Wednesday, April 24, 2024
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महात्‍मा गांधी का ईसाई मत से सामना; उनकी 3 प्रमुख कमजोरियां

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लेखक श्री सीता राम गोयल की पुस्‍तक History of Hindu-Christian Encounters [AD 304 to 1996] से हिन्‍दी में उध्‍दृत।

महात्‍मा गांधी के भारतीय राजनीति में पदार्पण के बहुत पहले से ही ईसाई मत के प्रचारक (मिशनरी) भारत में भ्रमण कर रहे थे। ज्‍यादातर हिन्‍दू ईसाई मिशनरियों का अपमान करते थे व जगह-जगह उनका मजाक बनाया जाता था। महात्‍मा गांधी ने मिशनरियों से मिलना और वाद-वि‍वाद करना प्रारम्‍भ किया। इसके लिए उन्‍होंने ईसाई मत की अनेक पुस्‍तकों का गहन अध्‍ययन भी किया। इस टकराव के दौरान गांधी तो पक्‍के हिन्‍दू बने रहे और लगभग समस्‍त ईसाई मत की कोई बात उन्‍हे प्रभावित नहीं कर सकी। परंतु जो हिन्‍दू समाज ईसाई मत को हंसी-ठिठोली का विषय समझता था वह उनके प्रभाव में आकर ईसाई मत को गंभीर अध्‍ययन की विषय-वस्‍तु समझने लगा। जो गलतियां महात्‍मा गांधी ने की वही गलतियां उनके देहावसान के 70 वर्ष बाद भी दोहराई जा रही हैं या यह कहा जाए कि महात्‍मा गांधी ने जिन नीतियों से ईसाई मत का सामना किया था हिन्‍दु समाज आज भी उन्‍हीं असफल नीतियों से उनका सामना कर रहा है। आज समय है कि हिन्‍दू उस नीति से आगे निकले और अपनी बात को स्‍पष्‍ट रूप से विश्‍व पटल पर दर्ज कराये। ईसाई मत से टकराव के दौरान गांधी जी की निम्‍न तीन कमी या कमजोरियां स्‍पष्‍ट रूप से सामने आती हैं-

1.  सर्व-धर्म-समभाव।

2.  ईसा मसीह की भक्ति।

3.  मिशनरियों की सच्‍चाई समझने में असफलता।

उपरोक्‍त तीनों बिन्‍दुओं का विश्‍लेषण आगे किया गया है।

1.  सर्व-धर्म-समभाव।

महात्‍मा गांधी द्वारा ‘सर्व-धर्म-समभाव’ को उनकी पुस्तिका ‘मंगल-प्रभात’ के 16 महाव्रतों में शामिल किया गया था। ऐसा करने से पहले कभी भी हिन्‍दू धर्म की मुख्‍य धारा में ‘सर्व-धर्म-समभाव’ शामिल नहीं था। यह सत्‍य है कि प्राचीन काल से ही आततायी विचारों को छोड़ कर हिन्दू धर्म में सभी मतों व पूजा- पध्‍दतियों को स्‍वीकार किया जाता रहा है। परंतु यह व्‍यवहार कभी विभिन्‍न मतों को बराबर सम्‍मान (समभाव) देने की दृष्टि तक नहीं पहुंचा था। सनातन धर्म के सभी मतों के आचार्य ‘श्रेयस’ (सबसे अच्‍छा) की ओर ले जाने वाले विभिन्‍न मार्गों में अंतर पर वाद-विवाद करते आये हैं। परंतु उनमें समानता खोजते की आवश्‍यकता कभी महसूस नहीं की गई थी। उदाहरण के रुप में ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी बौध्‍द आचार्य ने अपने मार्ग को गीता के मार्ग के समतुल्‍य माना हो या इसका उलट किसी गीता वाचक ने बुध्‍द के मार्ग को गीता के बराबर माना हो। यह भी सत्‍य है कि इस्‍लाम की सैन्‍य शक्ति व सूफियों की मीठी-मीठी बातों से धोखा खाकर मध्‍यकाल के कुछ हिन्‍दू सन्‍तों ने राम को रहीम, कृष्‍ण को करीम, काशी को काबा, ब्राह्मण को मुल्‍ला, पूजा को नमाज और इसी तरह के अन्‍य प्रतीकों को बराबर मान लिया था। परंतु इन संतों द्वारा स्‍थापित पंथ के अनुयायियों की संख्‍या न्‍यूनतम ही रही है। मुख्‍य धारा का हिन्‍दू आज भी उन संतों व आचार्यों को अधिक संख्‍या में पूजता है जिन्‍होंने इस्‍लाम को कभी ‘धर्म’ के समतुल्‍य नहीं माना। आधुनिक समय में भी वेदों का आदर करने वाले और बाइबिल व कुरान को हिकारत की दृष्टि से देखने वाले महर्षि दयानन्‍द व स्‍वामी विवेकानन्‍द का हिन्‍दू समाज पर बहुत प्रभाव है इस की तुलना में इस्‍लाम और ईसाईयत को धर्म का दर्जा देने वाला ‘ब्रह्म समाज’ हिन्‍दू मुख्‍य धारा के लोगों को प्रभावित करने में असफल रहा है। यह बहुत ही स्‍पष्‍ट हिन्‍दू परंपरा है। महात्‍मा गांधी द्वारा सनातन धर्म के समतुल्‍य ईसाई व मुस्लिम मत को ‘धर्म’ मानने की शरारत एक विशालकाय त्रासदी में बदल गई है। गांधी से पहले मुस्लिम व ईसाईयों का समर्थन करने वाले किसी हिन्‍दू को मात्र भटका हुआ हिन्‍दू माना जाता था। महात्‍मा गांधी ने अपने आप को विश्‍व पटल पर एक हिन्‍दू के रूप में प्रचारित किया और वे मुख्‍य धारा के हिन्‍दू के रूप में पहचाने भी गए इसलिए बहुसंख्‍य हिन्‍दू समाज ने उनके ईसाईयत से निपटने के तरीके को आदर्श समझा व उनकी नकल करने लगे। 

