मित्रो क्या मेमोरी कार्ड की सामग्री एक “मामला/द्रव्य/Matter” होगी और मेमोरी कार्ड स्वयं “पदार्थ/Substance” होगा- और क्या इसलिए मेमोरी कार्ड की सामग्री एक “दस्तावेज़/ Document” के रूप में स्वीकार करने योग्य होगी?
आप इन सभी प्रश्नों को सुनकर थोड़ा सोचने के लिए बाध्य हो गये होंगे है ना, आइये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश से समझने का प्रयास करते हैं।
मित्रो केरला राज्य में चलचित्र इंडस्ट्री से समबन्धित एक घटना है। इसमें ये जो अपीलार्थी है इसने अपने ६ अन्य साथियो के साथ मिलकर एक चलचित्र उद्योग से जुडी नायिका का अपहरण किया और चलती कार में उसके साथ बलात्कार किया और उसकी वीडियो भी बना ली ताकि उसे ब्लैकमेल कर सके। इसके पीछे कारन यह था की अपीलार्थी को ऐसा महसूस हो रहा था की इसी नायिका के द्वारा खुश राज की बात बताने से अपीलार्थी और उसके पत्नी के मध्य संबंध विकृत हो गए और अंतत: सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
उक्त घटना के संबंध में एक प्रथम सुचना प्रतिवेदन, एफ.आई.आर. नंबर २९७/२०१७ को नेदुम्बसेरी पुलिस स्टेशन द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा १२०बी, ३४२, ३६६, ३७६डी, ५०६ (१), २०१, २१२ और ३४ तथा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, २००० (आईटी अधिनियम) की धारा ६६ ई और ६७ ए के तहत के तहत दंडनीय अपराध के लिए पंजीकृत किया गया था। अपीलार्थी भी उक्त मामले में अभियुक्तों में से एक था। अपीलकर्ता को प्रदान किए गए भौतिक साक्ष्य, जिस पर अभियोजन पक्ष भरोसा करना चाहता था, में अन्य बातों के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (कथित बलात्कार की घटना के वीडियो वाले मेमोरी कार्ड/पेन ड्राइव की सामग्री) शामिल नहीं था। अत: उस इलेक्ट्रानिक रिकार्ड (मेमोरी कार्ड/पेन ड्राइव) को अपीलार्थी प्राप्त करना चाहता था।
अपीलकर्ता ने न्यायिक प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन दायर किया और याचिकाकर्ता को कॉल डेटा रिकॉर्ड के साथ मेमोरी कार्ड की सामग्री की एक क्लोन प्रति प्रस्तुत करने के लिए अभियोजन पक्ष को निर्देश देने की मांग की। मजिस्ट्रेट ने आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह पीड़िता के सम्मान, शालीनता, शुद्धता, गरिमा और प्रतिष्ठा पर आघात करेगा और यह सार्वजनिक हित के विरुद्ध भी होगा। हालांकि, इसने याचिकाकर्ता को अदालत की सुविधा के अनुसार वीडियो फुटेज की सामग्री का निरीक्षण करने की अनुमति दी।
इस आदेश से व्यथित होकर, अपीलकर्ता ने केरल के उच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील प्रेषित कर माननीय प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के उक्त आदेश को चुनौती दी, आदरणीय केरला उच्च न्यायालय ने माननीय मजिस्ट्रेट के आदेश को सही ठहराया और माना कि जब्त किया गया मेमोरी कार्ड घटना को रिकॉर्ड करने के लिए उपयोग में लाया गया एक माध्यम था और इसलिए यह अपराध का एक उत्पाद था और इसलिए यह सीआरपीसी की धारा २०७ के तहत “दस्तावेजी साक्ष्य” का हिस्सा नहीं बन सकता था।
