जी हाँ मित्रों आजकल सनातन धर्म के अनुयायियो को मलेच्छ पंथ के लोगों द्वारा उनके सर तन से जुदा करने की लगातार धमकियां दी जा रही हैं, और ये सब कुछ और नहीं अपितु एक बीमार शरीर में पनप रहे मानसिक व्याधि या विकृति या रोग का परिणाम है।
आइये इसे समझने का प्रयास करते हैं।
पृष्ठभूमि:-
हमारे घर के बगल में कुछ दुरी पर इन्ही म्लेच्छ/ विधर्मी लोगों कि बस्ती है। हमारा भी एक मित्र इन्हीं म्लेच्छ पंथ से आता था। उस मित्र का म्लेच्छ प्रजाति कि रीतियो के अनुसार विवाह हुआ, जिसमें हमें भी बुलाया गया, परन्तु हमने केवल शादी के अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और अपने घर चला आया, क्योंकि म्लेच्छ लोगों के किसी भी हर्ष के अवसर पर हम सनातन धर्म के अनुयायी खान पान के बारे में सोच भी नहीं सकते।
खैर कुछ महीनो के पश्चात हि हमारे उस मित्र के यंहा एक बच्चा पैदा हुआ। जिस दिन बच्चा पैदा हुआ, उसी दिन एक बकरे कि कुर्बानी दी गई। एक वर्ष के पश्चात जब हम उस मित्र के घर गए तो उस एक वर्ष के बच्चे के हाथ में छोटा सा चाकू था और वो उसे थाली में अधमरी अवस्था में पड़े मुर्गी कि गर्दन पर पटक रहा था, हमारे लिए तो यह स्थिति भयावह थी, अत: हम मिलकर चले आये। करीब दो वर्ष के पश्चात जब हम उस मित्र के बुलावे पर उसके घर गये तो हमने देखा कि वो दो वर्ष का बच्चा एक डोर पकड़े था जिसके दूसरे सिरे पर एक छोटा सा छिपकली का अधमरा पर जिंदा बच्चा बँधा था, वो दो वर्ष का बच्चा उस छिपकली के बच्चे को पटक पटक के खेल रहा था।
मित्रों इसके पश्चात कि स्थिति और भी भयावह थी। जब हम तीसरे वर्ष अपने मित्र के घर पहुँचे तो, उसके घर में दावत की तैयारी चल रही थी और वो तीन वर्ष का बच्चा अपने नन्हें हाथों में भरा पूरा चाकू लेकर एक छोटी सी मुर्गी के गर्दन को काटने की कोशिश कर रहा था। हमने पूछा अरे मित्र ये देख तेरा बच्चा क्या कर रहा है, तो वो मुस्कराने लगा और बड़े गर्व से बोला कि ये तो कुछ भी नहीं ” कल किसने एक छोटी सी बकरी का गर्दन भी काटा था।” अपने मित्र की बात सुनकर हम दंग रह गये और सोचने लगे की आखिर एक तीन वर्ष का बच्चा एक छोटे से बकरी के बच्चे का गर्दन कैसे काट सकता है, पर ये तो सत्य था।
खैर ४थे वर्ष में हमारे मित्र ने मजहबी ज्ञान देने के लिए एक मजहबी स्कूल में बच्चे को भेजना शुरू कर दिया और पांचवे वर्ष में वो बच्चा एक पूर्ण मजहबी बच्चे में परिवर्तित हो गया। मित्रों जब हमारा मित्र ६वे वर्ष में अपने बच्चे के साथ बाजार में मिला तो वो एक भैसे के युवा बच्चे को खरीदने की कोशिश कर रहा था। हमारे पूछने पर उसने बताया की कल अपने ६ठे जन्मदिन पर मेरा पुत्र पहली बार किसी बड़े जानवर की कुर्बानी खुद अपने हाथों से देगा। हमारे मित्र ने हमको भी आमंत्रित करते हुए कहा कि तू भी आजा अपने भतीजे को आशीर्वाद देने तेरे लिए घास फुस का अलग से इंतजाम कर दिया है।
