Thursday, November 28, 2024
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वर्तमान संदर्भों मे लोकतंत्र के सिद्धांतों की समीक्षा विचारणीय

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किसी भी देश की आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था अन्योन्याश्रित होती है एक के दुर्बल होने पर दूसरी स्वतः धराशायी हो जाती है। 1920 -24 मे इटली पर मुसोलिन द्वारा फासिस्ट शासन लाद देने के पीछे प्रथम मंदी से अधिक उसके द्वारा प्रायोजित गृहकलह मुख्य कारण था। 1930 की दूसरी मंदी के कारण यूरोपीय देशों की लगभग सभी सरकारों ने आर्थिक संकट से निपटने के लिये आर्थिक संस्थानों पर पूर्ण नियंत्रण किया, परंतु लोकतंत्र निलंबित कर अधिनायक तंत्र भी स्थापित किया यह प्रथम दृष्टया आर्थिक संकट के दुष्प्रभाव थे परंतु मुख्य भूमिका गृहकलह की थी। धूर्तों ने इस परिस्थिति का भरपूर लाभ उठाया। द्वितीय मंदी मे आर्थिक संकट ग्रस्त जनता को किसानों की कर्ज मुक्ति, यहूदी पूँजीपतियों का अंधा विरोध, एवं सभी बेरोजगारों को रोज़गार आदि सब्जबाग दिखा कर हिटलर ने जर्मनी मे पूर्ण नात्सीतंत्र की स्थापना की थी।

भारत के राजनैतिक क्षितिज पर गृह कलह एवं झूठे प्रलोभन द्वारा जनता को बरगलाने की उपरोक्त दोनो प्रवृत्तियां आज प्रमुखता से विद्यमान है। देश को अस्थिर करने हेतु देश विरोधी तत्वों को भारी मात्रा मे प्राप्त विदेशी धन द्वारा भारत मे देशव्यापी विप्लव की साज़िश एवं प्रायोजित आंतरिक अस्थिरता के इस दौर मे राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र लोकतांत्रिक परंपराओं की समीक्षा विचारणीय हो जाती है। संविधान प्रदत्त अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा पुर्नपरिभाषित करना उचित है। शत्रु देशों के प्रति निष्ठावान नागरिकों के लिये अथवा लोकतंत्र मे अश्रद्धा होने पर लोकतांत्रिक अधिकारों का दावा मान्य नही हो सकता। अपराधी प्रवृत्ति या देश विरोधी कृत्यों मे संलिप्तता प्रमाणित होने पर  मतदान एवं निर्वाचन मे भागीदारी स्थायी रूप से समाप्त की जाए।

वर्तमान व्यवस्था मे कानून की अवज्ञा का मुज़रिम स्वयं कानून मंत्री बन सकता है यह लोकतंत्र का मखौल है। राजनीतिक दलों द्वारा आर्थिक संसधनों के बेरहम दुरूपयोग संबंधी चुनावी वादों पर सख़्त पाबंदी लगे। देशव्यापी राष्ट्रीय संकटकाल मे ऐसे संवैधानिक सुधारों की कड़वी दवा औषधी की भांति पथ्य है। वर्तमान भारत मे सर्वत्र व्याप्त अराजकता। धर्म के नाम पर देश के कोने कोने मे प्रायोजित दंगो की श्रंखला। सत्ता प्राप्ति के शार्टकट के रूप मे समाज के विघटन का षडयंत्र।

सत्ता सीन राष्ट्र नायकों की हत्या का विदेशी षडयंत्र और भारी तादाद मे इन षडयंत्रकारियों के देशी मददगारों की उपस्थिति। भ्रष्टाचार के विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही पर एवं देश विरोधी गतिविधियों मे लिप्त संस्थाओं पर कानूनी कार्यवाही के विरूद्ध देशव्यापी हिंसक विरोध प्रदर्शन। सीमावर्ती राज्यों मे फल फूल रहे आतंकवाद के देश भर मे फैलाव की तैयारी। आदि घटनाऐं लोकतांत्रिक अधिकारों के रूप मे प्राप्त स्वतंत्रता के दुरूपयोग को रेखांकित करती है। लोकतांत्रिक अधिकार उन्ही के लिये हो जिनकी लोकतंत्र मे अस्था हो।

