बशीर बद्र का शेर याद आ रहा है, “दिल की बस्ती पुरानी दिल्ली है, जो भी गुज़रा है उस ने लूटा है”
कोरोना जैसी घातक चीनी महामारी से दो चार रही दिल्ली को तंज कसने का मन नहीं था मेरा. पर जब दिल्ली में बिलखते चेहरों और सुन्न पड़ी लाशों के सामने डकार मारते ‘आम आदमी’ को देखता हूँ, तो कलेजा कांप जाता है. आप बिल्कुल निश्चिंत रहिए ना तो मेरा किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध है, और ना ही मैं किसी ऐसे बाॅलीवुड समूह का सदस्य हूँ जिसके किस्सों के किरदार इन शासको के घर में अभ्यास किया करते हैं.
दिल्ली में सड़क पर रोते चिंघाड़ मारते विधुर की आवाज़ और चूंड़ियां फोड़ती विधवा की सैकड़ों वीडियोज़ सोशल मीडिया पर देखने के बाद यहां कुछ खास बचा नहीं है. दिल्ली के लोगों ने खास से हटकर आम पर विश्वास किया था. चाहा था कि भले पूंजीवादी खास बनकर हम ऑडी में घूमें, पर सरकार आम होनी चाहिए. सरकार आम ही बनीं. और कोरोना काल का समाधान भी आम किस्म का है.
पर आज सवाल करने का मन है!
जब चंद महीनों पहले दिल्ली चुनाव होने वाले थे तो चिर परिचित अंदाज़ में बसड्डों, मेट्रो और खम्भों पर करोड़ों के पर्चे चिपके थे. आज शायद उनके कुछ चीथड़े या पुरातात्विक अवशेष प्राप्त भी हो जाएं. उन पर दिल्ली को लंदन बनाने के दावे और उन दावों के साथ कुछ प्रमाण दिए गए थे.
उनमें बताया गया था कि भारत में विश्व स्तरीय स्वास्थ्य ढांचा कहीं है तो सिर्फ दिल्ली में. कहीं यदि चौबीस घंटे बिजली आती है तो सिर्फ दिल्ली में. कहीं यदि पानी पीकर प्यास बुझाई जाती है तो सिर्फ दिल्ली में. (और भी सैकड़ो)
पर कोरोना काल की विभीषिका ने मानो दिल्ली का दिल चीरना चाहा था. क्योंकि दिल्ली से किसी ने दिल में बहुत कुछ छुपाकर दिल्ली का दिल जीता था. पर दिल तो दिल है.. आज दिल ने सबकुछ जान भी लिया है. दिल कुछ करना भी चाहता है. पर दिल सिर्फ चाह सकता है, कुछ नहीं कर सकता.
चंद रोज पहले दूसरे राज्य से दिल्ली गए पूर्व आइ आर एस अधिकारी और अन्ना आंदोलन में माइक थामकर नारे लगाने वाले, कभी ना चुनाव लड़ने की सौगंध खाकर चुनाव लड़कर जीते मुख्यमंत्री जी ने कुछ कहा. उन्होंने कहा कि भइया हम तो दिल्ली सील कर देंगे और दिल्ली सिर्फ दिल्ली वालों की रह जाएगी. खैर वे तब भी वहीं थे और अभी भी दिल्ली में हैं.
वे शायद ये भूल गए थे कि उनकी कृपा से दिल्ली आज इस हालत में आ गई है कि यूपी, हरियाणा से कोई स्वत: आने को तैयार नहीं है. दिल्ली जाने वाला और दिल्ली में रहने वाला प्रत्येक भारतवासी इस बात को लेकर कभी चिंतित ही नहीं हुआ था कि राजधानी में रहकर इलाज के लाले पड़ेंगे. आपने स्वयं सोशल मिडिया पर दम तोड़ते लोगों की खबरे सुनी या पढ़ी होंगी. यह सहायता और निर्बलता की पराकाष्ठा है.
पर इसी बीच कुछ राहत देने वाली खबरें आईं. यह सच तो है ही कि मेरी दिल्ली का मालिक जनता की इच्छाओं को पूरा भी करता है. जब मालिक की पसंदीदा पत्रकार ने बाल बड़े होने और सैलून बंद होने की भावुक अपील की. तो इस आपदा में राउंड द क्लाॅक कार्य कर रहे मुख्यमंत्री की सक्रियता से इस जटिल समस्या का हल मिल गया. साहब ने फौरन ट्वीट कर उत्तर दिया. अबतक बाल काटे भी जा चुके होंगे. मुख्यमंत्री औचक निरीक्षण भी कर सकते हैं.
दयालुता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर से ताल्लुक रखने वाले सांसद महोदय ने चमत्कार किया. उन्होंने दिल्ली से श्रमिकों को बिहार हवाई जहाज में बैठाकर भेजा. एक चैनल पर पत्रकार ने इसे करिश्माई कह डाला. कहा कि दिल्ली से दिल जीतने वाली खबर आई है. खैर सामान्यज्ञ पत्रकार से सांसदों को प्राप्त हवाई यात्रा की बारीकियां जानने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. सांसद ने अपनी चौंतीस हवाई यात्राओं का हस्तान्तरण कर दिया, जो नियम कायदे में है ही नहीं.
खैर दिल्ली में अस्पतालों की कमी नहीं है, मोहल्ला क्लीनिक है भी है. दिल्ली का पेट अब विज्ञापन से भरता भी है. इधर दिल्ली में कर्मचारियों को वेतन नहीं दे सकने वाली सरकार ने केंद्र से मार्मिक अपील की है. केंद्र को मदद देनी भी चाहिए.
क्योंकि भले ही दिल्ली में विज्ञापनों के पेड़ लग चुके हैं. विज्ञापन कढ़ी, फ्राई विज्ञापन , विज्ञापन चूरमा, लच्छा विज्ञापन पराठा, विज्ञापन अचार, और रायता की व्यवस्था हो. कर्मचारियों को वेतन देने में दिल्ली सरकार समर्थ नहीं है.
अंत में दिल्ली के लिए अपनी संवेदना प्रकट करना सबका कर्तव्य है. सो ट्विटर पर कुछ ‘ शेम ऑन’ हैशटैग दौड़ेंगे. फिर उनके विरुद्ध ‘आई स्टैंड, आई सपोर्ट ‘ सरीखे ट्वीट दौड़ा जाएंगे. पर दिल्ली में ग्यारह महीने के बच्चे की मां सो गई है. बच्चा अब डिब्बे का दूध पीकर बड़ा हो सकता है. और बच्चे की दुहाई देकर पत्नी की जान बचाने की मिन्नते करता युव विधुर बन गया है.
“दिल्ली में मुफ्त बिजली का बिल, मुफ्त पानी, मुफ्त राशन और मुफ्त मौत भी है.”
अरे अरे अरे! माफ कीजिएगा मौत नहीं …