Monday, November 4, 2024
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भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता २०१६ (IBC) क्या है?: द्रितीय भाग

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Nagendra Pratap Singh
Nagendra Pratap Singhhttp://kanoonforall.com
An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.

दोस्तों प्रथम भाग में हमने देखा की:- १) कंपनी अधिनियम १९५६ अर्थात “THE COMPANY ACT 1956; (२) “रुग्ण औद्योगिक कंपनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, १९८५ अर्थात THE SICK INDUSTRIAL COMPANIES (SPECIAL PROVISIONS) ACT, 1985 (SICA ), ३) “बैंकों और वित्तीय संस्थानों के ऋण की वसूली “RECOVERY OF DEBTS DUE TO BANKS AND FINANCIAL INSTITUTION (RDDBFI)” ACT 1993  के अंतर्गत DRT और DRAT और ४) “वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2002” अर्थात “THE SECURITISATION AND RECONSTRUCTION OF FINANCIAL ASSETS AND ENFORCEMENT OF SECURITY INTEREST ACT, 2002 (SARFAESI)” के अस्तित्व में आने और लागू होने के पश्चात भी ना तो बैंक या किसी अन्य वित्तीय संस्थानों की स्थिति में कोई परिवर्तन आ पा रहा था और ना NPA की संख्या में ही कोई कमी आ रही थी जिसके कारण बेरोजगारी और महंगाई में वृद्धि होती जा रही थी तथा स्वरोजगार में  भी कमी आ रही थी क्योंकि बैंको के पास पर्याप्त फण्ड ही नहीं था जिसके कारन वो आसान ब्याज और शर्तों पर ऋण प्रदान करने में असमर्थ हो चुके थे। अत: हमारे आदरणीय मोदी जी के समक्ष निम्न समस्याएं मुँह बाये खड़ी थी:-

१) बैंकों और अन्य फाइनेंसियल इंस्टीटूशन्स की अर्थव्यवस्था को कैसे मजबूत बनाया जाये;

२) बेरोजगारी से कैसे निपटा जाये;

३) स्वरोजगार को कैसे बढ़ाया जाये;

४) कंपनियों के निर्माण और उनके समापन की प्रक्रिया को कैसे सरल बनाया जाये और

५) देश की अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाये।

बड़े बड़े विषेशज्ञों से विचार विमर्श करने के पश्चात सभी इस निष्कर्ष पहुंचे कि यदि बैंको और अन्य वित्तीय संस्थानों में Non-Performing- Assets की संख्या पर नियंत्रण कर उसे निरंतर काम किया जाये तो बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों के पास पैसा आएगा और जब इनके पास पर्याप्त मात्रा में पैसा आएगा तो युवाओं और अन्य नागरिकों को आसान ब्याज पर ऋण उपलब्ध होंगे जिसकी सहायता से वो स्वयं का रोजगार शुरू कर सकते हैं तथा दो या  तीन बेरोजगारों को रोजगार भी दे सकते हैं और जब उद्योग धंधे चल निकलेंगे तो बाजार अपनी तेजी पकड़ेगा   और इसके साथ ही राजस्व की भी प्राप्ति कई स्त्रोतों से होगी तब जाकर देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। उपर्युक्त तथ्यों का सूछ्म अवलोकन करने के पश्चात निर्णय लिया गया की:-१) भारत में व्यवसाय करने वाली कंपनियों के भारत में पंजीकरण और उनके समापन के मार्ग को अत्यधिक सुगम बनाया जाये, २) बड़े बड़े कर्जखोरो (जो देश छोड़ कर भाग चुके हैं या देश में है पर भागने की फ़िराक़ में है) उनके द्वारा  लिए गए कर्ज की अधिकतम वसूली की जाये; ३) भारत में व्यापार करने के कार्यविधियों को सुगम बनाया जाये तथा ४) बैंक और अन्य वित्तीय संस्थानों की वित्तीय व्यवस्था को मजबूत बनाया जाये।

