अन्याय है कहीं न्याय नहीं, ब्रिटिशर्स के बोएं बीजों में फिर तिरंगा लहराओगे, खुद को राष्ट्र भक्त कहकर, भारत माँ पर अधिकार भी जमाओगे, ससहस्त्र वर्षों की श्रृंखलाओं में जय भी होगी पराजय भी, अस्तित्व सनातन का रहेगा फिर भी, पर तुम सब इतिहास बन जाओगे!!
On 5th October Delhi Cabinet Minister of Social Welfare, SC, ST and Gurudwara Election, Rajendra Pal Gautam attended a conversion event in the National capital where around 10000 people converted to Buddhism.
भारतीय इतिहास के एक ऐसे ज्योतिपुंज जिन्होंने अंधियारी सदियों को प्रकाशित किया- वे थे बाबासाहेब
भारत में जिन्होंने संतप्त और पीड़ित मानवता के कल्याण के लिए स्वयं के शरीर को चंदन की तरह घिसा है- वह थे बाबासाहेब
व्यक्ति स्वतंत्र्य और शिक्षा के द्वारा समता और न्याय प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हुए स्वर्ण की तरह जिन्होंने स्वयं को तपाया है- वे थे बाबासाहेब
वंचितों के लिए अधिकार न्याय, समता, स्वतंत्रता और शिक्षा के महान यज्ञ में समिधा बनकर स्वयं को जिन्होंने जलाया है -वे थे बाबासाहेब
हिंदू विचार जो "बहुजन हिताय" से कहीं आगे "सर्वजन हिताय" की बात करता है किंतु काल के प्रवाह में विकृति ने संस्कृति को प्रतिस्थापित कर दिया इसका परिणाम यह हुआ कि समाज व्यवस्था में विषमता का विष घुलता गया। अन्याय, अवमानना, उपेक्षा की सोच ने अपने ही समाज बंधुओं को दलित बना दिया। इस दौरान दलित समाज की चेतना कुंठित तो हुई किंतु समाप्त ना हुई। समाज ने फिनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से पुनः उत्पन्न होकर जीवन जीने का प्रयास निरंतर जारी रखा।
स्वातंत्र्य पूर्व के 30- 40 वर्ष तक भारत में चार व्यक्तित्व भारत की जनता को प्रमुखता से प्रभावित करते रहे। यह चारों ही पाश्चात्य शिक्षा से शिक्षित व्यक्तित्व थे।
From our childhood till adult we were taught that his name was B.R Ambedkar or Babasaheb Ambedkar, but why not RAMJI? Because RAMJI didn’t fit in the narrative of those so called secular historians and parties.
It is the farsighted vision of current government — dedicating the new Parliament building to the country by the 75th year of Independence in 2022 —which will nurture the atmanirbhar nation’s aspiration.
Since ancient times, people in India have had a tradition of performing their duties — even in partial disregard of their rights and privileges. Since time immemorial, an individual’s “kartavya” — the performance of one’s duties towards society, his/her country and his/her parents — was emphasised.