Friday, March 29, 2024
HomeHindiराजीव गाँधी को मोबाईल क्रांति का जनक कहना ठीक नहीं

राजीव गाँधी को मोबाईल क्रांति का जनक कहना ठीक नहीं

Also Read

Rohit Kumar
Rohit Kumarhttp://rohithumour.blogspot.com
Just next to me is Rohit. I'm obsessed of myself. A sociology graduate, keen in economics and fusion of politics.

आज देशके पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गाँधी जी को याद करते हुए उन्हें डिजिटल दूत, मोबाईल क्रांति के जनक आदि कहे जा रहा है. इसमें कितनी सच्चाई है.

हालांकि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि टेलीकॉम क्षेत्र में भारत का स्थान इसकी सफ़लता की कहानी का ही उदाहरण है क्योंकि सस्ते मोबाइल संपर्क के कारण भी घरेलू निर्माण क्षेत्र में गुणात्मक बदलाव देखने को मिला. चुकि ऐसे सफलतम प्रयोग कम ही देखने को मिलते हैं, इसलिए इसके इतिहास को खंगालना और उससे सीख लेना आवश्यक हो जाता है.

टेलीकॉम क्षेत्र की सफ़लता के लिए दो तथ्य निर्विवाद रूप से सत्य हैं – पहला, इस क्षेत्र के विकास को निजी कंपनियों द्वारा बल मिला ना कि किसी सरकारी कंपनी या सरकार द्वारा. और दूसरा, इस क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन मोबाइल कनेक्सन के कारण मिला ना कि लैंड लाइन या पिसियो (PCO) बूथ के कारण.

3 मार्च 1999 को भारत सरकार द्वारा घोषित नयी दूरसंचार नीति कुछ तथ्यों को उजागर करती है.

1999 में भारत में करीब 10 लाख मोबाइल फ़ोन के ग्राहक थे. मतलब 1989 में जब राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री पद छोड़ा और जिसके 8 वर्ष बाद सैम पित्रोदा अमेरिका चले गये, फिर राजीव गाँधी की हत्या हुयी, इस बीच 10 वर्षों में मोबाईल फ़ोन का घनत्व प्रति सौ व्यक्ति पर 0.6 (1989) से बढ़ कर 2.8 (1999) हो गया. एक दशक कम नहीं होते, क्या इतने लम्बे समय के बाद आये इस मामूली बदलाव को क्रांति का दर्जा देना ठीक होगा? और फिर ये कहना कि राजीव गाँधी ‘डिजिटल दूत’ थे?

ओक्टुबर 2012 के आकडे के अनुसार, भारत में लगभग 70 कड़ोर सक्रीय मोबाइल उपभोक्ता थे. इस तरह देखा जा सकता है कि जो आकड़ा 1999 में 3% भी नहीं था वो 2012 में करीब 56% हो गया था, जो कि किसी विकसित देश के बराबर था.

1999 की नयी दूर संचार नीति के लिए यह लक्ष्य 2010 तक के लिए 15% रखा गया था, जाहिर है कि इस नयी नीति ने लक्ष्य से बढ़ कर नयी ऊँचाइयों को छुआ. तो क्या इस बीच जो भी सरकारें या नीति रही उसे श्रेय देना ठीक होगा?

2009 में आइडिया सेल्लुलर के तत्कालीन नियंत्रक निर्देशक संजीव आगा ने भी 1999 की नयी दूरसंचार नीति को मील का पत्थर कहा था. उन्होंने उस वक्त 10 वर्ष पुराने हो चुके नीति के बारे में कहा, ” जब मैं इसे आज भी पढता हूँ तो यह समकालीन और व्यापक लगता है.”

कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर, अरविन्द पान्गारिया ने अपनी किताब ‘इंडिया- द इमर्जिंग जायंट’ में भी उस नयी नीति को टेलीकॉम सेक्टर के उत्प्रेरण का कारण बताया. पान्गारिया लिखते हैं कि यह नीतिगत सुधार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 1999 में हुआ, जिसमें नीति निर्माण और सेवा कार्य को पृथक करने का महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया गया. और 1 ओक्टुबर 2000 को भारत संचार निगम लिमिटेड(बीएसएनएल) के आधारशिला के साथ पूर्ण हुआ. इस तरह टेलीकॉम क्षेत्र को सामान्य हितों के टकराव से दूर कर राजनीतिक प्रभाव से भी मुक्त किया गया.

वाजपेयी, जिन्होंने उस वक्त टेलीकॉम मंत्रालय अपने पास रखा, उन्होंने बीएसएनएल के निगमीकरण का करा फ़ैसला लिया. पान्गारिया लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ने गहरे संरचनात्मक सुधार के लिए व्यक्तिगत हस्तक्षेप किया. यह सब कोई सामान्य कार्य नहीं था क्योंकि दूरसंचार विभाग के 4 लाख कर्मचारियों ने वाजपेयी के फ़ैसले के विरोध में धरना प्रदर्शन किया था. हालांकि वाजपेयी सरकार ने कर्मचरियों के सभी मांगों को तो मान लिया था पर नीति निर्माण को सेवा के प्रावधान से अलग करना और निगमीकरण जैसे मूलभूत फैसलों पर वो अडिग रहे. इसके अलावा दूरसंचार विवाद निपटान अपीलीय न्यायाधिकरण की स्थापना कर उन्होंने नियामक और विवाद से जुड़े मामलों को भी पृथक कर दिया.