इसके पश्चात विषेशज्ञों ने निम्न तथ्यों की ओर भी आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी का ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया कि वर्ष १९९३ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव और उनकी सरकार में वित्त मंत्री रहे श्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु “वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण (Globalization, Liberalization and Privatization) की योजना के अंतर्गत विदेशी फण्ड और विदेशी कम्पनियों को भारत में निवेश करने और व्यापर करने हेतु “RIGHT TO ENTRY” मिल गयी थी अर्थात विदेशी कंपनियां भी देशी कंपनियों की भाँति आसानी से पंजीकृत  होकर अपना व्यवसाय कर सकती थी। इसके पश्चात “प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 The Competition Act, 2002) के लागू होने से उन्हें “RIGHT TO COMPETE” भी प्राप्त हो गया परन्तु “RIGHT TO EXIT” नहीं प्राप्त हो पाया था अर्थात एक कंपनी का निर्माण आसान था, व्यापार करना भी कुछ हद तक आसान था परन्तु जब उसे अपना व्यापार समाप्त कर स्वयं को समाप्त (WINDING UP) करने की बात आती तो उसे कई प्रकार के प्रावधानों से होकर गुजरना पड़ता था, जिसका विश्लेषण हम प्रथम भाग में कर चुके हैं। अत: कंपनियों के लिए सरलतम “RIGHT TO EXIT” देने की भी समस्या सामने खड़ी थी।

अत: उन सभी समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करने के लिए उपरोक्त सभी अधिनियमो के निचोड़ के रूप में इस संहिता का निर्माण कर विधिवत तरीके से लागू किया गया जिसे हम संक्षेप में (IBC 2016) या “भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता २०१६” कहते हैं।

भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता,  2016 के प्रावधानों, नियमो और व्यवस्थाओ को सुचारु रूप से कार्यान्वित करने हेतु एक बोर्ड (मंडल) का गठन दिनांक १ अक्टूबर, २०१६ को कीया गया जिसे “भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड (The Insolvency and Bankruptcy Board of India-IBBI) के नाम से जाना जाता है। भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के अंतर्गत कॉर्पोरेट वर्ग के विरुद्ध कार्यवाही करने हेतु “नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT)” को अधिकार प्रदान किया गया। कंपनी अधिनियम २०१३  की धारा ४१० के अनुसार “राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) की स्थापना की गई जिसने दिनांक १ जून २०१६ से कार्य करना आरम्भ किया। NCLAT में NCLT के द्वारा पारित किये गए आदेश को चुनौती दी जाती है IBC २०१६ की सुसंगत धाराओं और दिए गए अवधी के अंतर्गत।

“RIGHT TO EXIT” को सरल बनाने हेतु “कॉरपोरेट्स के लिये दिवालियापन समाधान प्रक्रिया नियम, 2016” और “स्वैच्छिक परिसमापन प्रक्रिया नियम, 2017” को भी लागू किया गया जिसमें “भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड (IBBI) द्वारा समय समय पर संशोधन कर प्रक्रिया को और सरलतम परिवेश में ढाला गया।

दोस्तों अब हम दिवाला (INSOLVENCY) और दिवालियापन (Bankruptcy) में अंतर को थोड़ा समझने का प्रयास करते है। दिवाला अर्थात INSOLVENCY किसी व्यक्ति या कॉर्पोरेट की वो स्थिति होती है जब वह अपनी देयताओं को पूर्ण करने में असमर्थ हो जाता है अर्थात  उसकी देयताएं (Liabilities) उसके सम्पत्तियों (Assets) से अधिक हो जाती है और वो लिए गए ऋण इत्यादि को चुकाने में असमर्थ हो जाता है। दिवाला की स्थिति अनैच्छिक होती है। जब दिवाला की स्थिति को विधिक रूप प्रदान करने हेतु सम्बंधित प्राधिकरण में आवेदन प्रस्तुत कर दीया  जाये और विधि के द्वारा  कॉर्पोरेट या व्यक्ति के दिवाला की स्थिति को घोषित कर दी जाये तब यह दिवालियेपन (Bankruptcy) की स्थिति होती है। अत: स्पष्ट है की विधि द्वारा घोषित हर दिवालियापन (Bankruptcy) में दिवाला (INSOLVENCY) की स्थिति होती है परन्तु प्रत्येक दिवाला (INSOLVENCY) की स्थिति में दिवालियापन (Bankruptcy) की स्थिति नहीं होती।

