलनायक जो कि बिल्कुल पारंपरिक भारतीय होगा, जो वेशभूषा से एकदम संत लगे…. या एक काम करिये, किसी संत/पंडित या समाज सुधारक को ही बना दीजिये। ये सब नहीं हो सकता तो कम से कम हिन्दू उच्च जाती का होना ही चाहिए।

अगर ब्राह्मण हो तो उसे धर्म के नाम पर लूट एवं पाखंड फैलाने वाला दिखाइये। अगर ठाकुर हो क्रूर एवं हिंसक, जो कि किसी निम्न जाति/मुस्लिम पर अत्याचार करे। और वैश्य/बनिया हो तो अत्यधिक धनवान, भ्रष्ट, एवं गरीबों (दलित/मुस्लिम बार बार बताना न पड़े) का शोषण करने वाला हो।

पटकथा

इसका चलन कुछ ही समय से शुरू हुआ है। आज से 10 वर्ष पहले की बात होती तो मेहनत नही करनी पड़ती, किसी हॉलीवुड/ब्रिटिश/स्पेनिश/फ्रेंच सिनेमा या सीरीज की कहानी यथावत उठा सकते थे। बस संज्ञा बदलनी हैं आपको चरित्र/स्थान/घटनाओं के और ये लीजिये.. कहानी तैयार है!

पहले अधिक फर्क नही पड़ता था, लेकिन अब समय बदल चुका है, दर्शक बदल चुके हैं, सोशल मीडिया पर चोरी पकड़ा जाती है, इसलिए अब आपको या तो नई स्क्रिप्ट लगेगी या तो बहुत फेरबदल करने होंगे उस कहानी में जहां से आप इसे चुरा र……. माफ करियेगा, प्रेरणा ले रहे हैं। (अंत के क्रेडिट सीन में छोटे अक्षरों में लिखना है)

ध्यान रहे पटकथा नई लगनी चाहिए। सामाजिक मुद्दे जैसे गरीबी, अपराध पर बना सकते हैं। सरकार, सिस्टम, समाज, धर्म (सारे नही, सिर्फ एक ), अमीरों की आलोचना कर दीजिए, आम जनमानस प्रसन्न हो जाएगा। अराजकता फैलाने का तो मज़ा ही कुछ और है।
पटकथा में यह संदेश तो होना चाहिए भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता पिछड़ेपन और जड़ता की पर्याय है और इसका उपाय सिर्फ और सिर्फ शहरीकरण और पश्चिमीकरण ही है।

संवाद

कोई भी प्रचलित क्षेत्रीय भाषा उठा लीजिये, ज्यादा हो तो दो तीन उठा लीजिये.. जमीन से जुड़े लगेगी आपकी रचना। गालियों का अधिक से अधिक उपयोग होना चाहिए। भारतीय जनता अभी इसकी आदी नही हुई है तो उनके लिए ये अभी नया है। (गालियां क्षेत्रीय भाषा मे हों तो और बढ़िया)

बचे हुए संवाद अंग्रेजी में डाल दीजिए, कुछ उच्चतम दर्जे की अर्बन अंग्रेज़ी गालियाँ तो होनी ही चाहिए , बेहद कूल लगता है ये टियर 1 शहरों वाले उन दर्शकों को जो अपनी संस्कृति को लेकर आत्मग्लानि से सराबोर हैं।

उसके बाद भी संवाद हों तो उर्दू इस्तेमाल करिये, शायरी पढ़िए, ग़ज़लें तो हैं ही। ध्यान रहे हिंदी/संस्कृत नही उपयोग करना है और करना भी है तो केवल विलेन द्वारा या नकारात्मक किरदारों द्वारा होना चाहिए।

