Tuesday, November 5, 2024
HomeHindiकिसान: अन्नदाता का दर्द

किसान: अन्नदाता का दर्द

Also Read

“ए हरिया, किसान रैली में जाना है, तैयार रहना।”

“ये रैली-धरना से हमको क्या लेना-देना भइया? घर-खेत संभालें या नारेबाजी करें?”

“उ सब हमको नहीं पता। पार्टी-कार्यालय से कहलाया है। अमावस के बाद वाले दिन शहर जाना है। ये लो ये झंडा, उस दिन लेकर चलना है।”

– – – – – – –

“बेटा, खटिया जरा सी सरका दे, आंख ना खोली जा रही”, माँ ने हरिया से कहा। चार महीने पहले जो गिरने से पैर की हड्डी टूटी थी, अब तक खुद से हिल डुल नहीं पाती थी। टूटी छत से धूप उसके मुंह पर पड़ रही थी।

हरिया ने खटिया सरकाते हुए कहा, “बरसात से पहले सोचा था इस बार छत ठीक करवा ही लूंगा लेकिन तेरे इलाज में जमा पैसे लग गये। छगन से बीस हजार लिए सो अलग। कल रात से जो बेचैनी है तुझे, सुई-दवाई मंगानी होगी शहर से। हजार बारह सौ रूपये लगेंगे। कहाँ से लाऊँ।” उसकी आँखें भीग गई।

“हरिया ओ हरिया”, छगन की आवाज आई। “भाई मेरे पैसे दे दे।जोरू बहुत बीमार हो गई है, शहर ले जाना पड़ेगा।”

हरिया पसीने से भीग गया। लज्जा, चिंता, बेबसी, सारे भाव एक साथ उसके चेहरे पर उभर आये। हाथ जोड़कर बोला- “पैसे तो ना जुटा पाया मैं। इस बार खड़ी फसल पर जो कीड़ा लगा, सारी फसल खराब हो गई। बड़ी कंपनी के प्रचार को देखकर दो साल से जो नयी किस्म के बीज बोने लगा, पहली साल तो फसल डेढ़ गुना हो गई, मगर भइया दूसरी साल ज्यादा दाम में वही बीज लेने पड़े, फसल भी ना बढी, कहते हैं पानी ज्यादा देना पड़ता है इस बीज में। बारिश भी कम हुई। सेठ के कर्जे में ही सारी कमाई चली गई। कर्जा है कि खतम होने का नाम ही नहीं लेता। ये तो दुलारी का दूध बिक जाता है तो भूखे ना मरे।”

छगन गुस्से में बोला- “तुमने कहा था कुछ ही दिनों में पैसे लौटा दोगे। सेठ और पैसे देने को राजी नहीं, माँ को शहर ले जाना पड़ेगा। मैंने अपना समझ कर मदद कर दी। मगर मेरी हालत भी तुमसे छुपी नहीं है। एक ही बेटा था। काला बुखार लील गया उसे। तब से उसकी माँ मानो सुध-बुध खोयी सी रहती है। पहले ईंट के भट्टे पर माँ-बेटा दोनों काम करते तो गुजर बसर जितना जुगाड़ हो जाता था। अब अकेला रह गया हूँ। बीमारी का खर्चा अलग। कैसे भी कर के दस हजार ही दो तो शहर जाऊँ।”

“दो दिन समय दो छगन। तुमने मुसीबत में मदद की थी। भूला नहीं हूं।”

– – – –

“दस हजार अभी दे दो। अमावस के बाद उसे पहुँचा दूँगा तुम्हारे पास। तब बाकी पैसे दे देना। बस एक बिनती है। दुलारी मेरी बेटी भी है, माँ भी। कसाई को ना बेचना उसे कभी।”

– – – –

उस रात हरिया सो नहीं पा रहा था। अमावस का अंधकार मानो उसके मन को घेरे बैठा था। अचानक बाड़े से कुछ आवाजें आई। उसने उठकर बाहर जाकर देखा। अंधेरे में कुछ परछाइयां भागती दिखी। हरिया के मुँह से शंका भरी आवाज़ निकली – “दुलारी”। दौड़ कर गया तो खाली डोरी बँधी थी खूंटे से।

जल्दी में झंडे वाला डंडा ही हाथ में लेकर हरिया भागा परछाईयों के पीछे। काफ़ी दूर जाकर उसने एक के सर पर डंडे से मारा। मगर बाकियों ने उसको पकड़ लिया और मार पीट कर भाग गए। बेहोशी की हालत में उसके मुँह से एक ही शब्द निकल रहा था- “दुलारी, दुलारी”। झंडा फटकर मिट्टी में पड़ा था।

होश आने पर उसने खुद को सलाखों के पीछे पाया। हवलदार कोतवाल को बता रहा था- “गोरक्षक है साहब।”

“साहब जल्दी आइये”, सुबह हवलदार घबराहट में चिल्ला रहा था, “लगता है इसने अपनी जीभ खींच कर जान दे दी।”

गाड़ी में बैठकर ही हड़बड़ी में जमकर नाश्ता करने से मंत्रीजी को हिचकियाँ आने लगी थी। कूलर की तेज़ हवा से उड़ते शाॅल को संभालते हुए उन्होंने भाषण शुरू किया- “किसान (हिच) हमारे (हिच) अन्नदाता (हिच) हैं……… “//

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular