100 वर्ष पहले पूरे विश्व में “स्पेनिश फ्लू” के कारण हाहाकार मचा था। भारत भी इससे अछूता नहीं था। भारत में स्पेनिश फ्लू से मरने वाले लोगों की संख्या का कोई निश्चित आंकड़ा उपलब्ध नहीं है किन्तु इस महामारी के कारण हुई मौतें लगभग 1 करोड़ से 2 करोड़ के बीच थीं। ऐसी भयंकर महामारी और अंग्रेजों की भीषण अव्यवस्था के मध्य भी पितृपक्ष का श्राद्ध महापर्व नहीं रुका था किन्तु संभवतः इस वर्ष पितृपक्ष का यह महापर्व रोका जाएगा। हालाँकि यह रुकने वाली प्रक्रिया नहीं है किन्तु जब शासन और प्रशासन की प्राथमिकता परिवर्तित हो जाए तब कुछ भी संभव है। मैं बिहार का निवासी नहीं हूँ इसलिए वहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था पर टिप्पणी नहीं कर सकता किन्तु एक हिन्दू होने के कारण अपनी चिंता व्यक्त कर सकता हूँ।
सबसे पहले जानते हैं कि पितृपक्ष का यह श्राद्ध महासंगम है क्या और यह हिन्दुओं के लिए क्यों आवश्यक है।
हिन्दू धर्म में जन्म और मरण दोनों ही अभूतपूर्व उत्सवों के समान हैं। जिस प्रकार व्यक्ति के जन्म के समय अनेकों प्रकार की प्रक्रियाएं संपन्न होती हैं उसी प्रकार व्यक्ति के मरण से सम्बंधित कुछ विशेष प्रक्रियाएं हैं। धनाभाव, समयाभाव और अन्य अपरिवर्तनशील परिस्थितियों के कारण जन्म से सम्बंधित प्रक्रियाओं को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। जैसे बरहौं संस्कार, नामकरण संस्कार, विद्यारम्भ संस्कार और उपनयन संस्कार लोग अपनी सुविधा के अनुसार तय कर लेते हैं किन्तु श्राद्ध एक ऐसा संस्कार है जो नियत तिथियों पर संपन्न होता है।
पितृपक्ष, मृत जीवों की आत्मा की शांति एवं उनकी मुक्ति के लिए समर्पित एक विशेष समय है। पितृपक्ष में बिहार के गया में श्राद्ध का महापर्व आयोजित होता है जो 17 दिनों तक चलता है। पितृपक्ष में भारत के कोने कोने से लोग पिंडदान एवं तर्पण के लिए गया पहुंचते हैं। इस दौरान लोग यथासामर्थ्य 3 दिनों से लेकर 17 दिनों का कर्मकांड करते हैं। इसी पिंडदान की सहायता से इन लोगों के पितरों और पूर्वजों को मरणोपरांत मुक्ति प्राप्त होती है।
गया धाम में बसने वाले पंडा समाज, ब्राह्मण, स्थानीय नागरिक और छोटे व्यवसायी भी साल भर की कमाई इन 17 दिनों में कर लेते हैं।
इतिहास में पहली बार विष्णुपद मंदिर के कपाट बंद हुए हैं। हमारे इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब हमारी परम्पराओं पर ऐसा भीषण संकट आया हो। अभी कुछ समय पहले रथ यात्रा पर भी रोक लगाई गई थी किन्तु हिन्दुओं के सामूहिक प्रयासों के कारण अंततः रथयात्रा सकुशल संपन्न हुई। अब एक बार पुनः हिन्दुओं की प्राचीनतम परंपरा रोकी जा रही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या हम इतने सामर्थ्यवान नहीं हैं कि श्राद्ध का यह महापर्व सकुशल आयोजित करा सकें?
क्या हमारा शासन, प्रशासन और अफसरशाही इतने पंगु हो चुके हैं कि उनके पास अब कोई भी मार्ग नहीं बचा जो कोरोना वायरस के संकट के मध्य गया की परंपरा को अनवरत रख सके?
क्या 21वीं शताब्दी को भारत की शताब्दी बताने वाले अपनी सहस्त्राब्दियों पुरानी परम्पराओं की सुरक्षा भी नहीं कर सकते हैं?
कहाँ है हमारा नवाचार? कहाँ है तकनीक और उसका अभूतपूर्व उपयोग?
क्या हम ऐसे ही हाथ पर हाथ धरे कोरोना वायरस के समाप्त होने की प्रतीक्षा करेंगे?
प्रतीक्षा करें भी तो कोविड19 का यह संकट 1 सितम्बर के पहले तो समाप्त नहीं होने वाला है।
तो क्या हम मान लें कि हमारी सरकारों में ऐसी विशेष परिस्थितियों से निपटने का कोई सामर्थ्य ही नहीं है?
आज परीक्षाएं होने जा रही हैं। शहर, गाँव और कस्बे सब खुल रहे हैं।
ऐसे में हम पितृपक्ष का का यह महापर्व क्यों संपन्न नहीं करा सकते?
भारत के बेहतरीन अधिकारी गया में तैनात कीजिए। तात्क्षणिक स्वास्थ्य सुविधाओं का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कीजिए। लोगों से कहिए कि वो अपना स्वास्थ्य सर्टिफिकेट लेकर आएं। कुछ तो कीजिए। ट्रेन तो वैसे भी बंद हैं और प्रत्येक व्यक्ति इतना सामर्थ्यवान नहीं है कि अपना अथवा किराए का वाहन लेकर आएगा। लोगों की संख्या तो इस वर्ष वैसे भी कम ही रहने वाली है। ऐसे में हम प्रशासनिक स्तर पर बेहतर कर सकते हैं।
हमें यह याद रखना चाहिए कि सब कुछ ऑनलाइन नहीं हो सकता है। ऑनलाइन दर्शन, आरती, प्रसाद और दान-पुण्य इत्यादि तो हम कर ही रहे हैं न किन्तु गया का अपना अलग महत्व है। उस महत्व को क्षीण इच्छाशक्ति की भेंट मत चढ़ने दीजिए। सरकार के पास संसाधनों की कमी हो तो सरकार एक आह्वान करे, एक एक हिन्दू अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करने के लिए तैयार हो जाएगा।
एक कदम आगे बढ़ाइए।