 यह एक रहस्य बना हुआ है कि कैसे महात्मा गांधी ईसाईयत और इस्लाम को आतंकवाद और हिंसक साम्राज्यवाद की अधिनायकवादी विचारधारा के बजाए एक अन्‍य आध्यात्मिक मार्ग समझने लगे। हमारा उस विचारधारा से सामना है जिसका देवता अपने आप को एक मात्र देवता समझता है, वह अन्‍य देवताओं से ईर्ष्‍या करता है, वह मानव जाति के सम्‍मुख स्‍वयं प्रस्‍तुत नहीं होता बल्कि एक मध्‍यस्‍थ- ईश्‍वर के पुत्र या पैगम्‍बर के माध्‍यम से स्‍वयं को उद्घाटित करता है। उसने कुछ व्‍यक्तियों को चुना और उनके साथ आपसी अनुबंध किया कि वे बल के माध्यम से उसे मानव जाति के बाकी हिस्सों पर थोपने के लिए बाध्‍य होंगे। उसने अपने चुने हुए लोगों को आदेश दिया कि वे शेष मानव जाति के साथ सतत युध्‍द में लग जाएं। वह देवता तब बहुत प्रसन्‍न हो उठता है जब उसकी पूजा करने वाले नरसंहार करते हैं, सभ्‍यताओं का समूल नाश करते हैं, मासूम और असहाय मर्द, औरत और बच्‍चों को लूटते हैं, उन्‍हे गुलाम बनाते हैं। उनका इतिहास खून के प्‍यासे दरिंदों, गैंगस्‍टर और घृणित लोगों को नायक व संत की उपाधी देने के लम्‍बे इतिहास से भरा पड़ा है।

 महात्‍मा गांधी ने इन विचारधाराओं को न केवल धर्म के समान माना बल्कि उन्‍हे सनातन धर्म के समकक्ष भी रखा इससे दो ही निष्‍कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि सनातन धर्म की उनकी समझ इतनी गहरी नहीं थी जितनी प्रचारित की गई है और दूसरा- राष्‍ट्रीय कार्यो में ईसाई व मुस्लिमों को अपने साथ लगा लेने का सपना देखने वाले उनके अंदर के नेता ने उनकी आध्‍यात्मिक दृष्टि को पूर्ण रूप से किनारे कर दिया था। असलियत जो भी हो पर इस लक्ष्य को प्राप्‍त न कर पाने की उनकी असफलता यह सिध्‍द करती है की उनका प्रयास एक सनक से ज्‍याद कुछ नहीं था। वे ईसाईयों व मुस्लिमों की बड़ी आबादी को अपने राष्‍ट्रीय आंदोलन या सर्व-धर्म-समभाव के दल में शामिल करने में असफल रहे। परंतु इस नारे को प्रसिध्‍द करने की उनकी जिद ने धर्म की परिभाषा को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया और हिन्‍दू समाज को आने वाले समय के लिए घुटनों पर ला दिया। ईसाईयत व इस्‍लाम के सामने सर्व-धर्म-समभाव के इस नासमझ नारे ने हिन्‍दुओं का जितना नुकसान किया है, कोई और नारा आज तक इतना नुकसान नहीं कर पाया है।

