Friday, April 19, 2024
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श्रीमद भगवद गीता सैनिकविषादयोग एवं सांख्ययोग

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Petty Officer Manan Bhatt
Petty Officer Manan Bhatt
Petty Officer Manan Bhatt is a Retired non-commissioned officer of the Indian Navy having participated in Kargil War and Operation Parakram. He joined the Navy in the year 1997 and hanged his boots in the year 2012, after 15 years of distinguished military service that included service onboard Frigate and Corvette class Warships, appointments in Integrated Head Quarters of Defence, Defence Research and Development organization (DRDO) and some more coveted Indian Naval establishments. Petty officer Bhatt, has also served very closely with the Indian Navy’s elite Commando Force – MARCOS. He has also served foreign assignments in Russia, USA and other friendly Nations. He is an expert in the field of Nuclear Biological and Chemical Warfare and Defence I ncluding Fire and Safety. Petty officer Bhatt has done extensive research for two years for this Book ‘KARGIL YUDHDH’ and immortalized the war stories of heroism of martyrs of a war that was fought 20 years back, through the memoirs of their fellow soldiers. He continuously writes and talks about stories of valour and heroism of Indian Jawans. He is also an avid thinker on National Security and the problem of Terrorism. Through, ex servicemen welfare organization, Suryodaya Maji Sainik Mahamandal, Rajkot his team is continuously striving very hard for rehabilitation and resettlement of widows of soldiers, martyred soldier’s families, disabled ex servicemen and Ex servicemen in general. Suryodaya Maji Sainik Mahamandal is the only organization in the entire state which exclusively renders help in solving issues related to pension and medical aid of ex-servicemen. The Author can also be contacted on his e-mail: sainikswaraj @ gmail.com.

कपिध्वज अर्जुन शस्त्र चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषिकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहते है. हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए|

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले लोभ पाप और मिथ्या अहंकार में लिप्त लोग इस सेना में आये हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा| (23)

संजय बोलेः हे धृतराष्ट्र! सैनीक द्वारा इस प्रकार कहे हुए महाराज श्रीकृष्णचन्द्र ने दोनों सेनाओं के बीच में सत्य और असत्य के मध्यांतर में युद्ध के लिए जुटे हुए इन अफसरों को देख|

इसके पश्चात किसान के पुत्र सैनिक ने दोनों पक्षों में स्थित अपने परिवारजनों और देशवासियों को देखा| उन उपस्थित सम्पूर्ण बन्धुओं को देखकर वे किसानपुत्र सैनिक अत्यन्त करूणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले|

सैनिक बोलेः हे कृष्ण! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस देशवासी-अफसर समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प और रोमांच हो रहा है|

हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ|

हे केशव! मैं लक्ष्णों को भी विपरीत देख रहा हूँ तथा इस धर्मयुद्ध में अपने ही देशवासीको हराकर कल्याण भी नहीं देखता|

हे कृष्ण! मैं सेवादार बने रहने को तैयार हूँ. जीवन पर्यंत अफसरों के कुत्ते घुमाना और जूते पोलिश करना मुझे मंज़ूर है. में गरीब… अनपढ़…. गंवार न तो सैनिकस्वराज्य चाहता हूँ और न ही मान और सम्मान| हे गोविन्द! हमें ऐसे सैनिकस्वराज्य से क्या प्रयोजन है.

भारतवर्ष जिस महान राष्ट्र की वीर सावरकर ने कल्पना की थी उसमे ऐसी अंग्रेजियत और जीवनशोषक गुलामी होगी यह वे जानते तो कभी काला पानी से भागने की कोशिश न करते.

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये अफसर कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?

कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है|(40)

संजय बोलेः रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले सैनिक इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये|

इस प्रकार रणभूमि के मध्य में खड़े अर्जुन की तरह हम सैनिक भी इतने वर्षों से अपने भाई इन अफसरान के लगातार शोषण, बैटमेन जैसी कुप्रथा, अलग रसोईघर अलग संडास और विरोध जताने पर कोर्टमार्शल ऐसे अनेको ना ना प्रकार के पापाचार विरुद्ध कुछ कहने से अपने आप को रोक रहे थे.

किन्तु श्री भगवान के यह वचन: हे सैनिक! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है| इसलिए हे सैनिक! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती| हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर सैनिकस्वराज्य के लिए खड़ा हो जा|

सैनिक बोलेः हे मधुसूदन! मैं इस रणभूमि में किस प्रकार से अपने जनरलों एडमिरलों और एयर चीफ मार्शल के विरुद्ध लड़ूँगा? क्योंकि हे अरिसूदन! वे सर्व ही पूजनीय हैं|(4)

हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए सैनिकस्वराज्य माँगना और न माँगना – इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथवा यह भी नहीं जानते कि उन्हे हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे और जिनको हराकर हम भी जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आत्मीय अधिकारीगण हमारे मुकाबले में खड़े हैं|(6)

इस प्रकार मृत्यु को जीतने वाले सैनिक, अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर फिर श्री गोविन्द भगवान से ‘युद्ध नहीं करूँगा’ यह स्पष्ट कहकर चुप हो गये|(9)

अन्तर्यामी श्रीकृष्ण महाराज ने दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए उस अर्जुन को, उस अदने सैनिक को हँसते हुए से यह वचन बोले|

श्री भगवान बोलेः हे सैनिक! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के जैसे वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते| (11)

असत् वस्तु की सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है| इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषों द्वारा इन दोनों का ही तत्त्व देखा गया है|(16)

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है| (22)

नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः

न चैनं क्लेयन्तयापो न शोषयति मारुतः।।23।।

इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती|

यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है| इससे हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है|

अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है| (31)

हे पार्थ! अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं|

किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा|

तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है|

और जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध में हटा हुआ मानेंगे|

तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे|उससे अधिक दुःख और क्या होगा?

या तो तू सैनिकस्वराज्य की इस जंग में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर सैनिकस्वराज्य पायेगा| इस कारण हे अर्जुन! तू सैनिकस्वराज्य के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा|

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर, उसके बाद सैनिकस्वराज्य के लिए तैयार हो जा| इस प्रकार स्वराज्य हेतु लड़ने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा|(38)

हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गयी और अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन, जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बन्धन को भलीभाँति त्याग देगा अर्थात् सर्वथा नष्ट कर डालेगा|(39)

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतूर्भूर्माते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।47।।

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उनके फलों में कभी नहीं| इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो|

सैनिकस्वराज के हेतु, सैनिक कल्याण के हेतु अपने ही देश बांधवों के अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज़ को बुलंद कर, तू युद्ध कर तू युद्ध कर….

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