हम पे ये किसने ‘हरा रंग’ डाला।
खुशी ने हमारी हमें मार डाला।
हाय! मार डाला!!
अल्ला! मार डाला!!
तो भैया, जैसा कि सर्वविदित है, इस दुनिया में एक ही धर्म है, और वह धर्म ही दुनिया की सभी बुराइयों की जड़ है। वह धर्म पटाखों से प्रदूषण फैलाता है, गरीब के हिस्से का दूध और अन्न मूर्तियों पर चढ़ाता है अथवा यज्ञ में जलाता है। इस दुनिया में एक ही ऐसा धर्म है जो कट्टर है, अंधविश्वासी है और पता नहीं क्या क्या?
तो भैया, बहुत टाइम पहले बॉलीवुडियों ने एक फिल्म बनाई, भाईसाहब, कतई ज़हर फिल्म। उसमें एक गाना डाला- ‘हम पे ये किसने हरा रंग डाला!!’
भई वाह! क्या गाना था, क्या नृत्य था और क्या कॉस्ट्यूम डिज़ाइन था। रिकॉर्ड है भई! रिकॉर्ड!! लेकिन पहले हम ये मानते थे कि केवल साहित्यकार ही युगदृष्टि रखता है, मुझे अब पता चला कि बॉलीवुड भी युगदृष्टि रखता था।
अब किसी ने ये कभी विचारा कि ‘हम पे ये किसने हरा रंग डाला’ पंक्ति का भावार्थ क्या था? खैर, केवल ‘अर्थ’ के लिए जीने वाले सेक्यूलर हिंदू लोग अर्थ क्यों देखने चले? तो भावार्थ तो इसका वही था, प्रतीकात्मक रूप में कि ‘अकेला मज़हब ही मोहब्बत का संदेश देता है।’ अब आप इसे तुरंत नफ़रत फैलाने वाली पोस्ट डिक्लेयर कर दीजिए।
अब आप कहेंगे कि लो रंगों को भी बांट दिया। कहेंगे जरूर, किंतु यह ‘हरे रंग वाला गाना’ तब प्रतीकात्मक रूप से कहा गया था, जिसकी सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति है— लक्ष्मी बॉम्ब। भाई लोगों को पागल भर बनाने के लिए विषय रखा है- अंधविश्वास और किन्नर विमर्श। असल मुद्दा तो यही है- हमपे ये किसने हरा रंग डाला।
भाई साहब, फिल्म में आसिफ़ भूत भगाने वाले ढोंगी बाबा का पर्दाफाश करता है और माधुरी दीक्षित के उसी ‘हरे लहंगे के रॉ मटेरियल’ से बने हरे कुर्ते को पहने हुए ‘पीर बाबा’ से अपने भीतर का भूत भगवाता है, और ढोंगी बाबा ‘भगवा कलर’ प्रयोग करता है और पीर बाबा ‘हरा’। अब बताओ ‘हरा रंग’ किसने डाला और क्यों डाला?
ये तो बस एक तथ्य था। जब फिल्म में आसिफ़ चचा ससुर जी को नमाज़ पढ़ने के फ़ायदे समझाते हैं न (और वैष्णो देवी जाने को निरर्थक बताते हैं) तो ससुर जी ‘वामपंथियों के नागिन डांस से मोहित से होकर’ कहते हैं कि ‘इससे अच्छा लड़का हमें लड़की के लिए कभी नहीं मिलता।’
बस ससुरा समझा गया कि ‘हम पे ये किसने हरा रंग डाला’।
बस अब गीत के सारे बोल सार्थक हो गए।
‘हम पे ये किसने हरा रंग डाला!
खुशी ने हमारी, हाए! मार डाला!!
बहरहाल, आसिफ़ चचा, वैसे तो मंदिर में जाना हराम समझते हैं किंतु बात जब हिंदू गुंडे की हो तो उसे भीतर से खींचकर बाहर लाते हैं, भीड़ फिल्म में भी और थिएटर में भी तालियां बजाती है। ऐसी ही किसी फिल्म के किसी सीन में आतंकवादी का पीछा अजय देवगन कर रहे होते हैं और वह मस्जिद में घुस रहा होता है तो यही आसिफ़ चचा (उर्फ़ अक्षय) अजय देवगन को पाक़ मस्जिद की सीढ़ियां तक नहीं चढ़ने देते क्योंकि मज़हब मोहब्बत सिखाता है और धर्म नफ़रत। बाद में वही आतंकवादी हजारों लोगों की जान लेता है।
जाने-अनजाने हिंदुओं का मखौल उड़ाती फिल्में नाकारा हिंदुओं की सच्चाई भी दिखा देती हैं।