क्या कभी भी हमने हमारे बीच रह रहे शहरी नक्सलियों के इन आतंकी सहायता समूहों को, इन स्लीपर सेल्स को जवाबदेह ठहराया है जो हमारी शिक्षा, मीडिया, मनोरंजन, राजनीति, कानून, न्यायपालिका में घर कर चुके हैं और उन्हें भीतर ही भीतर दीमक कि तरह खाये जा रहे हैं?
देश के लिबरल्स के रवैये को देख के इन्हें उदारवादी की जगह उधारवादी कहना हीं ठीक होगा क्योंकि उनकी उदार सोच उधार मांग के लायी गयी सोच लगती है और ये सोच सिर्फ तभी सामने आती है जब चंद दक्षिणपंथी हिन्दू इनके सोच की कसौटी पे खड़े नही उतरते।