आप लोग सोच रहे होंगे कि आखिर हम, ये सच्ची कहानी क्यों सुना रहे हैं। मित्रों ज़रा ध्यान दीजिये जो बच्चे अपने बचपन से हि क्रूरता की सारी हदों को पार करने वाले वातावरण में पलते बढ़ते रहेंगे, उनकी मानसिक स्थिति कितनी क्रूर होगी। जो बच्चे अपने बचपन से हि कभी छिपकली, कभी मुर्गी, कभी बकरी और ६ठे वर्ष तक आते आते भैंस, गाय या अन्य बड़े जानवर की गर्दन पर चाकू चलाने लगते हैं और उनके शरीर से बहते रक्त को देख कर खुश होते हैं, ऐसे बच्चे जब कट्टरता कि चासनी में डूबी हुई मजहबी ज्ञान लेकर बाहर समाज में आते हैं, तो “इंसान का सर उनके तन से जुदा करने में ज़रा भी नहीं हिचकते”, उनके लिए तो यह एक सामान्य प्रक्रिया होती है, बस उन्हें किसी बात पर गुस्सा आ जाना चाहिए, मजहबी जूनून सर पर चढ़ कर बोलना चाहिए और फिर परिणाम, उदयपुर के कन्हैयालाल या अमरावती के उमेश या फिर गुजरात के किसन भालवाड की हत्या के रूप में सामने आता है।
मित्रों उसी दौरान आपको याद होगा कि बॉलीवुड ने दो फिल्मे दी थी, एक थी “रईस” जो एक आतंकवादी,हत्यारे और कुख्यात गुंडे के जीवन पर आधारित थी और दूसरी फिल्म थी “काबिल” जो कि एक प्रेरणादायक फिल्म थी। हमने अपने मित्र से पूछा, अरे मित्र तुम अपने पुत्र को क्या बनाना चाहोगे, “काबिल या रईस”! हमारे मित्र ने बिना एक पल गवाये कहा की मेरा बेटा “रईस” बनेगा।
आइये देखते हैं ये मानसिक रोग या विकृति या व्याधि होती क्या है?
मनोविकार (Mental disorder) किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की वह स्थिति है जिसे किसी स्वस्थ व्यक्ति से तुलना करने पर ‘सामान्य’ नहीं कहा जाता। स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में मनोरोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का व्यवहार असामान्य और आमतौर पर क्रूरता से भरा होता है।
यदि कोई व्यक्ति बिना किसी विशेष कारण के डरा हुआ, भयभीत या चिंता महसूस करता है तो कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति व्यग्रता विकार (Anxiety disorder) से ग्रस्त है। व्यग्रता विकार के विभिन्न प्रकार होते हैं जिसमें चिंता की भावना विभिन्न रूपों में दिखाई देती है। इनमें से कुछ विकार किसी चीज से अत्यन्त और तर्करहित डर के कारण होते हैं और जुनूनी-बाध्यकारी विकार जहां कोई व्यक्ति बारबार एक ही बात सोचता रहता है और अपनी क्रियाओं को दोहराता है।
मित्रों आपने अक्सर हि अपने दैनिक जीवन में सामान्य प्रक्रिया युक्त जीवन जीते हुए सड़क पर कभी किसी व्यक्ति को गंदे कपड़ों में, कूड़े के आसपास पड़े अस्वच्छ भोजन को खाते या फिर अजीब तरीके से बातचीत या व्यवहार करते हुए देखा होगा। उनमें व्यक्ति, स्थान व समय के विषय में कमजोर अभिविन्यास होता है। हम अक्सर उन्हें पागल, बेसुधा आदि कह देते हैं, परंतु नैदानिक भाषा में इन्हें मनोविदलित कहते हैं।
ये मनोविकार की एक गंभीर परिस्थिति होती है, जो अशांत विचारों, मनोभावों व व्यवहार से होते हैं। मनोविदलन विकारों में असंगत मानसिकता, दोषपूर्ण अभिज्ञा, संचालक कार्यकलापों में बाधा, नीरस व अनुपयुक्त भाव होते हैं। इससे ग्रस्त व्यक्ति वास्तविकता से निर्लिप्त रहते हैं और अक्सर काल्पनिकता और भ्रांति की दुनिया में खोये रहते है।
परन्तु हम यंहा जिस प्रकार के मनोविकार के बारे में चर्चा कर रहे हैं वो है व्यक्तित्व विकार (पर्सनालिटी डिसॉर्डर) :- व्यक्तित्व विकार की जड़ें किसी व्यक्ति के शैशव काल से जुड़ीं होती हैं, जहां कुछ बच्चे लोचहीन व अशुद्व विचारधारा विकसित कर लेते हैं। ये विभिन्न व्यक्तित्व मनोविकार व्यक्ति में हानिरहित अलगाव से ले कर भावनाहीन क्रमिक हत्यारे के रूप में सामने आते हैं।
