भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र है। सेक्युलर शब्द भारत के संविधान में जुड़ा, उससे भी कई वर्षों पहले भारत एक पंथ निरपेक्ष राष्ट्र था। सनातन का सत्य जान कर कई रीतीं रिवाज जुड़ते और भुलाए गए पर ये पंथ निरपेक्षता हम पर किसी ने थोपी नहीं। आप किस तरह ईश्वर में आस्था रखते हैं वो पूर्णतः आपका निजी मामला है। भारत वो देश है जहाँ सनातन संस्कृति में कई पंथों ने जन्म लिया और लोग अपनी स्व: इच्छा से इनसे जुड़ते गए। क्योंकि सनातन ने ये आज़ादी सभी को हमेशा दी की आप अपने पंथ को व्यक्तिगत तरीके से चुने।
सनातन का सबसे पहला पंथ था जैन सम्प्रदाय जो ऋषभदेव से शुरू हुआ। इस सम्प्रदाय में 24 तीर्थंकर हुए, जिसमे अन्त में भगवान महावीर का जन्म हुआ। पर इस सम्प्रदाय के लोगों को आपने कभी किसी को धर्मांतरण की बात करते सुना? भारत का सबसे पुराना संप्रदाय, सबसे कम जनसंख्या के साथ अपना जीवन जीते जा रहे है पर कभी धर्मांतरण करते नहीं देखे गए।
ठीक ऐसा बुद्ध भगवान के बाद हुआ।
गुरु नानक की समय आते आते समाज मे काफी बदलाव आ चुका था पर फिर भी गुरु साहब ने इसे किसी पर थोपा नहीं। वो सत्य बताने गए और लोग अपने विवेक से उनके बताए मार्ग पर चलते रहे। ऐसा ही जमबेसर महाराज, जुलेलाल और कई महान पूजनीय लोगो ने अपने तरीक़े से विचारों को समझाया और अलग अलग पंथ यहाँ फलते फूलते गए।
फिर जबरन धर्मांतरण क्यों होता दिखता है वर्तमान परिपेक्ष में। इस सवाल का उत्तर किसी भी रूप में समझने के लिए पंथ, संस्कृति और धर्म को समझना जरूरी है। अखण्ड भारत का संस्कृतिक रूप देखे तो पूर्णतः एक जैसा ही है। आप किसी भी पंथ के मानने वाले हो ये आपका निजी मामला है पर सांस्कृतिक रूप से आप एक जैसे ही है। बदलाव है तो सिर्फ अनुष्ठान स्तर पर जो उन महान जन ने अपने जीवन के तप से सीखा उसी परिपाटी को लोगो ने आगे बढ़ाया।
संस्कृति एक होने का अर्थ है आप किसी भी पंथ के मानने वाले हों सांस्कृतिक रूप से आप एक ही है। इससे ये बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है की पंथ निजी मामला है और पर संस्कृति ही तो समाज और सभ्यता को बनाये रखती है। जबरन धर्मांतरण आपकी सांस्कृतिक बनावट पर एक तरीके से हमला है। क्योंकि जो इस को बढ़ावा दे रहे है वो ये जरूर चाहते है की समाज में फैले सांस्कृतिक ढांचे खराब किया जाए। उसका सीधा असर सामाजिक अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसी बात को आगे ले जाये तो जाति तक स्तर पर बात होगी। भारत मे जाति व्यवस्था को लेकर कई प्रकार के धारणाये है कोई इसे सही मानता है तो कोई इसका पूर्ण रूप से खंडन करता है। पर मूलतः कोई इस पर ये बात नहीं बोलता की ये बना बनाया अर्थव्यवस्था का एक ढांचा है जहाँ समाज अपने कर्म से बंटा है। जिस मांग और आपुर्ति पर आधुनिक अर्थशास्त्र लिखा गया वो भारत के कर्म प्रधान समाज में सदियों से चल रहा है। हमने आधुनिक भारत मे जिस भी जातिय परिवार में जन्म लिया हो और अपने परिवार में पूर्वजों की ओर देखे तो हम ये पाएंगे की वे किसी ना किसी कला में निपुण थे। संगीत, शिल्प, कृषि, शस्त्र, शास्त्र या और कोई भी सामाजिक कर्म। विश्व के बाकी देशों के साथ इस कर्मकांड को किसी भी पैमाने में रख कर देखे ले औए हम गर्व के अतिरिक्त कुछ महसूस नहीं करेंगे।