अपीलार्थी ने आदरणीय केरला उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में आपराधिक अपील प्रेषित की। यह एक ऐसा मामला था जहां सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद २१ से उभरने वाले दो मौलिक अधिकारों, (१)अभियुक्त के निष्पक्ष मुकदमे का अधिकार और (२) पीड़ित की निजता का अधिकार, को संतुलित करना था। इस आवेदन में अपीलकर्ता, जिस पर बलात्कार का आरोप लगाया गया था, ने प्रतिवादी-(राज्य) को कथित बलात्कार की घटना के वीडियो वाले मेमोरी कार्ड की सामग्री की क्लोन प्रतियां प्रदान करने के लिए निर्देश देने की मांग की थी। जबकि निचली अदालत ने बलात्कार पीड़िता की गोपनीयता और गरिमा के उल्लंघन के आधार पर आवेदन को खारिज कर दिया था और उच्च न्यायालय ने कहा कि मेमोरी कार्ड एक “भौतिक वस्तु” थी जो दस्तावेजी साक्ष्य का हिस्सा नहीं थी और इसलिए इसे अपीलकर्ता के साथ साझा करने की आवश्यकता नहीं थी।
आइये देखते हैं की हमारा संविधान का अनुच्छेद २१ क्या कहता है :- अनुच्छेद २१ घोषित करता है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं हो सकता है। अनुच्छेद २१ में लिखे गए ‘जीवन के अधिकार्’ केवल पशु अस्तित्व या उत्तरजीविता तक ही सीमित नहीं है, लेकिन इसमें अपने दायरे में मानव गरिमा और जीवन के उन सभी पहलुओं के साथ रहने का अधिकार शामिल है जो एक व्यक्ति के जीवन को सार्थक, पूर्ण और लायक बनाने के लिए चाहिए। हमारे विद्वान न्यायधिशो का भी मानना है कि “निजता को मुख्य रूप से तीन स्तरों में बांटा जा सकता है”। जिसमें पहला है, आंतरिक स्तर:- ईसके अंतर्गत शादी, बच्चे पैदा करना आदि मामले आते हैं। दूसरा है, व्यक्तिगत स्तर: जहां हम अपनी निजता को किसी अन्य व्यक्ति या संस्था से साझा नहीं करना चाहते, जैसे अगर बैंक में खाता खोलने के लिए हम अपना डेटा देते हैं, तो हम चाहते हैं, कि बैंक ने जिस उद्देश्य से हमारा डेटा लिया है, उसी उद्देश्य से तहत वह उसका उपयोग करे, किसी अन्य व्यक्ति या संस्था को वह डेटा न दे। वहीं, तीसरा होता है, पब्लिक स्तर:- इस दायरे में निजता का संरक्षण न्यूनतम होता है, लेकिन फिर भी एक व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक निजता बरकरार रहती है। अगर किसी व्यक्ति से कोई ऐसा सवाल पूछा जाता है, जो उसके प्रतिष्ठा और मान-सम्मान को ठेस पहुंचाता है, तो वह निजता के मामले के अंतर्गत आता है, दरअसल स्वतंत्रता के अधिकार, मान-सम्मान के अधिकार और निजता के मामले को एक साथ कदम दर कदम देखना चाहिए। स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में मान-सम्मान का अधिकार आता है, और मान सम्मान के दायरे में निजता का मामला आता है।
आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वप्रथम मुद्दे पर विस्तार से विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि मेमोरी कार्ड की सामग्री भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ की धारा ३ और भारतीय दंड संहिता १८६० की धारा २९ के अर्थ में एक ‘दस्तावेज़’ के रूप में मान्य और योग्य होगी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि दस्तावेजों की सामग्री ‘इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड’ के अर्थ में आएगी।
आइये देखते हैं कि
