दुनिया उम्मीद पर टिकी है…शायद अब नहीं, क्योंकि दुनिया अब दिखावे पर टिक गयी है। ऐसा इसलिए बोला गया क्योंकि आजकल जो दिखता है वही बिकता है और उम्मीद तो खैर किसी से रखनी भी नहीं चाहिए।
जो कुछ भी दिख रहा अथवा हो रहा है, सब किसी न किसी उद्देश्य या जरुरत को पूरा करने के लिए है। इंसान जो भी करता है, किसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए या तो किसी स्वार्थवश ही करता है, चाहे वह कितना भी इस बात को नकार दे। लेकिन जब ऐसा करते-करते “थोड़ा और” नाम का मंत्र जपना शुरू कर दिया जाता है, तो वहीं से समस्या का तथाकथित शुभारम्भ हो जाता है। उदाहरण के लिए आप सोचो कि 10 लीटर की बाल्टी में 20 लीटर पानी भर लें तो नहीं होगा। क्षमता (आवश्यकता) के बाद सब बेकार ही जाना है। बिलकुल इसी तरह हमारी जरूरतें भी होती है, आवश्यकता से अधिक चीज़ एक दिन स्वाहा होनी ही है। लेकिन जब दिमाग के गधे दौड़ते हुए इंसान इसी अतिरिक्तता का उपयोग अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में करता है तो इसे ही समाजशास्त्र की सामान्य भाषा में “दिखावा” बोल दिया जाता है।
अपने समाज में “फलाने व्यक्ति” नाम के प्राणी हर जगह पाए जाते हैं जिन्हे प्राय: लोग बहुत गंभीरता से लेते हैं। शायद खुद से भी ज्यादा। “फलाने क्या कहेंगे? फलाने क्या सोचेंगे? फलाने को कैसा लगेगा?”, यही बातें तो लोगो को काम करने के लिए प्रेरित करती हैं, बाकी तो सब मोह-माया है। जब आवश्यकता से अधिकता और इन्हीं “फलाने व्यक्ति” की प्रतिक्रियाओं की चिन्ता का गठबंधन होता है तो मजबूरन व्यक्ति को “दिखावे की सरकार” चलानी पड़ती है।
सामान्यतः ऐसे व्यक्ति आपको हर जगह ही मिल जायेंगे और आप स्वयं भी होंगे। अभी अगर सोचना शुरू करेंगे तो दसियों बातें याद आ जाएँगी जिसमे हम जरुरत कम पूरी करते हैं और दिखावा ज्यादा। ऐसे ही एक शादी समारोह में आयोजक से किसी ने पूंछ दिया “कितना खर्चा किये हो प्रभू?”। “यही कोई 12-13 लाख होगा….” नवाबी हंसी के साथ प्रभू बोले। फिर पूछा गया कि क्या जरुरत थी इतने सब की। अबकी बार प्रभू मुंह बनाते हुए बोले ” अरे तुम नहीं समझोगे यार, करना पड़ता है। वरना फलाने क्या कहेंगे?” अब सत्य तो ये है की वहां जितने भी सफारी सूट के ब्रांड एम्बैसडर और ब्यूटी पार्लर से निकले प्रयोग हैं, उन सबकी नजर सिर्फ शाही पनीर की सब्ज़ी और व्यवहार में मिलने वाले लड्डू के डिब्बे पर है। प्रभू के ताजमहल को फेल करते गेस्ट हाउस और किराये पर लायी हुई मर्सिडीज पर किसी का ध्यान नहीं है। उनके 12 लाख के कुछ घंटे के प्रोग्राम के बाद कोई उनको नहीं पूछेगा।
सच तो ये है कि व्यक्ति अपनी जरूरतों के मुताबिक नहीं बल्कि उन्हीं “फलाने व्यक्ति” और समाज की नजरो में नकली उत्कृष्टता का दिखावा करने के लिए काम करता है। दोस्तों के पास दस हज़ार का मोबाइल है तो हम 15 हज़ार का लेंगे, भले ही उसे सम्भाल ना पाएं. फलाने के पास 20 लाख की कार है तो हमें भी चाहिए चाहे खुद बिक जाएं। घर की दीवार पर महंगा वाला एशियन पेंट अल्टिमा ही लगेगा, ताकि लोग देखें तो कि खर्चा किया है.
इस सन्दर्भ में सिर्फ आर्थिक बेलगामी ही नहीं बल्कि अनावश्यक रूप से अपनी महानता के झंडे फहराना और अपनी संदेहपूर्ण श्रेष्ठ्ता को दूसरों पर थोपने जैसी आदतें भी आती हैं।
इसीलिये यदि दूसरों की प्रतिक्रियाओं को न देखते हुए अपनी प्राथमिकताओं पर ज्यादा ध्यान दिया जाए तो ये अनावश्यक “दिखावा” नाम की आदत से बचा जा सकता है। जिससे आपकी अकस्मात् बेज़्ज़ती तथा शानो शौकत के हवाई किले ढहने जैसी दुर्घटनाओं की सम्भावना घट जाती है और इसके साथ ही आपका स्वयं का जीवन भी अपेक्षाकृत बेहतर होता है।
-Prashant Bajpai