परन्तु जब समाज आँखों पे पट्टी बांध अपने कर्म प्रधान ढांचे को नहीं देख पाता तो वो सामाजिक स्तर और अर्थव्यवस्था पर हमला करता है, वो ढांचा जो समाज को चलाने के लिए महत्त्वपूर्ण है। जिस भी समाज के अंग को हम कम आँकने लगते है वो हमसे छूटने लगता है और धीरे धीरे सामाजिक रूप से पिछड़ता जाता है। सदियों से सीखे हुनर की कद्र कम होने लगती है वो भुलाई जाने लगती है। हमने सामाजिक रूप से जिसे भी पीछे छोड़ दिया उसे जीवन में कोई भी सहारा दे तो वो उसके साथ चला जाता है। ठीक इसी के चलते कभी कभी जबरन धर्मांतरण, समाज का कुछ वर्ग को तोड़ देता है, कभी हमारी वैचारिक गलतियों का हवाला देकर या कभी अधिकारों का हवाला देकर। पर चराचर समाज मे माँग और आपूर्ति फिर भी बनी रहती है और उसे पूरी करने के एक दूसरा वर्ग तमगा तैयार हो जाता है। वर्तमान परिपेक्ष में इसको कई उदाहरण देखने को मिल जायेंगे।
आज के परिपेक्ष में कही जाने वाली अनुसूचित जाति में कई ऐसे वर्ग है या तो हमारे समाज से विलोप्त हो चुके है या अर्थिक हालात से झुँझ रहे है। बुद्धिजीवी समाज की अनदेखी ने इन्हें इस स्तर पर ला खड़ा किया जहाँ उसे धर्मांतरण के अलावा कुछ रास्ता दिखता ही नहीं। एक कर्म प्रधान वर्ग आपसे अलग हो गया क्योंकि समाज ने कभी उनके कर्म को प्रधानता नहीं दी। इस पूरे वर्ग के कर्मकांड पर ध्यान दे तो पाएंगे कि ये वर्ग एक ऐसे कर्म में लिप्त है जो आम जनमानस के बस की बात नही पर फिर भी पढे लिखे समाज की अनदेखी से उसे समझा ही नहीं। ऐसा ही मत अनुसूचित जनजाति के रूप में है जिसका कर्म प्रकृति संसाधनों से जुड़ा है।जहाँ हम 600 से 1000 sq वर्ग में घर लेकर अपने आप को बड़ा आदमी समझते है वही ये वर्ग समस्त जंगल के मालिक के रूप में जीवन वियापन कर है वो भी स्वछंद रूप से। जब इस वर्ग को पैसे का लालच दे कर जबरन धर्मांतरण की तरफ से धकेला तो हमने अपनी सांस्कृतिक ढांचे से प्राकर्तिक संसाधनों के रक्षक खो दिये।
अर्थव्यवस्था को आप पैसा के आईने से देखे तो शायद ये बाते गलत लगे पर कर्म से जोड़, माँग और आपूर्ति के नजरिये से देखे तो बहुत चिंतन का विषय है।एक ओर हम आत्मनिर्भर भारत की बात करते है और दूसरी तरफ समाज मे बने बनाये अर्थशास्त्र के एक कामयाब ढांचे को समझ नही पाते तो हम भी तथाकथित उदारवादियों की दुगलेपन वाली भीड़ में शामिल हो जाते है।
अगर हमे अपनी अर्थव्यवस्था की चिंता है तो सारे दरवाजे खोलने होंगे, सबसे पहले मन में पनपी कुरूतियो और विचारधारा के। जब ये दरवाजे खुलेंगे तो शायद हम अपने आप सांस्कृतिक जीवन में छुपे अर्थशास्त्र के इस ढांचे को समझ पाये।