पालघर में साधुओं पर हुए हमले ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, पर क्या यह पहली बार हुआ है जब हिन्दू साधुओं को निशाना बनाया गया है। हर साल हमे हिंदुओं तथा साधुओं पर हमले की खबरें सुनाई देती है पर चूँकि ये लोग किसी अल्पसंख्यक समुदाय से नहीं आते इन्हें मुख्यधारा में कोई स्थान नही मिलता। बीते हुए समय को देखने पर हमें पता चलता है कि आजादी के बाद कई ऐसी घटनाएं घटी जिसमे हिंदुओं तथा विशेषकर हिन्दू साधुओं को निशाना बनाया गया। इन घटनाओं को समझने पर हमें यह ज्ञात हो जाएगा कि सनातन और साधुओं का वामपंथी तथा सेक्युलर विचारधराओं के साथ किस प्रकार का संबंध रहा है।
अब हम 2020 से 1966 में चलते है। अनेक राजैनतिक पार्टियां, हिंदुत्ववादी संगठन और साधु समाज एक हुए। उनकी मांग थी गोहत्या पर राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध।उन्होंने संविधान के आर्टिकल 48 का भी हवाला दिया जिसमें गो हत्या पर प्रतिबंध के बारे में लिखा गया है। इस आंदोलन में बच्चे तथा महिलाएं भी शामिल थे। 7 नवंबर 1966 को इस प्रदर्शन ने महारूप धारण कर लिया। हिन्दू पञ्चाङ्ग के अनुसार उस दिन गोपाष्टमी थी। लाखों की संख्या में साधु तथा अन्य आंदोलनकारी संसद के बाहर जमा हुए थे। सरकार के आंकड़ों के अनुसार यह संख्या महज दस हजार थी पर अन्य स्रोतों की मानी जाए तो यह आंकड़ा 3 लाख तक का था। प्रदर्शनकरि शांतिपूर्वक तरीके से धरना दे रहे थे तभी अचानक कुछ असामाजिक तत्वों ने संसद की दीवारों पर चढ़ना शुरू कर दिया और शांतिपूर्वक चल रहे प्रदर्शन में भंग पड़ गया। भीड़ काबू से बाहर हो गयी और उस भीड़ को काबू में करने के लिए पहले लाठीचार्ज और आंसू गैस का प्रयोग किया गया पर तब भी नियंत्रण छूटता देख गोलियों की बौछार कर दी गयी।
आंदोलनकारियों पर हिंसा के प्रयोग का आरोप लगाया गया पर अगर हिंसा का ही उद्देश्य होता तो बच्चे और महिलाएं को क्यो हिस्सा बनाया गया होता। अनेकों छोटे छोटे बच्चे गोलियां चलने से हुई भगदड़ में कुचल कर मर गए।अनेकों साधु भी इसकी भेट चढ़ गए। और न बाद में गो हत्या का मुद्दा उठा ना ही साधुओं के नरसंहार का। सरकारी आंकड़ा 250 लोगो की मृत्यु का है पर कुछ लोगो की आंखों देखी सुने तो ये आंकड़ा 5000 तक पहुचता है। ये ही नही बाद में इस नरसंहार से जुड़े सारे सबूत ओर दस्तावेजों को नष्ट कर दिया गया।साधुओं का न्याय संसद के सामने बहे उनकी लहू का साथ ही बह गया। इंदिरा गांधी ने इसकी जिम्मेदारी न लेते हुए सारा आरोप तब के गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा पर मड दिया। और गृहमंत्री ने तत्काल रूप से अपना इस्तीफा दे दिया।इसके बाद साधुओं के नरसंहार से व्यथित महात्मा रामचन्द्र वीर एवं अन्य साधुओं ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। बाद में गृह मंत्री यशवंत राओ के आश्वाशन पर की गोहत्या पर कानून लाया जाएगा उन्होंने अपना अनशन तोड़ा। पर कभी भी वादा पूरा नही किया गया।
अब हम 1966 की दिल्ली से 1982 के कलकत्ता की ओर बढ़ते है। पश्चिम बंगाल में वामपंथ की सरकार का कार्यकाल बंगाल के हिंदुओं के लिए किसी भयानक सपने से कम नही है। बिजन सेतु नरसंहार भी इसी भयानक सपने का अत्यंत डरावना अध्याय है। और ये घटना कई तरीकों से पालघर के समान है क्योंकि इसमें भी साधुओं की हत्या को न्यायसंगत ठहराने के लिए बच्चा चोरी करने वालों की झूठी खबर फैलाई गई। पूरी घटना यह है कि आनंदमार्गी साधु देशभर से तिलजला (अनंदमार्गी पंथ मुख्यालय) एक सभा के लिए जा रहे थे।वाहनों को बिजोन सेतु से होकर गुजरना था। तभी बच्चे चुराने वालों की अफवाह फैलाई गई। वे सब टैक्सियों से यात्रा कर रहे थे उन्हें तीन अलग अलग जगहों पर रोक गया। उन्हें टैक्सियों से खींच कर निकाला गया फिर उन्हें बहुत बुरी तरह से पीटा गया। बाद में उनपर केरोसीन डालकर उन्हें जिंदा जला दिया गया।
