मोदी सरकार ने फैसला किया है कि पुराने 500 और 1000 के नोट अब नहीं चलेंगे। लोगों को पुराने नोट जमा करवा कर उसके बदले नये नोट लेने होंगे। इससे उन लोगों पे शिकंजा कसा है जिन्होंने गलत तरीके से बिना टैक्स दिये लाखो-करोड़ो का काला धन जमा कर लिए था। अब उन्हें ये पैसा बैंक में जमा करना होगा, और फिर उसपे टैक्स और जुर्माना देने होगा।
जहां देश मे एक तरफ खुशी की लहर है कि सरकार ने एक मजबूत कदम उठाया, वहीं दूसरी ओर विरोध के स्वर एवं आशंकाओं के पहाड़ भी टूट पड़े हैं। अब इस बात मे तो कोई दो राय नहीं है कि ये फैसला हम सबकी ज़िंदगियों को छूएगा और प्रभावित करेगा, लेकिन मुद्दा ये है कि आज की परेशानी उठाने पर क्या आने वाले सालों मे कुछ फायदा होगा?
ऐसे ही कई सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश हमारी फ़ाइनेंस प्रोफेशन्ल्स की मंडलियाँ कर ही रही थी कि फेसबुक, व्हाट्सएप्प पर एक जटिल मैसेज आया, बाद मे कई ऑनलाइन अखबारों मे भी ये घूमने लगा, और जानकारी दी गयी की ये सम्मानीय गोविंदाचार्य जी द्वारा लिखित है। क्योंकि इतने महान व्यक्ति ने ये बात लिखी है तो चार बार इसको पढ़ डाला, और सच कहूँ तो तीन बार पेट भर कर हंसी आई, क्योंकि पहली बार तो ये समझ नहीं आया कि इत्ती सी बात जो गोविंदाचार्य जी के समझ आ गयी उसको बड़े-बड़े अर्थशास्त्री कैसे चूक गए। मामला समझने के लिए आप भी ये मैसेज पढ़ें –
“प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा 500 और 1000 के नोट समाप्त करने के फैसले से पहले मैं भी अचंभित हुआ और आनंदित भी। पर कुछ समय तक गहराई से सोचने के बाद सारा उत्साह समाप्त हो गया। नोट समाप्त करने और फिर बाजार में नए बड़े नोट लाने से अधिकतम 3% काला धन ही बाहर आ पायेगा, और मोदी जी का दोनों कामों का निर्णय कोई दूरगामी परिणाम नहीं ला पायेगा, केवल एक और चुनावी जुमला बन कर रह जाएगा। नोटों को इसप्रकार समाप्त करना- ‘खोदा पहाड़ ,निकली चुहिया।
अर्थशास्त्रियों के अनुसार भारत में 2015 में सकल घरेलु उत्पाद (GDP) के लगभग 20% अर्थव्यवस्था काले बाजार के रूप में विद्यमान थी। वहीँ 2000 के समय वह 40% तक थी, अर्थात धीरे धीरे घटते हुए 20% तक पहुंची है। 2015 में भारत का सकल घरेलु उत्पाद लगभग 150 लाख करोड़ था, अर्थात उसी वर्ष देश में 30 लाख करोड़ रूपये काला धन बना। इस प्रकार अनुमान लगाएं तो 2000 से 2015 के बीच न्यूनतम 400 लाख करोड़ रुपये काला धन बना है। रिजर्व बैंक के अनुसार मार्च 2016 में 500 और 1000 रुपये के कुल नोटों का कुल मूल्य 12 लाख करोड़ था जो देश में उपलब्ध 1 रूपये से लेकर 1000 तक के नोटों का 86% था। अर्थात अगर मान भी लें कि देश में उपलब्ध सारे 500 और 1000 रुपये के नोट काले धन के रूप में जमा हो चुके थे, जो कि असंभव है, तो भी केवल गत 15 वर्षों में जमा हुए 400 लाख करोड़ रुपये काले धन का वह मात्र 3% होता है!”
