अपने ही घरों में अपने तरीक़े से तो जी नहीं पाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की महिलाएँ
कौनसी आज़ादी की बात करती?
खुली आँखों से खुला आसमान तो देख नहीं पाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की महिलाएँ
कौनसी आज़ादी की बात करती है?
अपने वॉलीद अपने शौहर से अपने दिल की बात खुल कर कह ना पाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की महिलाएँ
कौनसी आज़ादी की बात करती है?
रिवाजों की सूली चढ़ जाती है लेकिन हलाला के ख़िलाफ़ आवाज़ ना उठा पाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की महिलाएँ
कौनसी आज़ादी की बात करती है?
अपने ही बिस्तर पर सौतन की सेज सजाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की ये शेरनियां,
कौनसी आज़ादी की बात करती है?
बिना जाने समझे ये महिलाएँ देश के ख़िलाफ़ सियासत का मोहरा बन जाती है,
मैं सोचती हूँ कि शाहीन बाग़ की महिलाएँ
कौनसी आज़ादी की बात करती है?