आठ साल की बच्ची, जो भूख से हार पड़ोसी के घर खाना मांगने जाती है, का रेप चंद भूखे भेड़ियों द्वारा कर दिया कर दिया जाता है जिनका नाम लेने से देश का संविधान खतरे में पड़ जाता है। इसी खतरे से देश को बचाने के लिये ऑप इंडिया के अतिरिक्त कोई मीडिया न्यूज साइट इस खबर को नहीं छापता है। एक शांतिप्रिय समुदाय से इतना डर होना बात कुछ हजम नहीं होती।
खैर जिस देश में समुदाय विशेष की भावनाएँ मात्र एक ऑनलाइन गेम से आहत हो जाती हो और गेम बनाने वाली कम्पनी (पबजी) सार्वजनिक रुप से माफी मांगती हो वहाँ मीडिया का भयभीत होना स्वाभविक सा लगता है। जहाँ विशेष टोपी पहनने से विशेष ईकोनॉमी बनाने से लोग भयभीत न हो पर झंडे से हो जाये वहाँ सब स्वाभाविक है!
भारत में ‘रेप’ चौथा सबसे आम अपराध है। भारत सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार साल 2012 में रेप के 24,923 मामले थे जिनमें 24,470 मामले ऐसे थे जिनमें ये घिनौनी हरकत लड़की के किसी जानने वाले ने की थी।
2018 में हर चौथे मामले में लड़की नाबालिग थी, वहीं 50 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में उनकी उम्र 18 से 30 के बीच थी। (NCRB: नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) 2018 में 33,356 केस थे जिनमें 33,977 लड़कियाँ शिकार हुई, औसतन 89 रेप रोज! 2017 में 32,559 वहीं 2016 में 38,947 मामले हुए।
और इन सब मामलों में हम क्या करते है, “दुखद है” “बुरा हुआ” “मुआवजा मिला न?” अधिकाधिक हम एक स्टोरी डाल कर दुख व्यक्त कर देते है।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यनते रमन्ते तत्र देवता” मंत्र का प्रतिपादन करने वाला देश अपनी बेटियों की ‘अस्मिता’ बचाने में इस कदर लाचार है की एक कठोर कानून भी नहीं बना पा रहा!
ये आँकड़े जिस भयावहता को दर्शाते हैं वो आज भी हम सही से देख नहीं पा रहे। NCRB(2018) के अनुसार 14.1% (4,779) मामलों में उनकी उम्र 16 से 18 के बीच थी, 10.6% (3,616) मामलें 12 से 16 के बीच के थे, 2.2% (757) 6 से 12 वहीं 0.8% (281) 6 से कम उम्र की बच्चियों के साथ हुआ था!
प्रति 15 मिनट में एक रेप आँकड़ा था 2018 का! प्रति दो वर्ष में निकाले जाने वाले NCRB के डाटा को अभी 2020 में आना है।
उसका परिवार उसे ट्विंकल बुलाता था। 6 साल की बच्ची जब रेतीली झाडियों में मिली तो उसके छोटे पैरों से खून की बहती धार जम चुकी थी, उसका भूरा यूनिफॉर्म उसके उपर था और गले में बंधा था बेल्ट! “अगर आप उसे देखते तो फिर सो नहीं पाते।” उसके दादा ने कहा!
इन सब आंसुओं की जिम्मेदारी कौन लेगा? कौन ढोएगा ये भार? इन सब के लडकियों का होता क्या है? एक समाज के रुप में हम इतना गिर चुके है की हमनें कभी भी पीड़ितों की ना सुनी। महिलाएं इसकी भुक्तभोगी रही।
ऐसिड अटैक से पीड़ित लडकियों बरसों तक उसी जिन्दगी को लड़ने की जद्दो-जहद करती हैं और अन्त में हार जाती है। क्या हम उन्हें स्वीकारते हैं? समाज में कठोर कानून के साथ साथ एक अपनाव की भी जरुरत है जो इन्हे इनका वो हक दिला सके जो इनसे बिना गलत हुए छीन लिया जाता है!