हे मित्रों आप सोच रहे होंगे कि मैं ये क्या कह रहा रहूँ या किस नेता के बारे में बात कर रहा हूँ?
आइये ये लेख जैसे जैसे आगे बढ़ता जाएगा आपको अपने आप उस नेता का चेहरा दिखलाई देना शुरू कर देगा। जी हाँ मित्रों आज हम ऐसे व्यक्ति के ऊपर चर्चा और परिचर्चा करने जा रहे है, जिसने भारत के स्वतन्त्रता संग्राम मे ना तो किसी प्रकार का योगदान दिया और ना हि कोई भूमिका निभाई, पर उसका भाग्य देखिये, कि उसको वह सब कुछ मिला जिसका वो कत्तई हकदार ना था।
इस नेता कि कहानी शुरू हुई दिनांक १४ नवम्बर १८८९ को जब इन्होने अपना भार पहली बार इस धरा पर रखा था और वो स्थान था उत्तरप्रदेश के आज के प्रयागराज और तब के इलाहाबाद का मिरगंज नामक क्षेत्र जो वेश्यावृति के लिए प्रसिद्ध था। चाटुकार और वामपंथी इतिहासकारों ने इसे बहुत छुपाने का प्रयास किया किंतु सच्चाई तो छूप नहीं सकती।
इनका लगभग सम्पूर्ण परिवार (जिसमें इनके पिताजी, चाचा जी और अन्य विधि व्यवसाय से जुड़े हुए थे) इनके पिताजी अंग्रेजो के लिए विधि व्यवसाय करते थे, जिससे इन्हें अत्यधिक आए होती थी और ये अत्यंत धनी परिवारों में गिने जाते थे।
नेता महोदय का बचपन सुख सुविधाओं से पटा हुआ था, इनको बचपन में कभी भी किसी भी सुख सुविधा का अभाव नहीं रहा। ये अपने पिताजी से एक वस्तु कि फरमाइश करते और उन्हें चार वस्तुएं प्राप्त हो जाती। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उच्च कोटि के अंग्रेजो के स्कूल में सम्पन्न हुई। उच्च शिक्षा कि प्राप्ति के लिए इन्हें इंग्लैंड भेजा गया जंहा से उन्होंने विधि कि शिक्षा प्राप्त की। ये इंग्लैंड में जिस विश्विद्यालय में पढ़ते थे, उसी विश्वविद्यालय में माउंटबेटन और भविष्य में होने वाली माउंटबेटन कि पत्नी भी पढ़ा करती थी। दिलफेक मिजाज होने के कारण इनका उनके प्रति विशेष लगाव और आकर्षण था।
खैर युवावस्था तक आते आते ये अपने आपको अंग्रेज हि मानना शुरू कर चुके थे, इनके पहनावे से लेकर सामान्य बातचीत और जीवन जीने का सम्पूर्ण ढंग अंग्रेजो कि नकल करने पर आधारित था। शराब और सिगरेट/सिगार वे उसी प्रकार पीते थे जिस प्रकार लुटेरे अंग्रेज पीते थे। पिता इनकी जेब में इतना धन भार देते थे कि दुनिया की हर वस्तु इनके कदमो में होती थी। इंग्लैंड में उन्होंने लगभग ७ वर्ष बिताये और फिर १९१२ ई में वो भारत लौट आए और तत्कालीन इलाहबाद (आज के प्रयागराज) उच्च न्यायालय में वकालत का धंधा शुरू किये। इनके पिता और चाचा अंग्रेजो के उच्च कोटि के वकील थे अत: इन्हें बैठे बिठाये और बना बनाया सब कुछ मिल गया।
इनके पिता जी अत्यंत चालाक थे अत: जब भारत के महान क्रांतिकारियों कि मुखबिरी करने और लुटेरे अंग्रेजो और भारत कि जनता के मध्य बिचैलिए का कार्य करने हेतु A.O.Huem के द्वारा कांग्रेस पार्टी की स्थापना की गई तो इस नेता के पिताजी ने तुरंत उसमें एक प्रभावशाली स्थान प्राप्त कर लिया जो कि अंग्रेजो का वकील होने के नाते, आसानी से प्राप्त हो गया।