अब यंहा अमेरिका में सरेआम एक के बाद बन्दुक धारियों द्वारा कि जा रही आम लोगों की हत्याओ को भी ध्यान में रखना होगा। वंहा अक्सर हि एक युवा अकेले बंदूक लेकर निकलता है और भीड़ में ताबड़तोड़ गोलियां चलाते हुए कई मासूमों को कत्ल कर देता हैं।
व्यक्तित्व मनोविकारों की श्रेणियों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहले, समूह की विशेषता अजीब और सनकी व्यवहार है। चिंता और शक दूसरे समूह की विशेषता है और तीसरे समूह की विशेषता है नाटकीय, भावपूर्ण और अनियमित व्यवहार।
पहले समूह में व्यामोहाभ, अन्तराबन्धा, पागल (सिज़ोटाइपल) व्यक्तित्व विकार सम्मिलित हैं। दूसरे समूह में आश्रित, परिवर्जित, जुनूनी व्यक्तित्व मनोविकार बताए गए हैं। असामाजिक, सीमावर्ती, अभिनय (हिस्ट्राथमिक), आत्ममोही व्यक्तित्व विकार तीसरे समूह के अन्तर्गत आते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार मानसिक रोग:-
रजस्तमश्च् मानसौ दोषौ-तयोवकारा काम, क्रोध, लोभ, माहेष्यार्मानमद शोक चित्तोस्तो द्वेगभय हषार्दयः ।
रज और तम ये दो मानस रोग हैं । इनकी विकृति से होने वाले विकार मानस रोग कहलाते हैं ।
मानस रोग-
काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्यार्, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हषर्, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मात्सयर् और दम्भ ये मानस रोग हैं ।
१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना ‘काम’ कहलाता है ।
२. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।
३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।
४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।
५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।
६. मात्सर्य- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा क्रूरता दिखाना ‘मात्सर्य’ कहलाता है ।
७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।
८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना ‘मान’ कहलाता है ।
९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था ‘मद’ कहलाती है ।
१०. दम्भ- जो गुण, कमर् और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागरकर दूसरों को ठगना ‘दम्भ’ कहलाता है ।
११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।
१२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना ‘चिन्ता’ कहलाता है ।
१३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे ‘उद्वेग’ कहते हैं ।
१४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना ‘भय’ कहलाता है ।
१५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हषर् कहलाता है ।
१६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना ‘विषाद’ कहलाता है ।
१७. दैन्य- मन का दब जाना- अथार्त् साहस और धर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है ।
इसकी चिकित्सा:-
मित्रों ऐसा वातावरण और शिक्षा, जिसके प्रभाव के कारण एक बालक, युवा होकर एक क्रूर और निर्मम हत्यारे के रूप में समाज के सामने आता है, सदैव एक सभ्य समाज के विकास में बाधक होते हैं। इसके लिए हमें उन्हें कन्सन्ट्रेशन कैम्प में रखकर मनोवैज्ञानिको की सहायता से उन्हें उनके अंदर भरे हुए क्रूर विकारों और जुनूनी शिक्षाओं से मुक्त कराना होगा।