इन सुधारों से पहले दूरसंचार विभाग ही नीति निर्धारण करता था, संचार सेवा प्रदान करता था और फिर विवादों का निपटान भी. हितों के टकराव के ऐसे भयावह उदहारण वाजपेयी सरकार से पहले आई सरकारों के अकर्मण्यता का ही उदाहरण है.

नई नीति के अनुसार सरकार द्वारा राजस्व साझा करने के साथ ही अग्रिम लाइसेंस शुल्क को कम किया गया. उस समय मीडिया ने वाजपेयी का खूब गुर्दा मर्दन किया. फ्रंटलाइन पत्रिका ने वाजपेयी को नए मानकों के अनौचित्य के लिए वाजपेयी को दोषी ठहराया. जबकि आउटलुक पत्रिका ने इसे वाजपेयी द्वारा किये जा रहे वित्तीय घोटाले पर पर्दा डालने का एक कदम करार दिया.

15 अगस्त 2000 को दूरसंचार क्षेत्र में असीमित प्रतियोगिता के नये दौर की शुरुआत हुई. यहाँ यह भी बताना महत्वपूर्ण हैं कि 2000 इस्वी के वित्तीय बजट में मोबाइल हैंडसेट पर आयात कर को 25% से घटा कर 5% कर दिया गया. इस तरह 1 अप्रैल 2002 को विदेश संचार सेवा से विदेश संचार निगम लिमिटेड(VSNL) का एकाधिकार ख़त्म हुआ. पान्गारिया अपनी किताब में आकड़ों और तथ्यों के माध्यम से वाजपेयी को इस क्रांति का श्रेय देते हैं.

पान्गारिया द्वारा प्रस्तुत तथ्य के अनुसार राजीव गाँधी के सहयोगी, सिम पित्रोदा तो 1987 में मोबाइल फोन के भारत आने की राह में रोड़ा बन गये थे. पहले जब 1984 में, दूरसंचार विभाग को विश्वबैंक द्वारा बॉम्बे में सेल्लुलर नेटवर्क लगाने के लिए फण्ड मिले थे, जिसका ठेका स्वीडेन की एरिक्सन नामक कंपनी को मिला था. उस समय पित्रोदा ने मीडिया में इस कदम को यह कहते हुए ‘अश्लील’ करार दिया इस देश में जहाँ एक ओर लोग भुखमरी का शिकार थे, वहां ऐसे मोबाइल फ़ोन की क्या जरुरत थी. उस वक्त पित्रोदा इंदिरा गाँधी द्वारा बनाये गये टेलीमिटीक्स विकास केंद्र का नेतृत्व कर रहे थे. पित्रोदा के हस्तक्षेप ने इस मुद्दे को राजीव गाँधी तक पहुंचा दिया, जिन्होंने इस बात पर चिंतन किया कि भारत की पहली सेलुलर फोन नेटवर्क कैसी हो? लेकिन पित्रोदा को डर था कि मोबाइल फोन नेटवर्क आते ही कहीं टेलीमिटीक्स विकास केंद्र में चल रहा उनका ‘कार-बार’ प्रभावित ना हो जाये. इसलिए उन्होंने भारत में मोबाइल की संख्या ना बढे इसके लिए हर संभव प्रयास किया.

आकड़ों के आनुसार पित्रोदा ने टेलीमिटीक्स विकास केंद्र के माध्यम से स्वदेशी मोबाइल बनाने की रणनीति बनाई, जो असफ़ल रही. फिर पित्रोदा 2004 को भारत लौटे, जब कोंग्रेस की अगुआई में संप्रग ने केंद्र में सरकार बनाई.

परिणाम अपनी सच्चाई खुद बयां करते हैं कि राजीव गाँधी और पित्रोदा ने, संचार विभाग के साथ मिल कर स्वदेशी टेक्नोलोजी की मदद से मोबाइल की उस मांग को पूरा करने में असफ़ल रहे जिसे पूरा करने वाजपेयी सरकार ने नीति निर्धारण के साथ-साथ एक ऐसा माहौल भी बनाया जिसमें राज्य की भूमिका को कम कर उद्यमियों के लिए रास्ता निकाला जा सके. कहा जा सकता कि पहले जहाँ राज्य के स्वामित्व वाले स्वदेशी हथकंडों को अपनाया गया वहीँ बाद में इस क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा और उद्यमिता के लिए खुला छोड़ दिया गया.

भारत के टेलीकॉम की कहानी इस बात का जीता जागता उदहारण है कि कैसे स्पष्ट नीति निर्धारण, राजीनीतिक इच्छाशक्ति और लोक-उद्यमिता तश्वीर को बदल सकती है.

टेलीकॉम के क्षेत्र में आये इस बदलाव सीख लेते हुए, यदि कृषि, खनन, रक्षा, शक्ति, बंदरगाह और बैंकिंग के क्षेत्र में सरकार के हस्तक्षेप और सरकारी स्वामित्व को कम किया जाय तो इन क्षेत्रों में भी आशातीत सफ़लता मिल सकती है. हाल के वर्षों में रक्षा क्षेत्र में इस तरह के समझौते सामने आये, जब राफेल खरीद में कई प्राइवेट प्लेयर/कमपनियों को साथ लिया गया.

‘राजीव गाँधी, भारत के संचार क्रांति में क्रांति के जनक थे’, इस बात में उतनी ही सच्चाई जितना सोनिया गाँधी के भारतीय होने में.

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

Rohit Kumar
Rohit Kumarhttp://rohithumour.blogspot.com
Just next to me is Rohit. I'm obsessed of myself. A sociology graduate, keen in economics and fusion of politics.
- Advertisement -

Latest News

Recently Popular