भारतीय लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिये इसमे सुधार अपेक्षित है। शासन के लिये शक्ति अनिवार्य है और लोकतंत्र मे शक्ति. लोक यानि जनता के पास होती है जनता मे स्वार्थी दुर्जनों की बहुतायत होने पर जन प्रतिनिधियों द्वारा संवेधानिक शक्तियों का अविवेकी दुरूपयोग संभव है। लोक तंत्र के इस स्वरूप को राष्ट्रवादी लेखक गुरूदत्त ने भीड़ तंत्र कहा था। विवेक रहित परंतु शक्तिशाली भीड़ की प्रवृत्ति अराजकता की होती है, अराजकता की परिणती गृहयुद्ध है। इतिहास के पृष्ठ देखें. द्वापर मे जिसे बाहरी आक्रांता कभी पराजित नही कर पाए उस अजेय मथुरा द्वारका गणतंत्र का अंत गृह युद्ध के कारण हुआ।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे भी कुरू पांचाल मद्रक मालव क्षूद्रक कम्भोज लिच्छवि आदि अनेक गणराज्यों का उल्लेख है। युनानी लेखकों ने भी उत्तर पश्चिम सीमा पर बड़ी संख्या मे सिकंदर को टक्कर देने वाले गणराज्यों का उल्लेख किया है परंतु लोकतांत्रिक मान्यताओं को समयानुसार अद्यतन रखने के प्रति उदासीनता के कारण सभी अंत को प्राप्त हुए। युगों युगों तक एकतंत्र इस भूमि पर इसलिये जीवित रह सका क्योंकि इस व्यवस्था मे लोक मत पर शक्ति और विवेक के समन्वय को प्राथमिकता थी।

लोकतंत्र मे भी शक्ति का विवेकयुक्त प्रयोग देश मे सुशासन और शांति समृद्धि की गांरटी है। भारत की वर्तमान दुरावस्था लोकतांत्रिक परंपराओं को पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकाता का संकेत करती है। केवल भारत ही नही वेश्विक हालात भी भू मंडल पर लोकतंत्र के प्रचलित स्वरूप मे सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करते है। सर्वे भवन्तु सुखिनः हमारा प्रमुख लक्ष्य है साधनों का विशेष महत्व नही। लोकतंत्र और अधिनायक तंत्र मात्र साधन है इन्हे साध्य मान लेने पर लक्ष्य से भटकाव निश्चित है। हमे अधिनायक तंत्र स्वीकार नही परंतु लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप भी संस्तुति योग्य नही। विश्व इतिहास के प्रत्येक काल खंड मे सात्विक जन प्रायः अल्पमत मे और असुर संख्या मे अधिक रहे है। ऐसी स्थिति मे संख्या बल मे अधिक होने पर लोकतांत्रिक तरीके से ही असुर तत्वों द्वारा अधिनायक तंत्र स्थापित किया जा सकता है।

विश्व के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों मे कट्टरपंथी ताकतों के उत्पात इसका प्रमाण है। भारत मे भी स्थिति इससे भिन्न नही है। यह अराजक स्थिति पूर्णतया अनियंत्रित हो इसके पूर्व लोकतंत्र के कायाकल्प हेतु कठोर कदम अपेक्षित है। राष्ट्र विरोधी गतिविधियों मे संलिप्तता सिद्ध होने पर समस्त नागरिक अधिकार सदैव के लिये समाप्त किये जाने चाहिये। राष्ट्र के प्रति वफ़ादारी नागरिकता की अनिवार्य शर्त हो। गीता उपदेश ’ दण्डो दमयतामस्मि ’ मे अराजकता के दमन हेतु भगवान कृष्ण ने दण्ड को सर्वश्रेष्ठ कहा। अंतत: भगवान राम ने भी स्वीकार किया था कि ”भय बिनु होइ न प्रीति” अत: कानून और व्यवस्था के संदर्भ मे लोकतांत्रिक परंपराओं से अधिक लोकतंत्र की रक्षा हमारा लक्ष्य है।

इसके लिये जनसंख्या नियंत्रण के साथ विदेशी घुसपेठियों को देश से बाहर करना लोकतंत्र की रक्षा का श्रेष्ठ उपाय है। सामान्य जनता सदैव उन साहसी नायकों के पक्ष मे खड़ी होती है जो जनहित मे कठोर निर्णय लेकर उन पर टिके रहने की दृढ़ता दिखाते है। विश्व इतिहास की युगांतरकारी घटनाऐं इसका प्रमाण है।

सुभाष चन्द्र जोशी (उज्जेन)

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