क्या आपको हंसी आई ? नहीं आएगी, आखिर एक महान विचारक ने लिखा है, ऐसे ही थोड़े न आप पहली बार में ही हंस दोगे। आपको हँसाने के लिए राम और श्याम की कहानी सुनाते हैं –
कई दसियों साल पहले, एक बार, राम भाई नींबू का शर्बत लेकर और श्याम भाई ऑरेंज का शर्बत लेकर मेले मे पैसा कमाने निकले। राम भाई के पास कुल 100 गिलास शर्बत था और श्याम भाई के पास भी 100। राम भाई ने एक गिलास की कीमत 25 पैसे अर्थात चवन्नी की लगाई और श्याम भाई ने भी 25 पैसे । राम भाई क्योंकि बड़े थे तो अम्मा ने मेला घूमने के लिए उनको एक चवन्नी दे दी थी। अब क्योंकि मेले मे माहौल नहीं था तो बिक्री नहीं हो रही थी, दुकान छोड़कर जा नहीं सकते थे, भूख जैसी भी लग ही रही थी… तो राम भाई ने श्याम को बोला यार तेरा शर्बत पिला, श्याम भाई बोले “गिनकर 100 गिलास है, हिसाब बिगड़ जाएगा, एक काम करो अम्मा वाली चवन्नी दे दो, फिर पिलाता हूँ”। राम भाई ने चवन्नी दी और शर्बत गटक गए। अब इधर यही खेल श्याम को भी सूझा, बोला भैया शर्बत पिलाओ, तो राम भाई ने चवन्नी वापस मांग ली… अब मेले में उठाव नहीं था, थोड़ी देर बाद राम भाई ने श्याम को फिर चवन्नी खिसका दी और एक गिलास शर्बत और गटक गए… उधर श्याम भाई भी चवन्नी इधर से उधर भेज कर एक गिलास और गटक गए। तो एक चवन्नी 200 बार इधर से उधर हुई और दोनों के शर्बत दोनों ने ही समाप्त कर दिये।
इस कहानी से ही कहावत बनी है चवन्नी घुमाना। खैर, मैं आपको इस घटना का अर्थशास्त्र समझाना चाहता हूँ। इस घटना का GDP यानि सकल घरेलू उत्पाद होगा – इस घटना मे उत्पन्न हुए सारे माल और सेवाओं की बाजार द्वारा निर्धारित कीमत, अँग्रेजी में कहें तो total market values of goods and services produced, याने राम भाई का 25 रुपये का शर्बत (25 पैसे गुना 100 गिलास) और श्याम भाई का 25 रुपये का शर्बत, याने कुल हुआ 50 रुपये। मतलब अपनी कहानी का जीडीपी है 50 रुपये। लेकिन क्या ये जीडीपी चलाने के लिए हमको 50 रुपये लगे? नहीं भाई हमारा काम तो मात्र एक चवन्नी मे चल गया!
![Govindacharya](https://i0.wp.com/myvoice.opindia.com/wp-content/uploads/sites/3/2016/11/govindacharya-300x191.jpg?resize=300%2C191)
अब आप वापस पढ़िये गोविंदाचार्य जी को, उन्होने बड़ी चालाकी से 50 रुपये के जीडीपी को ऐसे दिखाया जैसे 50 रुपये के जीडीपी को चलाने के लिए आपको 50 रुपये के नोट छापना आवश्यक हैं। गोविंदाचार्य जी का दूसरा पैराग्राफ पढ़ें, उन्होने बताया है कि 2015 में जीडीपी 150 लाख करोड़ था, और 20% अर्थव्यवस्था काले-बजार के हवाले थी याने टैक्स न भरने वाली काली अर्थव्यवस्था 30 लाख करोड़ की थी। अब आप ही बताइये मित्रों, क्या 30 लाख करोड़ के काला बजार को 30 लाख करोड़ के नोटों की आवश्यकता है?
