2020 में हमारा कई नए शब्दों से परिचय हुआ जैसे की सोशल डिस्टन्सिंग,जनता कर्फ्यू और क्वारंटाइन। इन पेचीदा शब्दों का उच्चारण और ज़रुरत दोनों समझने में हमारे देश को काफ़ी समय लग गया।
अमूमन देश की न्याय-प्रणाली से जुड़े लोगों को इस सवाल से जूझना पड़ता है कि कानून, जो कि लोगों की भलाई के लिए बनाये जाते हैं, उन्हे समझना इतना पेचीदा क्यों होता है? बीते कुछ हफ़्तों से कई बार ये सवाल देश के सामने रखा गया कि कोरोना वायरस से उत्पन्न हुई इस भीषण स्थिति से निपटने के लिए, हमारे देश में कौन- सा कानून है और क्या वो इस स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त है?
इस सूची में पहला नाम एपिडेमिक डिजीज अधिनियम, 1897 का आता है जो की आज़ादी से 50 वर्ष पहले अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा लाया गया था जब भारत के बम्बई राज्य में प्लेग जैसी महामारी ने आतंक मचाया हुआ था। हालांकि इतिहास के पन्नों को पलट कर देखने में कुछ और ही मालूम पड़ता है. कानून का उचित उपयोग न करके उस समय अंग्रेज़ों ने इस अधिनियम का निरंतर दुरूपयोग किया. इसके दुरूपयोग का सबसे बड़ा उदहारण लोकमान्य बालगंगाधर तिलक हैं जिन्हे अंग्रेजों ने इस अधिनियम के अंदर सजा दी थी। इस कानून के तहत सरकार को सशक्त किया गया कि भीड़ को एक सीमित संख्या से ज़्यादा न होने देना, बिना सरकारी वारंट के किसी भी स्थान पर लोगों की तलाशी लेना एवं समान प्रकार की अन्य असीमित शक्तिओं से भी लैस किया गया. स्वतंत्रता आंदोलन में उठती हुए आवाज़ों का दबाने के लिए ये अधिनियम अंग्रेज़ों के लिए काफी कारगर भी रहा।
देश में प्राकृतिक, जैविक और अन्य आपदाओं से निपटने के लिए कोई भी सार्थक कानून मौजूद नहीं है, यह समझने के लिए हमारी सरकारों को 60 साल और सुनामी, भूकंप, चक्रवाती तूफ़ान आदि आपदाओं का इंतजार करना पड़ा। अंततः 2005 में नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अधिनियम लाया गया जिसे दिसंबर, 2005 में लागू किया गया। ये एक राष्ट्रीय कानून है जिसका इस्तेमाल केंद्र सरकार करती है ताकि किसी आपदा से निपटने के लिए एक देशव्यापी योजना बनाई जा सके. इस अधिनियम के दूसरे भाग के तहत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के गठन का प्रवधान है. जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं।
इसके तहत केंद्र सरकार के पास अधिकार होता है कि वह दिए गए निर्देशों का पालन ना करने वाले पर कार्रवाई कर सकती है। इस कानून के तहत राज्य सरकारों को केंद्र की बनायी योजना का पालन करना होता है। इस कानून की सबसे खास बात है कि इसमें राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आदेशों का पालन ना करने पर किसी भी राज्य के अधिकारी के साथ-साथ प्राइवेट कंपनियों के अधिकारी पर भी कार्रवाई कर सकती है। ये कानून किसी प्राकृतिक आपदा और मानव-जनित आपदा की परिस्थिति पैदा होने पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस कानून की काफी प्रशंसा की गयी थी और और यह माना गया की भविष्य में अवतरित आपदाओं से निपटने में ये काफी कारगर साबित होगा। हालाँकि 2013 में केदारनाथ में आए आकस्मिक बाढ़ एवं उससे हुए भीषण नुक्सान के बाद और सरकार की बचाव कार्य में असमर्थता ने ये सोचने पर मज़बूर किया की कानून चाहे कितना भी अच्छा हो जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति और दृढ़ता नहीं है तो उस कानून का फायदा न्यूनतम हो जाता है। 2017 में बायोटेररिज्म बिल भी सरकार लेकर आयी लेकिन अभी भी दोनों सदनों से इस बिल को पारित नहीं किया है।
हिंदुस्तान में कोरोना का पहला केस जनवरी 2020 में सामने आया जिसके बाद भी सरकारी तंत्र ने इसको इतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना ज़रूरी था. हालाँकि भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार स्वास्थ्य का दायित्व राज्यों को सौंपा गया है।
