कभी देखा है सूरज को रात में आने को मचलते हुए,
चाँद को दिन बने रहने की ज़िद कर ज़मीन पर पसरते हुए,
सभी की अपनी अपनी खूबियां,
अपना अपना व्यव्यहार है,
यही फ़र्क़ तो चलाता संसार है,
हम में भावनाओं का भण्डार है,
तो हमारी इच्छा शक्ति भी अपार है,
आंखों के कोनों में छुपे आंसू बेशुमार है,
पर हिम्मत इतनी कि हर चुनौती के सामने हर पल तैयार है,
किसी से भी और क्यों करे हम बराबरी,
हमारी अपनी हस्ती में किस इज़ाफ़े की दरकार है,
तो आज क्यों हम कर रहे पुरुषों से तकरार है,
आखिर क्या साबित करने को हम बेकरार है,
आखिर क्यों बने हम पुरुषों जैसे,
क्या है ऐसा हम में जो, हमें खुद को ही अस्वीकार है,
शर्म, हया, करुणा, दया, श्रद्धा, शक्ति,
संस्कारों में लिपटा अपने ही स्वरुप पर क्यों हम कर रहे धिक्कार है,
बराबरी की होड़ में,आधुनिकता की दौड़ में,
मेरी सहेलियों पीछे छूट रहा हमारा सच्चा अवतार है !