Monday, November 4, 2024
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बस! अब और नहीं!

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हर जीव की जीने की इच्छा होती है। चाहे छोटा हो या बड़ा, पालतू हो या जंगली, जीने की लालसा सदैव सर्वोपरि होती है। मरने मात्र की अभिकल्पना से ही डर लागने लगता है। 

हम इंसान है, बाकी दूसरे जानवरो से अलग, बिल्कुल परिष्कृत। हम विलक्षण प्रतिभा के धनी होते है, अद्भुत  सोचने-समझने की शक्ति  रखते है, तर्क कर सकते है, समृद्ध सभ्यता व संस्कृति के मालिक होते है। अपनी एक विकसित भाषा प्रणाली होती है। संवेनशीलता हमारी कदम चूमती है। दुष्कर कार्य को भी संपादित करने के लिए हम दृढ़ संकल्पित होते है। इतना ही नहीं, हम सिर्फ जीवन जीने के लिए परिकल्पित नहीं होते, बल्कि एक सुखद, आनन्दित, निर्भी व प्रतिष्ठित जीवन की आकांक्षा भी रखते है। बगैर इसके, कोई सरस जीवन की परिकल्पना कर सकता है क्या ?

लंबी उम्र की उपधारणा हमें दिशा प्रदान करती है। जीवन को बेहतर और आनंदित करने के लिए हम नित्य नई-नई चीजें सीखते है। सर्वदा प्रतिस्पर्धापूर्ण वातावरण को चुनौती देते रहते है। वैसे तो इन चुनौतियों से निपटने के लिए बाल-काल से ही शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य शुरू हो जाता है, फिर भी बेहतर जीवन-यापन के तौर-तरीकों का अध्ययन कभी ख़त्म नहीं होता। ताउम्र चलते रहता है।

निसंदेह, जब हम बड़े होते है, हमारे मन मे तरह- तरह के अरमान भी उठते है। इन्हें पूरा करने के लिए कठोर परिश्रम और साधना हमारी  दिनचर्या के हिस्सा बन जाते है। अथक भागदौड़ से परिपूर्ण। सामाजिक ढांचे मे ढलकर हम एक सफल मानव बनने की हर संभव  कोशिश करते रहते है। क्या एक सुखद व प्रतिष्ठित जीवन जीने की कामना बेमानी है?

किसी को इन अधिकारों से महरूम न होना पड़े, समाज मे समुचित निदान प्रणाली भी  कार्य करती रहती है। परंतु इंसान की विकृत मानसिकता कुछ ऐसे कुकृत्य करती है जिससे जीवन जीने की परिकल्पना पल भर मे ही तार-तार हो  जाती है। विक्षिप्त मानवीय सोच, इंसान और जानवर का विभेद खत्म कर देती है।

अतृप्त कामना, लालच, वासना जैसे अवगुण, हम सभ्य हो गए है, को निराधार बना देती है। मानव के अधिकारों का खुलेआम उलंघन  होने लगता है। आखिर क्यूँ? एक पल के लिए भी नहीं सोचना की जीवन के कुछ सपने भी है। जीवन जीने की एक अद्भुत कामना है। जीवन इसके लिए अथक परिश्रम किया है। एक पल के लिए भी नहीं सोचना की हम एक सभ्य मानव है। भूल जाते है कि हमारी सोच परिष्कृत है। जानवर जैसा व्यवहार! शिकार देखते ही टूट पड़ना! निर्ममता की हद पार कर अपनी इच्छाओं, वासनाओं को पूर्ण करना! फिर हम सभ्य मानव कैसे है? ऐसे कुकृत्य हमारी आत्मा को निश्चय ही झकझोर देता है।

चाहे निर्भया कांड हो या कठुआ। उन्नाव की घटना हो या हाथरस। सब में मानवीय विकृति साफ झलकती है। इन घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाय, कम है।

समाज मे रोज ऐसी घटनाएँ  होती है। कुछ भुक्तभोगी वाकई खुशनसीब होते है, जिनके इंसाफ के लिए, सरकार, मीडिया और कोर्ट लॉ ऑफ संज्ञान लेती है। लोग सड़कों पर उतर आते है। पर न जाने कितने ऐसे बदनसीब है जिन्हे कोई जानता भी नहीं है। “बलात्कार! तत्पश्चात जान से मार देने की धमकी! जिंदा जला देना!” जिन्हे इंसाफ के लिए दर-ब -दर भटकना पड़ता है। बहुत सारे मामलों मे पीड़ित परिवार कानूनी भूल-भुलैया से दूर रहना ही पसंद करता है। कानून-व्यवस्था व न्याय-प्रणाली की लचर हालत कौन नहीं जनता?

निश्चय ही, इन घटनाओ से मुक्ति तब मिलेगी, जब मानवीय सोच मे बदलाव लायी जाय। जाति-व्यवस्था, क्षेत्रवाद, नस्लभेद आदि को भुलाकर एक सुर में सख्त आवाज बुलंद की जाय। “अब और नही! बस! अब और नही!” साथ ही सख्त कानून व्यवस्था हो। न्याय प्रणाली पारदर्शी व समयबद्ध हो।

उम्मीद है जल्द ही हाथरस बुलंदशहर व बलरामपुर के मामलों मे पीड़ित परिवार को न्याय मिलेगा।

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