इस घटना में 17 साधुओं की हत्या की गयी थी जिसमे एक साध्वी भी शामिल थी। बाद में हालात बदतर होने का हवाला देते हुए माकपा नेता सचिन सेन ने अपने 10,000 कैडरों के साथ आनंद मार्ग केंद्र पर छापा मारा। इस संबंध में कोई प्रमाण नही मिला जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि वे साधु नही बच्चे चुराने वाले थे। बाद में 1996 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इसकी जांच का कार्य प्रारंभ किया। परतुं वामपंथी सरकार के निरंतर हस्तक्षेप के कारण जाँच आगे नही बढ़ पाई। बाद में 2013 में,आनंद मार्ग के प्रतिनिधियों की मांग पर न्यायिक जांच आयोग का गठन हुआ।और बात यह सामने निकल के आयी कि बिजोन सेतु एक पूर्वनियोजित षड्यंत्र था। आनन्दमार्गी पंथ वैचारिक रूप से कम्युनिस्टों के विरुद्ध था।वैसे तो यह एक वैदिक तथा धर्मिक पंथ था लेकिन वामपंथियों को भय था कि मार्गयों के अंदर राजनेतिक महत्वकांषये है और ये मार्क्सवादी पार्टी के लिए एक चिंता का विषय हो सकता था।इस घटना के बाद में भी अनंदमार्गियों पर हमले लगतार हुए ।
कौन होते है ये साधु? आखिर इन्हें बार बार क्यों निशाना बनाया जाता है?
एक सच्चा साधु सनातन की शिक्षाओं का प्रतिबिंब होता है और उसके होते हुए सनातन को क्षति पहुचना कठिन होता है। और यही कारण था कि ईसाई मिशनरीयों की धर्मांतरण की राह में बाधा बने एक साधु की नृशंस हत्या कर दी गयी। यह घटना ओडिसा के कंधमाल की है। 23 अगस्त 2008 में स्वामी लक्ष्मणानंद को हत्या कर दी गयी थी। रात के 8 बजे स्वामी जी तथा उनके चार शिष्यों जिनमे में एक साध्वी भी थी उन्हें गोलियों से भून दिया गया। उन्हें मारने के बाद हमलावरों ने लक्ष्मणानंद के पैर के जोड़ों ओर कलाइयों को काट दिया। उनकी हत्या के छह मास के उपरांत माओवादी नेता सब्यसाची पांडा ने इसकी जिम्मेदारी ली। भले ही हत्या माओवादियों द्वारा की गई थी परंतु खुफिया जानकारी के अनुसार इसके पीछे मिशनरीयों का हाथ था। इस हमले से पहले भी स्वामी लक्ष्मणानंद पर जानलेवा हमले हो चुके थे जिसके पीछे राधाकांत नायक जो कांग्रेस से राज्यसभा सांसद रह चुके थे और मिशनरी संगठन वर्ल्ड विज़न का प्रमुख भी है उसका हाथ बताया जाता है। इसके बाद सरकार से स्वमी की सुरक्षा बढ़ाने का निवेदन भी किया गया था परंतु उसपर कोई कार्यवाही नही हुई। और आश्चर्य की बात तो ये है कि जब 22 अगस्त को स्वामी लक्ष्मणानंद ने अपनी सुरक्षा बढ़ाने की अपील की थी और उनके आश्रम की सुरक्षा को कम कर दिया गया। और 23 अगस्त को उनकी हत्या कर दी गई।
इन सब घटनाओं से यही सारांश निकलता है कि ना जाने कितने पालघर हो चुके है और न जाने कितनो का षड्यंत्र रचा जा चुका है। पर कुछ है जो तभ भी नही था और जो अभी भी नहीं है -जागरूकता । हम हमारी सामाजिक दृष्टि से बहुत कम जागरूक है।हमारी जागरूकता के अभाव का मूल्य न जाने कितने साधुओं ने चुकाया। हम सोते रहते है और हमारे जागने से पहले ना जाने कितनी आवाजों को कुचल दिया जाता है।
और ये स्वर तब तक दबते रहेंगे जब तक आवाज संयुक्त रूप से उठायी नही जाएगी।