किसी भी प्रकार के मनोविकारों से निपटने के लिए कुछ विशेष मनश्चिकित्सा प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति की सेवा की जाती हैं। वह व्यक्ति जो मनश्चिकित्सा के क्रार्यक्रम का प्रारूप तय करता है वह प्रशिक्षित व्यक्ति होता है, जिसे नैदानिक मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक कहते हैं। जो व्यक्ति यह उपचार करवाता है उसे सेवार्थी/रोगी कहते हैं। मनश्चिकित्सा को अक्सर वार्ता उपचार कहा जाता है क्यों कि ये अंतरवैयक्तिक संपर्क द्वारा प्रदान की जाती है। इस की औषधियां केवल मनोचिकित्सक द्वारा ही दी जा सकती हैं, जो कि औषधीय चिकित्सक होना मनश्चिकित्सा की विभिन्न तकनीकें होती हैं, जो असामान्य व्यवहारों के कारण एवं विकास का वर्णन करती हैं। इनमें मनोविश्लेषण, व्यवहार चिकित्सा, संज्ञानात्मक-व्यवहार चिकित्सा, सेवार्थी केंद्रित चिकित्सा इत्यादि सम्मिलित हैं।
मनश्चिकित्सा एक रूपांकित योजना है, जो कि मनोविकारों की प्रकृति और गम्भीरता को धयान में रखकर तैयार की जाती है।
१. सौहार्द स्थापना : मनश्चिकित्सक सेवार्थियों से अच्छे और क्रियाशील संबंध निर्मित कर के उन्हें अपने सहयोग का आश्वासन देता है और इस प्रकार उनका विश्वास जितने का प्रयास करता है, क्योंकि विश्वास पनपने के पश्चात हि उचित चिकत्सा की संभावना बनती है।
२. व्यक्ति वृत्त को तैयार करना : सेवार्थी के परिवार, मित्र, समाज व जीविका के साथ सामंजस्य स्वरूप को ध्यान में रख कर विशेष विकार का व्यक्ति वृत्त तैयार किया जाता है। इस व्यक्ति वृत्त के आधार पर हि रोगी कि उचित चिकित्सा की जा सकती है।
३. समस्या पर विचार करना : व्यक्ति वृत्त तैयार करने के पश्चात् मनश्चिकित्सक कुछ ऐसी समस्याओं पर विचार करता है जिन्हें तात्कालिक देखरेख की जरूरत होती है, जिनका नैदानिक जांच एवं साक्षात्कार के अनुसार दवा देकर समाधान किया जा सकता है।
४. उपचारात्मक सत्र : समस्या की प्रकृति और गम्भीरता के अनुसार मनोचिकित्सक सेवार्थी के साथ उपचार केंद्रित सत्र की अगुवाई करता है। प्रत्येक सत्र के पश्चात हुए सुधार का निरीक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है और आवश्यक लगे तो भावी उपचार के तरीकों में बदलाव कर लिया जाता है।
५. उपचारात्मक हस्तक्षेप : यह सुनिश्चित हो जाने पर कि सत्र द्वारा वांछित परिणामों की प्राप्ति हो गई है तब मनोचिकित्सक सत्र को समाप्त कर देता है। सेवार्थी और उसके परिवार जनों को घर पर ही कुछ सुझावों को मानने की सलाह दी जाती है और जरुरत पड़नेपर सेवार्थी को मनोचिकित्सक के पास दोबारा भी बुलाया जा सकता है।
और इस प्रकार उनके अंदर बुरी तरिके से जड़े जमा चुके उन सिद्धांतो को, जो उन्हें इंसान से शैतान में परिवर्तित कर देते हैं, धीरे धीरे करके बाहर निकाल दिया जाता है।
मनोचिकित्सक उनके मनोविज्ञान को समझकर प्रयत्न करता है कि वो अपनी सोच और समझ को विध्वन्स के स्थान पर सृजन की ओर ले जाए और समाज में सभ्य इंसान बनकर जिए, ना कि गर्दन काटने वाले शैतान बनकर।
लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
[email protected]