इधर दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास कर्मचंद गाँधी जी को अंग्रेजो ने सहयोग देकर एक समाजसेवक के रूप में प्रसिद्ध कर दिया था, यह एक रणनीति के तहत किया गया था। वो मोहनदास कि छोटी छोटी बातें मानकर अफ्रीकीयो को थोड़ा थोड़ा राहत दे देते थे, जिससे मोहनदास को प्रसिद्धि मिलने लगी और ये प्रसिद्धि दक्षिण अफ्रीका से अंग्रेजो के द्वारा भारत में भी फैला दी गई। याद रखिये मोहनदास हि ऐसे नेता थे जिन्हें उस दौरान भी मिडिया का सबसे ज्यादा समर्थन प्राप्त था, व्यक्तिगत उनके लिए एक पत्रकार सदैव उनके साथ रहा करता था, जो उनकी छोटी से छोटी क्रिया को भी बढ़ा चढा के छापते थे। अब वहीं मोहनदास कर्मचंद गाँधी को भारत भेज दिया गया और वो दिनांक ९ जनवरी १९९५ को भारत आए और किसानों के आक्रोश से बिहार के चम्पारण में अंग्रेजो के विरोध में पनप रहे आंदोलन को गाँधी का आंदोलन बनाने कि तैयारी में लग गए।
मित्रों आपको बताते चलें कि वर्ष १७५० में अंग्रेजो के दबाव से बिहार , संयुक्त प्रांत और बंगाल प्रेसीडेंसी में नील (नील) व्यावसायिक रूप से उगाया जाने लगा। एक नकदी फसल होने के कारण जिसमें पानी की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती थी और आमतौर पर मिट्टी को बंजर छोड़ देती थी, स्थानीय किसान आमतौर पर इसकी खेती का विरोध करते थे, इसके बजाय दैनिक जरूरत की फसलें उगाना पसंद करते थे। जैसे चावल और दाल। इसलिए, ईस्ट इंडिया कंपनी ने किसानों को इंडिगो उगाने के लिए दबाव डालने के लिए डिज़ाइन की गई नीतियां जारी कीं।
१९०० की शुरुआत में चीन के लिए भारतीय नील व्यापार को अवैध बना दिया गया था और १९१० में संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रतिबंधित कर दिया गया था, इंडिगो व्यापारियों ने उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों पर दबाव डालना शुरू कर दिया था।गणेश शंकर विद्यार्थी और पीर मुनीश ने अपने प्रकाशनों में चंपारण की स्थिति को प्रकाशित किया जिसके कारण उनकी नौकरी चली गई। धीरे धीरे इस आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह आंदोलन एक बार पुन: वर्ष १८५७ के प्रथम आंदोलन कि भांति व्यापक होगा परन्तु ठीक समय पर गाँधी जी ने इस आंदोलन को अपने हाथो में ले लिया और परिणाम ये निकला की इस आंदोलन के कर्म पर पहुंचने से पूर्व हि खत्म हो गया।
अत: वर्ष १९१७ ई में यह गाँधी का प्रथम आंदोलन समाप्त हो गया, जिसने किसानों को कुछ नहीं दिया परन्तु गाँधी को जबरदस्त लोकप्रियता दे गया।
मित्रों हम जिस नेता की बात कर रहे हैं इस लेख में अभी तक वो राजीनीति और देश सेवा में आए हि नहीं है।अब हम १९१७ से १९४७ अर्थात इन ३० वर्षो का इतिहास देखते हैं।
जब इस तथाकथित नेता के पिताजी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तो इन लुटेरों, डकैतों और हत्यारों के समूह का एक पिशाच जनरल डायर ने जालियाँवाला बाग हत्याकांड को अंजाम दिया। यह नरसंहार भारत के पंजाब प्रान्त के अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग में १३ अप्रैल १९१९ (बैसाखी के दिन) हुआ था।अङ्रेजोके काले क़ानून “रौलेट एक्ट” का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी जिसमें जनरल डायर नामक एक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें ४०० से अधिक व्यक्ति मरे और २००० से अधिक घायल हुए।
अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में ४८४ शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल ३८८ शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में २०० लोगों के घायल होने और ३७९ लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते है जिनमें से ३३७ पुरुष, ४१ नाबालिग लड़के और एक ६-सप्ताह का बच्चा था। परन्तु इस नरसंहार से कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि ये नरसंहार तो उनके आका लोगों ने हि किया था।
जब जलियांवाला बाग में यह हत्याकांड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हें भी गोली लगी थी। उन्होंने तय किया कि वह इसका बदला लेंगे। १३ मार्च १९४० को उन्होंने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को गोली चला के मार डाला। ऊधमसिंह को ३१ जुलाई १९४० को फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
इस नेता ने ऊधमसिंह द्वारा की गई इस हत्या की निंदा करी थी।
अपने पिता के प्रभाव के कारण ये नेताजी वर्ष १९२६ से १९२८ तक, अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के रूप में पदासिन रहे । वर्ष १९२८ से लेकर १९४७ ई तक का सम्पूर्ण राजनीतिक चक्र गाँधी जी कि छ्त्र छाया में हि पापा।
वर्ष १९३८ और वर्ष १९३९ ई में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के चुनाव में इस देश के वास्तविक नेता सुभाष चन्द्र बोस जी ने गाँधी और इस नेता के गुट को लगातार दो बार परास्त किया परन्तु इनके असहयोग के कारण और कांग्रेस के विभाजन को रोकने हेतु सुभाष बाबू ने कांग्रेस जीतकर भी छोड़ दी।
इस दौरान गाँधी जी के द्वारा स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की गई परन्तु इन नेता जी का कोई खास योगदान ना रहा। और ये सभी आंदोलन भारत कि जनता के मनोबल को तोड़ने के लिए किसी ना किसी बहाने असफल करा दिए गए।
किसी भी आंदोलन के शुरू होते हि ये नेता सबसे पहले अपनी गिरफ्तारी देकर जेल चलें जाया करते थे, जंहा कांग्रेसी होने के नाते और अपने पिता के प्रभाव के कारण वो सभी सुख सुविधाएं मिलती जो उन्हें उनके घर पर भी मुहैया होती और जब तक आंदोलन चलता वो जेल में रहकर हि किताबें लिखा करते थे। किताबें, जैसे कि “लेटर्स फ्रॉम ए फादर टू हिज डॉटर”, “एन ऑटोबायोग्राफी” , “ग्लिम्प्सेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री” और “द डिस्कवरी ऑफ इंडिया”।
इधर हमारे अनेक वीर सपूत जैसे वीर सावरकर दो दो काले पानी कि सजा भुगत रहे थे, सरदार उधम सिंह, भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव, लाला लाजपत राय, चन्द्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल, अश्फाक़ उल्ला खान, बिपिन चन्द्र पाल और दुर्गा भाभी जैसे महान क्रन्तिकारी सपूत अपने प्राणो का बलिदान दे रहे थे, मातृभूमि को आज़ाद कराने के लिए, जंहा रास बिहारी बोस ने आज़ाद हिंद फौज का गठन कर सुभाष चन्द्र बोस के हाथो में कमान सौप दी थी और सुभाष बाबू ने “आज़ाद हिंद सरकार” का गठन कर अंग्रेजो के विरुद्ध युद्ध का उद्घोष कर दिया था, वहीं ये नेता जी केवल किताबें लिख रहे थे और खादी पहनकर गाँधी जी के आंदोलनो में अपना चेहरा चमकाकर खानापूर्ति कर रहे थे या फिर तत्कालीन वायसराय माउंटबेटन कि पत्नी को अपने अङ्रेजिपन् से अपना मुरीद बना रहे थे।
