रोटियां यहां पर, मयस्सर ही नहीं है।
उनको तो ज़रा सा भी, असर ही नहीं है।
खाते रहे सियासती, रोटियां सेंककर,
लूट खाने में कोई, कसर ही नहीं है।
कभी ट्वीट, कभी बयान, कभी अफवाहें,
गरीबों की शासन को, फिकर ही नहीं है।
कर दिया ज़िकर उसने, तमाम बातों का,
खुद की गलतियों का तो, ज़िकर ही नहीं है।
कभी दहाड़ा करता था, शेर जंगल में,
अब उसकी आवाज़ में, असर ही नहीं है।
पत्रकारों पर तो केस, खूब लग रहे हैं,
मज़दूरों की वहां पर, ख़बर ही नहीं है।
कहीं पटरी पर कटें, कहीं गैस में जलें,
कोसने के सिवाय तो, गुज़र ही नहीं है।
ऋषभ शर्मा द्वारा स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित।