Friday, April 26, 2024
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आखिर मुंबई उच्च न्यायालय ने क्यों माना की प्रवर्तन निदेशालय को सुने जाने का अधिकार (Locus standi)नहीं है!

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Nagendra Pratap Singh
Nagendra Pratap Singhhttp://kanoonforall.com
An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.

21 दिसंबर 2020 को मुंबई उच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा दायर की गयी अपराधिक याचिका (Criminal Writ Petition no. 3122/2020) पर निर्णय दिया कि पुलिस द्वारा दाखिल किये जाने वाले “क्लोजिंग (फाईनल) रिपोर्ट के विरूद्ध प्रवर्तन न्यायालय को प्रोटेस्ट पेटिशन दाखिल कर सुने जाने का अधिकार नहीं है अर्थात पुलिस की क्लोजिंग रिपोर्ट को चुनौती देकर सुने जाने का ED के पास locus standi नहीं है!

उच्च न्यायालय के आदेश को पूरा सम्मान व् आदर देते हुए आइये जानने का प्रयास करते हैं कि पहले निचली अदालत ने फिर सत्र न्यायालय नें तत्पश्चात मुंबई उच्च न्यायालय ने, फैसला किन तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया!

पहले ये जान लेते हैं कि प्रवर्तन निदेशालय क्या है?
प्रवर्तन निदेशालय:- भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अधीन कार्य करने वाली एक विशेष जाँच एजेंसी है, इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है! प्रवर्तन निदेशालय के मुख्यत: निम्न कार्य होते हैं:-

1:- विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम 1999(FEMA) और धनशोघन निवारण अधिनियम 2002(PMLA) :-के प्रावधानों के उल्लंघन की जाँच करना व कार्यवाही करना!

2 :-FERA 1973के प्रावधानों के अन्तर्गत कार्यवाही करना!

3:- विदेशी मुद्रा संरछण तथा तस्करी गतिविधि निवारण अधिनियम 1974( COFEPOSA) के अन्तर्गत FEMA मामलों के लिये कार्यवाही करना!

4:- भगोड़ा आर्थिक अपराधी विधेयक,2018 ( The Fugitive Economic Offenders Bill :- (100 करोड़ से ऊपर वाले मामलो में) के अन्तर्गत कार्यवाही करने का अधिकार!


पृष्ठभूमि
अकबर ट्रवेल्स के द्वारा अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत दाखिल किये गये परिवाद पर निर्णय देते हुये LD. (38th) Addl. CMM Court at Bellard Pier Mumbai नें FIR पंजीकृत कर रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया था जिसके फलस्वरूप MRA Marg Police Station नें जेट एअरवेज व उसके निदेशकों के विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारावों 406, 420, 465, 467, 468, 471, 120B,  के अन्तर्गत FIR( 66/2020) पंजीकृत किया!

चूँकि धारा 120B, 420,467, और 471 के अन्तर्गत आने वाले अपराध धनशोघन निवारण अधिनियम 2002 (संशोधित) (जिसे अंग्रेजी में Prevention of Money Laundering Act, 2002 (as amended) कहते हैं) के पैरा 1 पार्ट A के अंतर्गत भी सूचीबद्ध हैं अतः: प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने भी ECIR ( ECIR/MBZO-II/1/2002) दिनांक 20/2/2020 को पंजीकृत किया और FEMA 1999 के प्रावधानों के अंतर्गत अपनी जाँच व अन्वेषण का कार्य जेट एअरवेज के निदेशकों के विरूद्ध शुरू किया!

इस परिवाद में यह उल्लेखित किया गया था कि श्रीमान जीवन क्रास्टा (जिनकी मृत्यु 14/5/2020 को उनके निवास स्थान पर हो गयी) जो अकबर ट्रेवल्स के “पब्लिक रिलेशन विभाग” के मुखिया थे, जेट एअरवेज के श्रीमती रूचिका सिंह (General Manager Sales) और उनके निदेशकों से संपर्क साधा, अकबर ट्रवेल्स के बकाये की राशि के लिये (जो करीब रूपये 460568036/- हैं) तो जेट एअरवेज के निदेशकों ने एक एकाउंट नं दिखाकर उन्हें आश्वासन दिया था कि वो शीध्र ही बकाया राशि का भुगतान कर देंगे क्योंकि पैसे उस बैंक एकाउंट में बकाया राशि से ज्यादा है! उस एकाउंट नं का विवरण प्रवर्तन न्यायालय की याचिका मे और पुलिस द्वारा पंजीकृत किये गये FIR में दिया गया है!