2. ईसा मसीह की भक्ति।

महात्‍मा गांधी ‘ईसा मसीह’ या ‘प्रभु ईशू’  की हमेशा प्रशंसा करते थे। वे यीशु के पहाड़ी उपदेशों (Sermon on the Mount) की जीवन पर्यन्‍त तारीफ करते रहे। उनकी यह सराहना अनोखी है। महात्‍मा गांधी के भारतीय राष्‍ट्रीय घटनाक्रम में प्रवेश से पहले तक ज्‍यादातर हिन्‍दू समाज न तो ईसा मसीह से परिचित था और न ही उनके पहाड़ी उपदेशों से। ब्रह्म समाज को मानने वाला छोटा सा हिन्‍दू वर्ग ही इस बकवास पर मोहित था। पर महात्‍मा गांधी ने दिन-रात मेहनत कर के इन दोनों को इतना बड़ा बना दिया की वे हिन्‍दू विद्वानों के घर में चर्चा का विषय बन गये। महात्‍मा गांधी के जाने के बाद ईसाई विचारकों और मिशनरियों का काम बहुत आसान हो गया, किसी हिन्‍दू द्वारा ईसाईयत में कोई कमी निकालने पर वे तुरंत ही जादू की दो बातें बोलकर उसे चुप करा सकते थे- ईसा मसीह और उनके पहाड़ी उपदेश। यह नहीं कहा जा सकता कि आधुनिक शोध कार्य ने ईसा मसीह के मिथक के साथ जो किया है, महात्‍मा गांधी उससे परिचित थे या नहीं। सत्‍य जो भी हो पर यह स्‍पष्‍ट है कि गांधी जी से किसी ने भी ईसा मसीह की तारीफ करने और उसे भारत में इस तरह स्‍थापित करने की सिफारिश नहीं की थी। और उनके पहाड़ी उपदेशों की बात की जाए तो व्‍यास या वाल्मिकी या कन्‍फ्यूसियस या सुकरात के उपदेशों की तुलना में ईसा मसीह के पहाड़ी उपदेश यदि एक भरी सभा में सुनाए जाये तो सभा का हंस-हंस कर बुरा हाल हो जाए। बिना किसी गहन विचार के बनाई गयी इन झूठी व सतही मजहबी किताबों की क्‍या बात की जाए। महात्‍मा गांधी को किसी ने नहीं कहा था कि इस बे-सिर-पैर के दिखावे को ऊँचे नैतिक मानदण्‍ड के रूप में प्रचारित करें। अचरज की बात तो यह है कि ईसाई मिशनरी भी ‘पहाड़ी उपदेशों’ की खूबसूरती को नहीं जानते थे, जब तक कि महात्‍मा गांधी ने इस खोज को उनके सामने नहीं रख दिया। इसके बाद से ही वे घमंड से इठला-इठला कर चलने लगे हैं।