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा ३ के अनुसार “दस्तावेज” क्या है- “दस्तावेज” से ऐसा कोई विषय अभिप्रेत है जिसको किसी पदार्थ पर अक्षरों, अंकों या चिन्हों के साधन द्वारा या उनमें से एक से अधिक साधनों द्वारा अभिव्यक्त या वर्णित किया गया है जो उस विषय के अभिलेखन के प्रयोजन से उपयोग किये जाने को आशायित हो या उपयोग किया जा सके। दृष्टांत-लेख दस्तावेज है; मुद्रित,शिला-मुद्रित या फोटो- चित्रित शब्द दस्तावेज है; मानचित्र या रेखांक दस्तावेज है; धातुपट्ट या शिला पर उत्कीर्ण उपहासांकन दस्तावेज है;
भारतीय दंड संहिता १८६० की धारा २९ के अनुसार ‘दस्तावेज’ शब्द (Word) किसी भी विषय (Topic) का द्योतक (Emblematic) है जिसको किसी पदार्थ पर अक्षरों (Letters on matter), अंकों या चिह्नों के साधन द्वारा, या उनमें एक से अधिक साधनों द्वारा अभिव्यक्त (Expressed) या वर्णित (Described) किया गया हो जो उस विषय के साक्ष्य (Evidence) के रूप में उपयोग किए जाने को आशयित (Intended) हो या उपयोग (Used) किया जा सके।
अर्थात दस्तावेज सामान्य अर्थो में किसी भी विषय वस्तु से संबंधित लिखित, मौद्रिक, चिन्हित ,अंकित और वर्णित रचना का अभिव्यक्त स्वरूप है, जिसे हम साक्ष्य के रूप में उपयोग में ला सकते हैं|
इसके अलावा, आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा २०७ के तहत अभियुक्तों को दस्तावेज प्रस्तुत करना अनुच्छेद २१ में निहित निष्पक्ष सुनवाई के अभियुक्तों के अधिकार का एक पहलू था। बंगाल बनाम सत्येन भौमिक और अन्य ((1981) 2 SCC 109)
हालाँकि, परस्पर विरोधी अधिकारों को संतुलित करने और पीड़ित की पहचान और गोपनीयता की रक्षा करने के लिए, आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वतंत्र प्रयोगशाला द्वारा केवल मेमोरी कार्ड की सामग्री का निरीक्षण और फोरेंसिक विश्लेषण की अनुमति दी। आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय आगे कहा कि सामान्य परिस्थितियों में, अभियुक्तों को मुकदमे के दौरान एक प्रभावी बचाव पेश करने में सक्षम बनाने के लिए एक क्लोन प्रति दी जानी चाहिए, लेकिन इस तरह की संवेदनशील परिस्थितियों में, अधिकारों को संतुलित करने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए।
न्यायालय ने अपने निर्धारण में, अनुच्छेद २१ से उत्पन्न मौलिक अधिकारों के संघर्ष को संतुलित करने के लिए आशा रंजन बनाम बिहार राज्य (२०१७) ४ SCC ३९७) और मजदूर किसान शक्ति संगठन बनाम भारत संघ ((२०१८) १७ SCC ३२४) में प्रतिपादित जनहित और प्रधानता के सिद्धांतों को लागू किया।
आदरणीय सर्वोच्च न्यायालय का निष्कर्ष: अगर अभियोजन पक्ष मेमोरी कार्ड या पेन ड्राइव की सामग्री पर भरोसा कर रहा था, तो “आमतौर पर, अभियुक्त को उसकी एक क्लोन कॉपी दी जानी चाहिए ताकि वह मुकदमे के दौरान एक प्रभावी बचाव पेश कर सके। हालांकि, शिकायतकर्ता/गवाह या उसकी पहचान की गोपनीयता जैसे मुद्दों से जुड़े मामलों में, अदालत को मुकदमे के दौरान प्रभावी बचाव पेश करने के लिए अभियुक्त और उनके वकील या विशेषज्ञ को केवल निरीक्षण प्रदान करने में न्यायोचित ठहराया जा सकता है।”
पि गोपालकृष्णन विरुद्ध केरला राज्य & अन्य (P. Gopalkrishnan vs. State of Kerala and Ors.) (२०२१ ALL SCR (Cri) ४९१), (२०२०) ९ SCC १६१, AIR २०२० SC १, २०१९ (१६) SCALE ७५२.
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)