एक्ट की धारा-2 में लिखा है:-
जब राज्य सरकार को किसी समय ऐसा लगे कि उस राज्य के किसी भाग में किसी ख़तरनाक महामारी फ़ैल रही है या फ़ैलने की आशंका है, तब अगर राज्य सरकार ये समझती है कि उस समय मौजूद क़ानून इस महामारी को रोकने के लिए नाकाफ़ी हैं, तो राज्य सरकार कुछ उपाय कर सकती है. इन उपायों में लोगों को सार्वजनिक सूचना के जरिए रोग के प्रकोप या प्रसार की रोकथाम बताये जाते हैं।
धारा 2(b) में राज्य सरकार को यह अधिकार होगा कि वह रेल या बंदरगाह या अन्य प्रकार से यात्रा करने वाले व्यक्तियों को, जिनके बारे में निरीक्षक अधिकारी को ये शंका हो कि वो महामारी से ग्रस्त हैं, उन्हें किसी अस्पताल या अस्थायी आवास में रखने का अधिकार होगा और यदि कोई संदिग्ध संक्रमित व्यक्ति है तो उसकी जांच भी किसी निरीक्षण अधिकारी द्वारा करवा सकती है।
एपीडेमिक डिजीज एक्ट, 1897 की धारा-2 (A) में लिखा है कि जब केंद्रीय सरकार को ऐसा लगे कि भारत या उसके अधीन किसी भाग में महामारी फ़ैल चुकी है या फैलने की संभावना है और केंद्र सरकार को यह लगता है कि मौजूदा कानून इस महामारी को रोकने में सक्षम नहीं हैं तो वह (केंद्रीय सरकार) कुछ कड़े कदम उठा सकती हैं जिनमें शामिल हैं; किसी भी संभावित क्षेत्र में आने वाले किसी व्यक्ति, जहाज का निरीक्षण कर सकती है।
एपीडेमिक डिजीज एक्ट, 1897 की धारा-3 में लिखा है, इसमें एक सख्त प्रावधान भी है. अगर Epidemic Diseases Act, 1897 का सेक्शन 3 लागू हो गया, तो महामारी के संबंध में सरकारी आदेश न मानना अपराध होगा और इस अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता यानी इंडियन पीनल कोड की धारा 188 के तहत सज़ा मिल सकती है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति इस बीमारी को रोकने के लिए कोई अच्छा कदम उठाता है तो उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी।
धारा-2 के तहत विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने अपने राज्यों में इसे लागू किया। जनता के हित में बने हुए कानून की मुख्य विशेषता ये होनी चाहिए की वो जनता को अधिकार से सशक्त करे और ढांचा इतना सार गर्भित हो की स्वयं समझ आ जाए की सरकार और जनता किस किस कर्त्तव्य से बंधे हुए हैं। एसेंशियल सर्विस लिस्ट की सूची में मीडिया और ख़बरों को डाला गया ताकि लोगों को देश का हाल खबर और कोरोना से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण ख़बरों की जानकारी मिल सके लेकिन इसका जितना सदुपयोग होना चाहिए था उतना ही दुरूपयोग भी हो रहा है। कुछ न्यूज़ एंकर अंताक्षरी खेलते हुए दिखाई देते हैं हैं तोह कुछ इस बात को जरूरी समझ रहे हैं की तैमूर की एक झलक स्क्रीन पर दर्शकों को अभी भी दिखाई जा सके। टीआरपी और पैसे कमाने की होड़ में कुछ मीडिया चैनल वास्तविकता में कोसों दूर जा चुके हैं और एसेंशियल सर्विस में आने का नाजायज़ फायदा उठा रहे हैं।
अधिनियम को देखा जाये तो ये मालूम पड़ता है की कही न कही इसमें जनता के ऊपर ज़्यादा भार है। पब्लिक से ज़्यादा कयास लगायी जा रही है और पारदर्शिता की कमी है। वहीं दूसरी ओर इंदौर और दिल्ली के तब्लीग़ी मरकज़ जैसी घटनाएं हुई हैं और रिपोर्ट के अनुसार डॉक्टर और हॉस्पिटल स्टाफ के साथ बदसलूकी की गयी है। बीतें कुछ दिनों में कुछ ऐसी शर्मनाक घटनाओं का सिलसिला लगातार जारी है जिसने हमारी लचर कानून व्यवस्था को एक बार फ़िर से कटघरे में खड़ा कर दिया है। इंदौर में उन डॉक्टरों को जो की कोरोना से संभावित पीड़ितों का टेस्ट करने गए थे भगा कर मारना, पथरबाज़ी करना, या ग़ज़िआबाद में नर्सों के साथ क्वारंटाइन में रखे गए कुछ तब्लीग़ी जमात के संदिघ्द मरीज़ों का बत्तमीज़ी करना शर्मसार कर देता है। हलाकि राज्य सरकारों ने सराहनीय कदम उठाते हुए कानूनी कार्यवाही के संकेत दिए हैं लेकिन मुद्दा ये है कि कानून की किस धारा के अंतर्गत सरकार कार्यवाही करेगी?