इतिहास साक्षीदार है कि, इन नेताजी को कभी भी अंग्रेजो ने लाठी से छूवा भी नहीं था। इसके पश्चात एक औरत के चक्कर में आकर इस नेता ने अपने हि जैसे एक अन्य मुसलिम नेता के अहंकार को जगा दिया, जिसका परिणाम निकला “Direct Action Day” के नाम पर पहले बंगाल में और फिर नूवाखाली में हजारों हिंदुओ का नरसंहार, उनके लडकियो और स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार तथा उनके बच्चो का क्रूरता के साथ हत्या और अंत में भारत का विभाजन।
एक अंग्रेज औरत के चक्कर में दोनों ने धर्म की आड़ लेकर भारत का विभाजन करा दिया, जिसके लिए माउंटबेटन अपनी पत्नी को बाजार में खड़ा करने के लिए भी तैयार था।
इस नेता की जीवनी लिखने वाले एमजे अकबर लिखते हैं, ‘इस बारे में सबसे सशक्त प्रमाण टाटा स्टील के मुख्य कार्यकारी अधिकारी रहे रूसी मोदी ने उन्हें दिया था. १९४९ से १९५२ के बीच रूसी के पिता सर होमी मोदी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल हुआ करते थे. उस समय ये नेताजी नैनीताल आए हुए थे और राज्यपाल मोदी के साथ ठहरे हुए थे.”जब रात के ८ बजे तो सर मोदी ने अपने बेटे से कहा कि वो नेता के शयन कक्ष में जाकर उन्हें बताएं कि मेज़ पर खाना लग चुका है और सबको आपका इंतज़ार है.’
अकबर लिखते हैं, ‘ जब रूसी मोदी ने नेता के शयनकक्ष का दरवाज़ा खोला तो उन्होंने देखा कि नेता ने एडविना को अपनी बाहों में भरा हुआ था। नेता की आँखें मोदी से मिली और उन्होंने अजीब-सा मुंह बनाया। मोदी ने झटपट दरवाज़ा बंद किया और बाहर आ गए। थोड़ी देर बाद पहले नेता खाने की मेज़ पर पहुंचे और उनके पीछे-पीछे माउंटबेटन कि पत्नी भी वहाँ पहुंच गईं।’
इसी प्रकार, बटवारे से पूर्व जब यह तय करना हुआ कि, कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा तो, कांग्रेस के ९०% प्रांतिय समितियों ने सरदार पटेल को नेता चूना पर, गाँधी जी के गुप्त चिट्ठी को पढ़कर सरदार पटेल ने ९०% कांग्रेस के प्रांतीय समितियोन के मतदान को ताक पर रखकर अपना नाम वापस ले लिया और शून्य मत पाने वाले इस नेता को गाँधी ने कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर प्रधानमंत्री बनवा दिया।
मित्रों यदि हम तनिक ध्यान से देखें तो इस नेता ने कभी अपने पिता के धन और समाजिक प्रभाव से तो कभी गाँधी जी के सबसे प्रिय शिष्य होने के नाते कभी कांग्रेस का महासचिव, कभी कांग्रेस का अध्यक्ष और अंत में बाँटे गए भारत का प्रधानमंत्री का पद प्राप्त किया परन्तु, इस नेता ने स्वतन्त्रता आंदोलन में कभी कोई विशेष योगदान ना दिया।
इस नेता के द्वारा
१:- कोई भी आंदोलन नहीं शुरू किया गया;
२:- इस नेता के द्वारा कोई भी सुधारात्मक आंदोलन नहीं शुरू हुआ;
३:- इस नेता ने कभी भी किसी आंदोलन में अंग्रेजो कि एक लाठी तक नहीं खायी;
४:- इस नेता ने सदैव आज़ाद, भगत, उधम सिंह और सुभाष चन्द्र बोस का विरोध किया;
५:- इस नेता ने सदैव सरदार पटेल जैसे कद्दावर नेताओं का हक छीना पर फिर भी देखो इसकी किस्मत उसे वाह सबकुछ मिला, जिसका वास्तव में वो कभी हकदार ना था।
मित्रों ऐसे हि नेता लोगों के लिए हमारे कविराज कहते हैं:-
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काम,
दास मलूका कह गए सब के दाता राम!!
ऐसे हि इनकी भावी पीढ़ी भी है, जो ५२ वर्ष का होने के पश्चात भी आज भी युवा बनी हुई है।
लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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