3.  मिशनरियों की सच्‍चाई समझने में असफलता।

महात्‍मा गांधी जीवन पर्यन्‍त ईसाई मिशनरियों से मिलते रहे, उनसे वाद-विवाद करते रहे। ईसा मसीह की विलक्षणता और उसके नाम पर गैर-ईसाईयों के धर्म परिवर्तन कराने के ईसाईयों के अधिकार पर, चर्चा में उन्‍होंने बहुत समय बर्बाद किया। इसने विशालकाय हिन्‍दू आबादी को बुरा तरह से प्रभावित किया। ईसाई मिशनरी उनकी नजरों में ऊपर उठ गये। महात्‍मा गांधी द्वारा प्रकाशित प्रसिध्‍द पत्रिकाओं में ईसाई मिशनरियों को अत्‍यधिक स्‍थान मिलने से पहले हिन्‍दू समाज उन्‍हे न भगाये जाने वाला ऐसा व्‍यवधान समझता था, जो मात्र उलाहना और हंसी का पात्र था। महात्‍मा गांधी का उनके प्रति संबोधन ऐसा था कि वे बड़े सम्‍मानित समझे जाने लगे और भारत के कोने-कोने में लोग उन्‍हे पहचानने लगे। इस बात पर बड़ा आश्‍चर्य होता है कि महात्‍मा गांधी ने खुद कभी मिशनरी प्रचार साहित्‍य उठा कर क्‍यों नहीं पढ़ लिया जिससे वे खुद जान पाते कि ईसाई मिशनरियों को किस प्रकार से मतांध करके प्रचार के लिए लिए भेजा जाता है, किस प्रकार से वे इस धूर्त, नकली और घृणित गोरखधंधे में फंसाये जाते हैं। यदि वे यह सोच रहे थे कि एक दिन ईसाई मिशनरी सीधे-सरल व ईमानदार बनकर मानवता की सच्‍ची सेवा में लग जाएंगे तो वे ख्‍याली पुलाव पका रहे थे। ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत की सीधी सच्‍ची जनता का शोषण किया जा रहा था महात्‍मा गांधी ने उन्‍हे उसी शोषित जनता की निस्‍वार्थ सेवा करने का न्‍यौता दे दिया। इस तरह उन्‍होंने अनायास ही ईसाई मिशनरियों की इज्‍जत पहले से कहीं ज्‍यादा बढ़ा दी। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज और संस्‍कृति को विकृत और नष्‍ट करने के उद्देश्‍य से विकसित ईसाई मिशनरियों का तंत्र और विशालकाय व मजबूत बनता गया। जब खिलाफत आंदोलन के दौरान गंदी बस्तियों में बदहाल जिन्‍दगी गुजारने वाले मुल्‍लाओं को निकालकर महात्‍मा गांधी ने उन्‍हे देश के महत्‍वपूर्ण व जनता के बड़े प्रतिनिधि के रुप प्रचारित किया, तब भी तो वे यही कर रहे थे।

आज आजादी के 70 वर्षो के बाद महात्‍मा गांधी के कृत्‍यों का सच्‍चा मूल्‍यांकन करना अति- आवश्‍यक है, ईसाई समाज हो या मुस्लिम समाज दोनों ने महात्‍मा गांधी की जीवन पर्यन्‍त इज्‍जत की है। पर क्‍या दोनों मजहबों की हिन्‍दुओं के प्रति नीति बदली है या उनके मजहबी दुस्‍साहस में कोई परिवर्तन आया है। आज भारत में ईसाई व मुस्लिम समाज अपने आप को अल्‍पसंख्‍यक के रूप में प्रचारित करके सरकारी कोष के बड़े हिस्‍से पर अपना हाथ साफ कर रहा है। पर वैश्विक स्‍तर पर दोनों मत मानने वाले लोगों की आबादी सबसे ज्‍यादा है और हिन्‍दू वास्‍तविक अल्‍पसंख्‍यक हैं। उनके द्वारा धर्म-प्रचार पर भी पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। मुस्लिम उम्‍मा, ईसाई चर्च और समाजवाद, वैश्विक धन और बल की ताकत से प्राचीन भारतीय हिन्‍दू समाज को पूरी तरह से बदलने के प्रति दृढ़-संकल्पित है। हिन्‍दू समाज हमेशा की तरह अपने इतिहास से कुछ भी सीखने के लिए तत्‍पर नहीं दिखता है। वह तो उस झूठे मार्क्सवादी इतिहास को भी नहीं बदलना चाहता जिसने भारतीय इतिहास के महापुरुषों को बदमाश और चोर-उचक्‍का साबित कर दिया है और रक्‍त पिपाशु, बलात्‍कारी लुटेरों को इस देश की रक्षा करने वाले नायकों में बदल दिया है। किसी महापुरुष की मूर्ति बना कर उस पर माला चढ़ाना और प्रचार में उनका नाम व फोटो का प्रयोग कर लेना बहुत ही सरल है पर उनकी कथनी और करनी का समय अनुसार सच्‍चा व तथ्‍यपरक मूल्‍यांकन करते रहना भी एक अति- आवश्‍यक कार्य है।

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