डॉक्टरों के साथ हुए अभद्र व्यहवार ने पिछले काफी दिनों से सुर्खियां बटोरी हैं जो की अत्यधिक निंदनीय है। विगत जून 2019 में भी डॉक्टरों के साथ अभद्र व्यहवार हुआ था जिसकी वजह से समूचे भारत में तकरीबन 8 लाख डॉक्टरों ने हड़ताल कर दी थी जिसकी वजह से काफी उहा -पोह हुआ था। सरकार द्वारा सुनिश्चित सहयोग और सुरक्षा देने के आश्वासन के बाद ही डॉक्टरों ने हड़ताल वापस ली थी। 10 महीने बीतने के बाद और तमाम बैंकर्स-बिल्डर्स, इत्यादि तबकों के लिए कई अधिनियम बनाए गए लेकिन डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए तब भी कोई कानून नहीं बना। तंज़ कसना, अस्पताल से वापस आने पर मकान-मालिक द्वारा घर में न घुसने देना, सैंपल कलेक्शन जाते हुए ड्यूटी पर पत्थरबाज़ी होना, नर्सों के सामने अश्लील इशारे करना कुछ ऐसी घटनाएं हैं जो की किसी भी सभ्य समाज का सर शर्म से झुका दे।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का बयान आया है कि गलती करने वालों के ऊपर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट लगाया जाना चाहिए। क्या इसका मतलब यह है कि धारा 188 का इस संदर्भ में कोई औचित्य नही रह गया है? क्या ऐसे अपराधों को, जो कि समाज के खिलाफ भी हैं, विशेष अपराध की श्रेणी में नही रखना चाहिए? क्यों कुछ लोग ऐसी स्थिति में भी कानून व्यवस्था को मानने से इंकार कर रहे हैं? या ये सरकार की असफलताओं का उदहारण है की अभी तक डॉक्टरों की सुरक्षा हेतु किसी भी सरकार द्वारा कोई भी कानून पारित नही किया गया है। काश जितनी जल्दी दंगाइयों और उपद्रवियों से मुआवज़ा वसूलने के लिए कानून बनाया गया था उतनी ही प्राथमिकता से डाक्टरों के खि़लाफ बढ़ रहे अपराधों को रोकने के लिए भी कानून बनाया जाता।
लॉक-डाउन की वजह से अदालतें बंद हैं और केवल अति-आवश्यक मामलों की सुनवाई हो रही है और इनमें से ज्यादातर मामले कोरोना से जुड़े हुए हैं। गौर करने की बात ये है कि उच्चतम न्यायालय या किसी भी उच्च न्यायालय ने अब तक इस बात का संज्ञान लेना ज़रूरी नहीं समझा है जो की ऐसी स्थिति में अति आवश्यक है। वो जनहित याचिकाकर्ता, जो रात के दो बजे भी अदालत में अपने मामलों की सुनवाई करवाते हैं, उनमें से किसी ने भी इस बात को अदालत में नही उठाया।
खैर उम्मीद यही है कि यह स्थिति हमारे विधि निर्माताओं, अदालतों और बुद्धिजीवियों को हमारे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार लाने के लिए मजबूर करेगी।