Friday, October 11, 2024
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नाम में बहुत कुछ रखा है

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‘नाम में क्या रखा है’ ये कोटेशन वैश्वीकरण की धंधापरक मानसिकता को घोर मोटिवेशन की मिलावट के साथ सहजता पिलाया गया है। नाम में ही तो सबकुछ रखा है नाम से ही संस्कृति की पहचान, समाज का संस्कार, इतिहास की प्राचीनता और देश की धरोहर की गहराई का पता चलता है। नाम में कुछ नहीं रखा होता तो नाम रखा ही क्यों होता। लो बन गया न कोटेशन। ऐसे ही कोटेशन तो बनते बिगड़ते रहते हैं। लेकिन नाम नहीं बिगड़ना चाहिए यह भारतीय समाज के लोकलाज का एक महत्वपूर्ण पहलू है। ध्यान नखना ‘पहलू’ की बात की जा रही है ‘पल्लू’ की नहीं। नहीं तो महिला सशक्तिकरण का फसाद खड़ा करके उसमें फंसा दो।

त्रेतायुग में राम के नाम का प्रभाव बजरंगबली ने इतना भयाक्रांतिक प्रभाव से प्रसारित किया कि आज कलयुग में भी ‘जयश्रीराम’ के उद्धोष से न जाने कितने वामी-कामी बिलबिलाने लगते हैं। ये नाम के प्रभाव का व्यक्ति के काम से इतना संबंध है कि हमारे गांव में किसी भी खेल की किसी भी टोले की टीम में शायद एक दो खिलाड़ी ही ऐसे मिलेंगे जिनको जिनके नाम से पुकारा जाता हो। ज्यादातर तो अपने अपने गुण विशेष के आधार पर ही बौने, नाटे, करिया, मिट्ठू, चोरे, संपोले इत्यादि विविधता में लड़कपन की मानवीय एकता को लिए खेल खलिहान से लेकर बाग बगान तक प्रसिद्ध हैं।

समस्या ये नहीं है कि उन्हें दूसरे नाम से क्यों बुलाया जाता है समस्या ये है कि उनको अपने वास्तविक नाम के सम्पूर्ण महत्व का भी पता नहीं होता मसलन गांव का विक्रम जब बुद्धिजीवी बनने की उम्र में आता है तो वो विक्रमादित्य की महान विराटता का नही अकबर की महानता पढ़ रहा होता है, गांव का हर्ष अपनी गरीबी में भी कभी उस चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन को याद नहीं कर पाता जो हर पांच साल पर पूरा राजकोष दान कर देते थे। वैसे वो कुछ बड़ा करके अपना नाम ऊंचा तो करना चाहते हैं लेकिन जब महान कार्य करने की उम्र में वो आते हैं तो उनहें पता चलता है कि वो कितना भी कर लें कोई भी विश्वविद्यालय, एयरपोर्ट, खेल मैदान, अस्पताल आदि बड़े संस्थान का नाम उनके नाम पर नहीं पड़ने वाला तो एक परिवार विशेष के लिए कॉपीराइट है। अब इसलिए बिगड़े हुए निक नाम के साथ वो सहज हो ही जाते हैं और ऐसा करने में सेकुलरी शिक्षा पद्धति ने अथक परिश्रम किया है जिसको स्थापित करने वाले महान ‘ नेहरू – गांधी ‘ परिवार की त्याग की मूर्ति बनी महिला के नाम पर बवाल खड़ा हुआ है।

सोनिया गांधी इस वजह से परेशान हैं कि जब कभी राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे जोकि अभी युवा हैं तो जाहिर है कि संघर्ष में होंगे ,तब देश के विभिन्न संस्थानों के नाम वो अपनी मां के नाम पर रखते समय कहीं कन्फ्यूज न हो जाएं कि इटलीवाला नाम रखना है या इंडिया वाला। वैसे इटली में किए किए गए संघर्ष का भारत से क्या लेना देना।

सोनिया जी गांधी जी की तरह गुलामी के खिलाफ आवाज तो भारत के बाहर वाले किसी देश में उठा नहीं रही थीं। अगर राहुल गांधी पर सेकुलरी मिशनरी (ईसाईयत) ने दबाव डालकर इटली वाला नाम संस्थानों पर रख दिया तो भारत की जनता कैसे जान सकेगी कि फलां संस्थान किसी महान डायनेस्टी की त्यागशील महिला के नाम पर रखा गया है। बस असली लड़ाई इसी बात की है।

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