बिलकुल नहीं, कितने नोटों की आवश्यकता है ये इस पर निर्भर करता है कि आपके यहाँ लोग कैसे लेनदेन करतें हैं। अब ब्लैक मनी वाले चेक या ऑनलाइन ट्रान्सफर तो करते नहीं होंगे, वहाँ सारा मामला नकद में ही चलता होगा। मतलब 30 लाख करोड़ का जो काला माल पैदा हुआ उसका अधिकतम भुगतान नोटों द्वारा ही होता होगा। और ये नोट 100 और 50 के तो होते नहीं होंगे। मतलब सराफा का एक ब्लैक व्यापारी टाटा-407 भरकर नोट लेकर तो चल नहीं सकता (वैसे मजाक में कहें तो सराफा की गलियों में 407 निकल ही न पाएगा)। तो बड़े नोटों का अधिकतम इस्तेमाल काली अर्थव्यवस्था में होता होगा, ऐसा अनुमान कहीं से भी गलत नहीं हो सकता, और दूसरी बात यह कि 30 लाख करोड़ के उत्पादन को सम्हालने के लिए 30 लाख करोड़ नहीं अपितु इससे कम बड़े नोटों की जरूरत होगी ।
आखिरी बात, गोविंदाचार्य जी ने 15 साल की काली अर्थव्यवस्था जोड़कर उसको 400 लाख करोड़ का बताया है, फिलहाल मैं ये नहीं सिद्ध करना चाहता कि ये सारे आंकड़े गलत हैं, लेकिन आप ये आसान सी बात बताइये, यदि राम और श्याम के गाँव में अगले 10 साल तक शर्बत 25 पैसे का ही रहे और अम्मा ऐसे ही चवन्नी देकर उनको मेले मे भेजती रहे, तो दस साल का जीडीपी भले 50X10 = 500 रुपये का हो जाएगा लेकिन आज भी उनका काम उसी चवन्नी से चल जाएगा या नहीं ? अब तो आप हँसोगे कि कैसे एक महान आदमी ने जीडीपी और उसमें घूमने वाले नोटों को एक ही नंबर मान लिया।
वैसे आप एक और बात पर मुस्कुरा सकते हैं, कि सामने वाला हम लोगों को मूर्ख समझ कर कुछ भी आंकड़े पहना रहा था और हमने उसकी चालाकी पकड़ कर उसी की जेब में खोस दी । हमारे देश में महानता का भूत उतारने में लोगों को अप्रतिम संतोष की प्राप्ति होती है।
अंत में आपसे ये कहना चाहूँगा कि हमारा देश बहुत बड़ा है, ऐसा कोई फैसला नहीं हो सकता जो सारे 125 करोड़ को खुश रखे, लेकिन हर फैसला सही और गलत जरूर होता है। जैसे आज़ादी के बाद कई अहिंसावादियों का तर्क था कि हमको सेना की कोई आवश्यकता नहीं है, वहीं सरदार पटेल का फैसला था कि सेना बनेगी और खूब बनेगी। उनका फैसला सही था, लेकिन सबको पसंद नहीं था। आप ऐसे भी देख सकते हैं कि उनके फैसले से कई नौजवानो की जान भी गयी, क्योंकि लाखों नौजवान भारत की सेना मे भर्ती हुए, लेकिन यदि यह फैसला नहीं होता तो करोड़ों लोग गुलामों की जिंदगी जीते, युद्ध में नहीं तो अकाल में मर जाते, दुश्मनों द्वारा मार दिये जाते।
दूसरी ओर, आज हमारे देश में कई अशिक्षित या unskilled युवक सही शिक्षा के अभाव में बेरोजगारी की जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं, वहीं सरकार को यदि टैक्स आदि के माध्यम से बराबर धन प्राप्त हो तो वो एक अच्छी शिक्षा देकर लोगों को रोजगार हेतु तैयार कर पाती, नए उद्योग धंधों को स्थापित कर रोजगार सृजित कर पाती। इसलिए आज हमको एक सही निर्णय के साथ सब मुसीबतें झेलकर खड़े होना है।
याद रखिए हमारे लिए ये समय भले ही कुछ नोटों के बदलने का है, लेकिन बदमाश व्यापारियों और उनसे संचालित मीडिया और झूठे नेताओं के लिए ये समय पाखंड और प्रपंच फैलाने का है। उन्हें अपनी चवन्नी बचानी है, और चवन्नी घुमानी है। वादा करिए कि हम इस प्रपंच को उखाड़ फेकेंगे।