(वैधानिक स्पष्टीकरण- यह कथा और इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं। यदि इसका किसी भी समकालीन खबर, जीवित या मृत व्यक्ति, नर्तकी, सोफा-काउच अथवा लकड़ी के बोल से कोई भी संबंध पाया जाता है तो यह एक संयोग मात्र ही माना जाएगा। इस कहानी का उद्देश किसी तख्ती-सत्याग्रही की भावनाओं को आहात करना नहीं है। हम आशा करते हैं कि उनकी रोटी अविचलित आती रहे और उन्हें बैठने के लिए बेहतरीन काउच मिलते रहें।)
काफी समय पहले की बात है, हम लखनऊ स्टेशन के प्लैटफार्म पर टहल रहे थे। पता नहीं क्या आफत आई थी कि हम प्रस्थान समय से घंटों पहले ही पहुंच गए। माँ भी न, बेबात हुरियाए रहतीं हैं। खैर, समय काटने के लिए हमने सोचा चलो तनिक जूते ही घिस लेते हैं। तो हम प्लैटफार्म पर आगे-पीछे माछी सरीके मंडराने लगे।
जूता घिसाई की इस प्रक्रिया के दौरान हमनें गौर किया कि स्टेशन पर दुकानें भी हैं। फिर क्या था, हमने जूता खिसाई की योजना आधी ही छोड़ दी और दुकानों के इर्द-गिर्द वाकई मक्खी के जैसे भिनभिनाने लगे।
इसी सिलसिले में हमारी बिनाई में एक विचित्र दृश्य आया। एक भिखारी बच्चा फल के ठेले वाले से ‘मोल’भाव कर रहा था। बालक कोई ६-७ वर्ष की आयु का रहा होगा। कम-ज्यादा भी हो सकता है। हमसे लोगों की उम्र सही से नहीं आंकी जाती है। कोई और दिन होता तो हम उस बच्चे को फल खरीद देते। लेकिन खाली दिमाग शैतान का कारखाना होता है और आज तो हम खुद ही पूरे के पूरे खलिहर थे।
हमारे मुख पर कब एक कुटिल मुस्कान आ गई, और कब हम दांत चियारने लगे पता ही नहीं चला, और हमने सोचा कि देखते हैं आगे क्या होगा। इस प्रकार हम स्टेशन पर हो रहे इस मोल-भाव, यानी संक्षिप्त में कहें तो मोल-स्टेशन का पर्यवेक्षण करने लगे।
बच्चा भूखा था, उसे फल चाहिए थे। फल का ठेला लगाने वाला व्यवसायी था, उसे पैसे चाहिए थे।
बेचारे बालक के पास पैसे नहीं थे। और हम ये सब ऐसे देख रहे थे कि जैसे सामने नृत्य नाटिका प्रस्तुत हो रही हो। हम दर्शक हैं, सामने सरोज नृत्य कर रहा है। सरोज हमने मन ही मन बालक को नाम दे दिया था और फल वाले का नाम हमने टिंकास उच्चका रख दिया। सरोज नाम उस मैले लड़के पर फिट बैठता था और फल वाला तो सूरत से ही उचक्का प्रतीत हो रहा था।
नाट्य कुछ यूं आगे बढ़ रहा था- सरोज के पास फल खरीदने को पैसे नहीं हैं। टिंकास ने फल देने से मना कर दिया। वह भी व्यवसाय में है, भिखारियों को रोज-रोज मुफ्त में फल देता फिरे तो खुद भी भीख मांगने के दिन आ जाएंगे। लेकिन सरोज भी पेशेवर भिखारी है। अपनी कला में ऐसा निपुण कि देखने वाले को लगे जैसे वो किसी नर्तकी की नृत्य कला के दर्शन कर रहा हो।
मगर क्रूर उच्चका नहीं पिघलता है। वह इससे बेहतर नृत्य प्रतिभा वालों को भी टरका चुका है। प्रतिभा की कमी से ऊपर उठने के लिए क्या किया जाए सरोज यह सोच ही रहा था कि उच्चका ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘ठीक है। मेरे केले-चीकू सब, जहाँ मैं कहूं उठा कर वहाँ कर देना, तो मैं तुम्हें एक फल का गट्ठर दे दूंगा।’
अगले एक घंटे तक सरोज ने खूब दौड़ लगाई, कभी केले यहां, तो कभी चीकू वहां। एक समय तो ऐसा आया कि टिंकास का भाई भी आ गया और उसने भी सरोज से काम कराया।
फिर अंत में एक गठरी में रोल कर के कल के बचे हुए कुछ फल सरोज को थमाते हुए टिंकास ने बोला कि अगली बार केले और चीकू और बेहतर तरीके से संभालोगे तो ज्यादा अच्छे फल गट्ठर में रोल कर देंगे।
सरोज ने भी आंख में आंसू और मुंह पर जबरन मुस्कान के साथ सर हिला दिया।
अब सरोज रोज उच्चका के केले और चीकू के साथ पूरे स्टेशन पर नाचता है और उसे एक रोल फल मिल जाता है।
तब से स्टेशन पर हुए मोल-भाव को हम मोलस्टेशन ही कहने लगे हैं।
#मोलस्टेशन (mole-station)
(पाठकों की सुविधा के लिए- टिंकास= कास टिन; उच्चका= का उच्च)