केन्‍द्रीय वित्‍त एवं कॉरपोरेट मामलों की मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने दिनाक ४ जुलाई २०१९ को  संसद में २०१८-१९ की आर्थिक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए बताया कि दिवाला और दिवालियापन संहिता-२०१६ (जो कि “भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता-२०१६ के नाम से भी जाना जाता है) के प्रभावी होने से ऋण वसूली में हाल की सफलता को देखते हुए आर्थिक समीक्षा में राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) तथा अपीली न्यायाधिकरण को मजबूत बनाने का प्रस्ताव किया गया है।

आर्थिक समीक्षा में उन्होंने बताया कि दिवाला और दिवालिएपन के लिए प्रणालीबद्ध तरीके से व्यवस्था मजबूत बनाई जा रही है और फंसे हुए कर्जों की वसूली हो रही है। प्रस्तुत किये गए आर्थिक समीक्षा के अनुसार ३१ मार्च, २०१९ तक कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) से ९४ मामलों का समाधान हुआ है और परिणाम स्वरूप १,७३ ३५९  करोड़ रुपये के दावों का निपटारा किया गया है। उन्होंने  बताया की २८ फरवरी, २०१९ तक २.८४ लाख रुपये की कुल राशि के ६,०७९  मामले दिवाला तथा दिवालियापन संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत सुनवाई से पहले वापस लिए गए हैं। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार बैंकों को पहले के गैर-निष्पादित खातों से ५0,000 करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं। आरबीआई की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अतिरिक्त ५0,000 करोड़ रुपये की संपत्ति को गैर-मानक से उन्नत बनाकर मानक संपत्ति कर दिया गया है। ऋण वसूली में तेजी को देखते हुए आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यह सभी कदम आईबीसी प्रक्रिया में प्रवेश से पहले व्यापक ऋण देने की प्रणाली के लिए व्यवहार परिवर्तन दिखाते हैं।

समीक्षा में कहा गया है कि आईबीसी से ऋणदाता, कर्जदार, प्रवर्तक तथा कर्जदाता के बीच सांस्कृतिक बदलाव की शुरूआत हुई है। आईबीसी पारित होने से पहले ऋणदाता लोक अदालत, ऋण वसूली न्यायाधिकरण तथा एसएआरएफएईएसआई अधिनियम का सहारा लेते थे। पहले की व्यवस्था से २३ प्रतिशत की कम औसत वसूली हुई जबकि आईबीसी व्यवस्था के अंतर्गत ऋण वसूली में ४३ प्रतिशत की वृद्धि हुई। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि आईबीसी पारित किए जाने के बाद से भारत की दिवाला समाधान २०१४ की रैंकिंग १३४  से सुधर कर २०१९ में रैंकिंग १०८ हो गई। भारत की रैंकिंग १३४  कई वर्षों तक बनी रही थी। पिछले वर्ष भारत को सर्वाधिक सुधार वाले क्षेत्राधिकार के लिए वैश्विक पुनर्संरचना समीक्षा पुरस्कार मिला।

इस प्रकार हम देखते हैं कि “INSOLVENCY एंड BANKRUPTCY CODE, २०१६” के लागु होने के पश्चात “EASE OF DOING BUSINESS” में हमारा देश लगातार नित नयी ऊचाइंयों को स्पर्श करता जा रहा है। और ऊपर दिए गए सभी अधिनियम इस संहिता (CODE) के अंतर्गत ही कार्यान्वित होंगे अर्थात ये CODE सभी ACTS के ऊपर राज करता है सभी अधिनियमों को इस संहिता के अनुसार आवश्यकता पड़ने पर अपने आपको बदलना होता है यंहा तक की कंपनी अधिनियम २०१३ भी इसके ही अधीन है।

दोस्तों INSOLVENCY एंड BANKRUPTCY CODE, २०१६ में दिए गए प्रावधानों और कार्यविधियों का विश्लेषण हम तृतीय भाग में करेंगे।

NAGENDRA PRATAP SINGH (ADVOCATE) [email protected]

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