संबंधित पुलिस अधिकारी अपनी जाँच व अन्वेषण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे की ये विवाद अपराधिक नहीं अपितु दीवानी प्रकृति (Civil Nature) का है अत: दिनांक 09/03/2020 को अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 173 के प्रावधानों के अंतर्गत “क्लोजर रिपोर्ट (फाईनल रिपोर्ट)” न्यायपटल पर प्रेषित किया! प्रवर्तन निदेशालय जब इस तथ्य से अवगत हुआ तो उसने तुरंत पुलिस अधिकारियों द्वारा दायर किये गये क्लोजर रिपोर्ट को चुनौती देते हुए प्रोटेस्ट पेटिशन (Intervention Application CC no.17/Misc./ 2020 (28/C/2020) के रूप में) दायर किया!

इस प्रोटेस्ट पेटिशन पर सुनवाई करते हुये दिनांक 19/9/2020 को 38th LD. Addl. CMM Court Ballard Pier, मुंबई ने ये कहते हुए इसे खारिज (Reject)कर दिया कि प्रवर्तन निदेशालय को कोई सुने जाने का अधिकार नहीं है विशेषतः तब जब informant (Complainant) अकबर ट्रवेल्स स्वंय उपस्थित है|

इस 19/9/2020 के आदेश को प्रवर्तन निदेशालय ने दिनांक 3/10/2020 को सत्र न्यायालय में पुनर्विचारण अर्जी (Criminal Revision Application no. 400/2020) दायर कर चुनौती दी! मुंबई सत्र न्यायालय ने दिनांक 14/10/2020 को उक्त क्रिमिनल रिविजन ऐप्लिकेशन पर सुनवाई कर 15/10/2020 को आदेश पारित करते हुये निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया और अर्जी को खारिज कर दिया!

सत्र न्यायालय के इस आदेश को आदरणीय मुंबई उच्च न्यायालय में भारतीय संविधान के अनुच्छेदों 226 व 227 के अंतर्गत क्रिमिनल रिट पेटिशन (Criminal Writ Petition No. 3122/2020) दायर कर प्रवर्तन न्यायालय द्वारा चुनौती दी गयी!

सुनवाई के बाद 21 दिसंबर 2020 को आदरणीय उच्च न्यायालय की एकल खण्डपीठ (Justice Smt.Revati Mohite Dere)नें प्रवर्तन निदेशालय की याचिका को खारिज कर दिया|

विश्लेषणात्मक विवेचना
Bhagwat Singh vs Commissioner Of Police And Anr on 25 April, 1985 (1985) 2 SCC 537 के केस में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:-
“हालांकि, स्थिति थोड़ी भिन्न हो सकती है, जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या घायल व्यक्ति (injured person) या मृतक का कोई रिश्तेदार, जो परिवादी (informant) नहीं है, नोटिस प्राप्त करने का हकदार है जब रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के न्यायपटल पर प्रेषित की जाती है। हम या तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों से या प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों से, मजिस्ट्रेट के ऊपर ऐसे किसी भी दायित्व को रोपित नहीं कर सकते, जिससे की वो किसी घायल व्यक्ति को या मृतक के रिश्तेदार को नोटिस जारी कर सुने जाने का अवसर प्रदान करे, जब रिपोर्ट उसके न्यायपटल पर विचार करने के लिए प्रेषित की गयी हो जब तक की वो व्यक्ति परिवादी (Informant) ना हो, जिसने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई हो। लेकिन भले ही ऐसे व्यक्ति मजिस्ट्रेट के नोटिस को प्राप्त करने का हकदार नहीं हैं वह मजिस्ट्रेट के सामने पेश हो सकता है और वह अपना सबमिशनकर सकता है जब रिपोर्ट मजिस्ट्रेट के न्यायपटल पर प्रेषित की जाती है विचार करने व् यह तय करने के लिए क्या कार्रवाई करनी चाहिए। घायल व्यक्ति (Injured Person) या मृतक का कोई रिश्तेदार (relative), हालांकि मजिस्ट्रेट के नोटिस का हकदार नहीं है, रिपोर्ट के विचार के समय मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने के लिए उसके पास लोकोस (locus standi) है, अगर उसे अन्यथा पता चला है कि रिपोर्ट पर विचार किया जा रहा है, यदि वह रिपोर्ट के संबंध में अपनी प्रस्तुतियाँ करना चाहता है, तो मजिस्ट्रेट उसे सुनने के लिए बाध्य है|

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ना केवल informant (FIR लिखवाने वाला) अपितु किसी भी Injured person को प्रोटेस्ट पेटीशन दाखिल करने का अधिकार है और मजिस्ट्रेट पर यह बंधनकारी है कि वो पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट पर Injured person के प्रोटेस्ट पेटिशन पर सुनवाई करे! पर उच्च न्यायालय ने यहाँ प्रवर्तन न्यायालय की स्थिति को Injured Person की परिधि में नहीं माना ।

तो क्या प्रवर्तन निदेशालय की स्थिति यहाँ “विक्टिम” जैसी है?

Tata Steel Ltd. vs M/S. Atma Tube Products Ltd. Ors on 18 March, 2013 CRM-790-MA-2010 High Court Of Punjab And Haryana observed that आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2(wa) परिभाषित करती है :-‘victim’ पीड़ित’ का मतलब है कि पीड़ित व्यक्ति जिसको किसी कार्य के कारण या किसी चूक के कारण हानि या चोट कारीत हुई है जिसके लिए आरोपी व्यक्ति को आरोपित किया गया है और अभिव्यक्ति ” पीड़ित” में उसके या उसकी ‘संरक्षक’ या ‘कानूनी उत्तराधिकारी’ शामिल हैं। हम सीधे तौर पर पढ़ने पर पाते हैं कि विधानमंडल ने ‘ पीड़ित’ को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया है i.e. (i) ऐसा व्यक्ति जिसे किसी कार्य या चूक के कारण किसी हानि या चोट का सामना करना पड़ा हो और आरोपी को जिम्मेदार ठहराया गया हो; और (ii) पीड़ित के ‘संरक्षक’ या ‘कानूनी उत्तराधिकारी’। “पीड़ित” शब्द के पहले भाग की सही समझ आकस्मिक है और इसमें निहित “हानि” या “चोट” शब्दों के वास्तविक दायरे के अधीन है। ये दोनों शब्द संहिता में परिभाषित नहीं हैं, हालाँकि, इसकी धारा 2 (y) कहती है कि “शब्द और भाव यहाँ उपयोग किए गए हैं पर परिभाषित नहीं हैं, लेकिन भारतीय दंड संहिता (45 of 1860)में परिभाषित किए गए हैं जिनका क्रमशः वही अर्थ है जैसा उस संहिता में दिया गया है “

उपरोक्त दृष्टिकोण दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा Ram Phal vs State And Ors. on 28 May, 2015 CRL.A.1415/2012) के केस में पुनः स्थापित किया गया है:-

The Law Commission Report cited the 1985 United Nations Declaration of Basic Principles of Justice for Victims of Crime and Abuse of Power for its definition of “victim”:

” ऐसे व्यक्ति, जिन्होंने व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से, शारीरिक या मानसिक चोट, भावनात्मक पीड़ा, आर्थिक नुकसान या अपने मौलिक अधिकारों की पर्याप्त हानि सहित उन कृत्यों या चूक के माध्यम से नुकसान उठाया है, जो आपराधिक कानूनों का उल्लंघन करते हैं।” (Chapter XV, Paragraph 6.2).
पर यहाँ पर मुंबई उच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय को विक्टिम भी नहीं माना।

पर प्रश्न ये है की क्या प्रवर्तन निदेशालय जैसी एक सुरछा एजेंसी (जो सीधा भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग से जुडी है) को उसके दायित्वों को पूरा करने से रोका जा सकता है?, यदि मनी लॉन्ड्रिंग के अपराधों को प्रवर्तन निदेशालय नहीं जांच करेगा तो कौन करेगा? यदि जेट एयरवेज के निदेशकों ने फेमा  के अंतर्गत कोई अपराध किया है तो उसकी जांच क्या नहीं हो पायेगी? विदित हो की प्रवर्तन निदेशालय के प्रारम्भिक जांच के मुताबिक जेट एयरवेज के निदेशकों ने सैकड़ो करोड़ रुपये को विदेशों में अवैधानिक तरीके से डाइवर्ट किया है|

ऐसी कई जिज्ञासाओ के साथ मैं आपको छोड़ जाता हूँ क्योंकि आदरणीय मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने और न्यायिक अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार अभी भी प्रवर्तन निदेशालय के पास है।

नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता )

[email protected]

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