कास्टिंग/भूमिका

बस यही एक पहलू है जिसमे आपको मेहनत करनी पड़ेगी। नही नही! मेरा मतलब आर्थिक श्रम से नही, मानसिक श्रम से था। चूँकि रोल मेनस्ट्रीम किरदारों से अलग है, इसलिए प्रमुख चरित्रों के लिए आपको दो चार मंझे हुए कलाकारों की आवश्यकता होगी। ये कोई बड़ी समस्या नही है। किसी जमीनी कलाकार को उठा लीजिये या जो अच्छे थियेटर कलाकार हैं उनको ले लीजिए। और कम मेहनत करनी है तो बॉलीवुड फिल्मों में ही साइड रोल वालों को लीजिये, वे भी अच्छे कलाकार होते हैं। वाहवाही अलग मिलेगी छोटे कलाकारों को मौका देने पर व लीक से हटकर निर्णय लेने पर।

सिनेमाटोग्राफी

ये संज्ञा भारतीय दर्शकों के लिए थोड़ी नई है, इसके नाम पर वे डार्क और लाइट फिल्में ही जानते हैं। कलर ग्रेडिंग, पैरलल, टाइम रिलेटिविटी और थीम वगैरह दूर की बात। डार्क सिनेमा के नाम पर चोर बाजार के मार्टिन स्कौरसैसी उर्फ अनुराग कश्यप ने ब्राइटनेस कम करना, बैकग्राउंड स्कोर को गायब रखना, बिना कारण वीभत्स हिंसा एवं अपराध चित्रित करने के मानक गढ़ ही दिए हैं।

अरे हाँ! बीच बीच में फेमिनिज्म का सहारा ले प्राचीन रीतियों को निशाने पर लेना न भूलियेगा। देश की ठरकी ऑडिएंस के लिए इन नारीवादियों के द्वारा कामुक दृश्य एवं अश्लीलता का मसाला डाल सकते हैं। कोई कहे तो स्क्रिप्ट की डिमांड बोल दीजियेगा। ज्यादा हो सामने वाले पर रूढ़िवादी व पित्रसत्तात्मक होने का आरोप भी मार दीजिये। फिर तो कोई सवाल ही नही। बाक़ियों ने भी वही करना है। खुद को अलग और नया दिखाने की होड़ लगी है, तो जो भी नया लगे सब भर दीजिये। ज्यादा हो तो मेनस्ट्रीम निर्देशकों व फिल्मों की निंदा कर दीजिए।

प्रचार

प्रचार इस प्रकार से होना चाहिए की करना भी न पड़े और हो भी जाये, मतलब एकदम नेचुरल मार्केटिंग। विज्ञापन का खर्चा कम से कम हो। सबसे पहले सीरीज का नाम ज़ुबान पे चढ़ जाए ऐसा हो। किसी धार्मिक प्रतीक चिन्ह, प्राचीन नाम या कोई देवता के ही नाम पर रख दीजिए।

दूसरी बात एक अच्छा खासा विवाद पैदा होना चाहिए सीरीज़ को लेकर। ये बहुत कारगार तरीका है प्रमोशन का। उसके लिए किसी भी हिन्दू देवी, देवता, रीति, प्रथायें, ग्रंथ ,पुस्तक या महापुरुष की आलोचना के नाम पर अच्छे से अपमान करें, जिससे चोट पहुंचे इन हिंदुओं के हृदय में।

फिर क्या, ये लोग सोशल मीडिया में करेंगे आउटरेज और लीजिये हो गया प्रमोशन। कुछ दिन बाद तो वैसे भी सबने भूल जाना है। ध्यान रहे किसी मुस्लिम/ईसाई धार्मिक मान्यताओं पर मत बोलियेगा, हमें अल्पसंख्यक हितों की रक्षा करनी है। (और जान प्यारी है कि नहीं, हें हें)

बस यही करना है हर बार आपको, और लीजिये तैयार आपकी मुख्यधारा वाली फिल्मों से अलग,अनोखी व नए तेवर वाली वेब सीरीज़।
हमारे समीक्षक बैठे ही हैं इसे पाथब्रेकिंग, एन्टी स्टीरियो टाइप जैसे भारी भरकम शब्द से इसे नवाज़ने के लिए।

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