Friday, March 29, 2024
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आरआरआर (रूधिरं, रणम, रौद्रं) समीक्षा व राजनीति

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आरआरआर देश-विदेश में कमाई के रोज़ नये कीर्तिमान स्थापित कर रही है। आरआरआर की सबसे बड़ी सफलता यह है कि उसने मार्वल को कूल समझने वाली पीढ़ी में राम को कूल बना दिया है। भारतीय सिनेमा में राजमौलि से बेहतर कोई निर्देशक नहीं हुआ। राजमौलि न सिर्फ़ तकनीकी रूप से श्रेष्ठतम हैं बल्कि दर्शकों में भी सर्वप्रिय हैं।

उन्हें आम निर्देशकों से जो बात अलग करती है वह यह है कि राजमौलि पौराणिक काल से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम तक के मौलिक इतिहास को न सिर्फ़ जानते और समझते हैं बल्कि उसपर गर्व करते हैं और उसे अपने फ़िल्मों में एक जादूगर की तरह परोस देते हैं। वे किसी विदेशी के चश्मे से भारत के इतिहास को समझने की बजाय भारतीय मूल-रचना पर अधिक विश्वास करते हैं और वे अपनी फ़िल्मों में पश्चिम के आधुनिक तकनीक का यथोचित प्रयोग करते हैं। उनकी फ़िल्मों में आपको प्राचीन और अर्वाचीन का एक अद्भुत समन्वय देखने को मिलेगा। भारतीयता को इससे अच्छे तरीक़े से शायद ही कभी किसी ने बड़े पर्दे पर दिखाया हो और ना ही भारतीय सिनेमा-जगत में विजयेंद्र प्रसाद जैसा कहानीकार हुआ है जिनकी कहानियों के मूल में भारतीयता समाहित होती है। वे अपने पात्रों का चरित्र चित्रण इतना गहरा करते हैं कि जन सामान्य को वह समझने के लिए फ़िल्म को कई बार देखना पड़ जाए और राजमौलि उन कहानियों का इतना मनमोहक चित्रण करते हैं कि दर्शक उसे बार बार देखना भी चाहते हैं।

वैसे तो आरआरआर भीम (कुमरम भीम) व राम (अल्लूरी सीताराम राजू) इन दो सच्चे नायकों की कहानी है लेकिन काल्पनिक है। आरआरआर के पात्रों का यदि वर्णन करें तो आप पाएँगे कि राम और भीम मुख्यतः दो प्रकार के क्रान्तिकारियों के प्रतीक हैं। एक प्रकार के क्रान्तिकारी वे जो असीम ऊर्जा से भरे थे और मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने को न्योछावर करने से पहले एक बार भी नहीं सोचते थे वहीं दूसरे प्रकार के क्रान्तिकारी वे जो ब्रिटिश की राजनीति को समझते थे और उन्हें उन्हीं के तरीक़ों से मात देते थे। राम का पात्र उस दूसरे प्रकार के क्रान्तिकारी पर आधारित है जिसका लक्ष्य तो भारत की स्वतंत्रता ही है लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए यदि उसे ब्रिटिश सेना में भी शामिल होना पड़े और अपने ही लोगों को बेंत मारनी पड़े तो भी वह कठोर हृदय से ऐसा करता है क्योंकि उसे अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करना था – स्वतंत्रता। इन पात्रों को निभा रहे तारक और रामचरण की जितनी प्रशंसा की जाये वह कम है। दोनों ने इतना ज़बरदस्त अभिनय/प्रदर्शन किया है कि दर्शक वाह वाह करते नहीं थकते। नाचो-नाचो गाने पर इनके द्वारा किया गया डान्स अद्वितीय है।

आरआरआर का संगीत इतना भावपूर्ण, कर्णप्रिय और रसीला है कि फ़िल्म पर चार चाँद लगा देता है। कीरवानी की धुनें दशकों से श्रोताओं का मन हर रही हैं। रामं राघवं पर इलेक्ट्रो और संस्कृत की इतनी ख़तरनाक जुगलबंदी है कि आप उसे बार बार सुनते हैं, वहीं ‘जननी’ का संगीत आपको करुणा से भर देता है। ‘शोले’ आपको उत्साह और हर्ष का अनुभव कराता है।

फ़िल्म में अजय देवगन भी एक छोटी पर महत्त्वपूर्ण भूमिका में नज़र आते हैं और वे एक मँझे हुए कलाकार की भाँति उसे पूरे गम्भीरता से निभाते हुए दिखते हैं। फ़िल्म के अंत में एक गीत आता है ‘शोले’ जिसमें विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों को शृद्धांजलि देते हुए दिखाया गया है। आलिया उसमें सुंदर दिखी हैं, रामचरण और तारक पूरे फ़िल्म में ही बहुत बढ़िया दिखे हैं और जैसे रामचरण के पात्र में विस्तार अधिक है तो वह भी अलग से निखरकर सामने आता है। ‘शोले’ गीत में भारत का ध्वज भी दिखता है जिस पर वंदेमातरम लिखा है जो हमें उस ध्वज की याद दिलाता है जिसकी रचना वीर सावरकर, श्यामजी कृष्ण वर्मा और मैडम भीकाजी काम ने की थी। कुछ लोग इस तथ्य से ही असहज हो जाते हैं कि सावरकर कैसे? इसी शृंखला में कुछ गांधीवादी रुष्ट हैं कि गाँधी जी को इस फ़िल्म में कहीं दिखाया नहीं गया या उनका कहीं कोई ज़िक्र नहीं आया। ‘शोले’ गीत और यह फ़िल्म जब सशस्त्र क्रांतिकारियों को एक शृद्धांजलि की तरह है तो ऐसे में अहिंसा-वादी बापू को जगह देना क्या तार्किक है? क्या यह प्रश्न ही तर्क की कसौटी पर खरा उतरता है?

ख़ैर उन्हें जाने दीजिए और आप लोग सपरिवार यह फ़िल्म देखने जाइये। इसलिए भी जाइये क्योंकि यह बहुत मेहनत से बनी एक बहुत ही अच्छी फ़िल्म है और इसलिए भी जाइए कि जब आप ऐसी फ़िल्मों को सफल करायेंगे तो आपको ऐसी ही और प्रेरक व मनोरंजक फ़िल्में बार बार देखने को मिलेंगी।

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