Gender studies researchers are now focusing on how feminism as a movement has been propagated by patriarchs to oppress women and other non-binary infinite genders.
आश्चर्य है, स्त्रियों के जीवन में इतना व्यापक परिवर्तन होने के बाद भी, वामपंथ प्रायोजित नारी विषयक मुद्दे नहीं बदले, कविताएँ नहीं बदलीं और उनकी मांगें भी उसी कूप के मंडूक की तरह वहीँ कूदती रहती हैं।
Bharat has always offered women equal and at times superior opportunities, be it the archery division of army in Chanakya’s time, performing a yagna, conferring degrees like Ganini, Mahattara,etc; or mastering the 64 Kalas that was a must for a woman that included art of solving riddles, mechanics, knowledge of foreign languages, etc.
Articles are written, conferences are organised, special programs and advertisements are on television and there are celebrations on women’s day all over the world, Sounds cool, doesn’t it?
Self styled feminists eagerly wait for occasions like Navaratri and Durgostsava to slander Indic virtues. But to what extent does this criticism holds ground is a matter of question which we need to address.
विश्व के मुख्य तीन बड़े धर्म इस्लाम, क्रिश्चियनिटी और सत्य सनातन हिंदू धर्म में से हिंदू धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसमें परमेश्वर के स्त्री रूप को समान मान्यता दी गई है। भगवान शिव को कई अलग-अलग रूप में पूजा जाता है। जिनमें से एक है उनका अर्द्धनारीश्वर रूप। शिव का यह अवतार स्त्री और पुरुष की समानता दर्शाता है।
पिछले लगभग ढाई दशकों में कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री विकास या स्त्री सशक्तीकरण पर बाज़ार और उपभोक्ता संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा है, जिसके कारण उसका संघर्ष शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, निर्णय क्षमता और अधिकार, आध्यात्मिक विकास जैसे मूल विषयों से भटक कर, “मैं जो चाहूं वो करूँ” पर सिमट कर रह गया है।