दोस्तों अभी कुछ दिनों पूर्व हि इलाहबाद ऊच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक आदेश पारित करते हुए गउ माता कि हत्या को अपराध कि श्रेणी में रखा और टिप्पणी कि कोई कैसे गउ माता को खाने के बारे में सोच सकता है। इलाहबाद ऊच्च न्यायालय ने यह माँग कि गउ माता को राष्ट्रीय जीव घोषित कर उनके सरंक्षण कि व्यवस्था कि जाए।
मित्रों सच मानो ये एक मनुष्य कि हि सोच हो सकती है जो इतने पवित्र विचारों को व्यक्त कर पाता है। गउ माता का सनातन धर्मियों के ह्र्दय में सर्वोच्च स्थान है, इसीलिए चुल्हे से निकली पहली रोटी सदैव गउ माता के लिए रखी जाती है।
भगवत पुराण के अनुसार, सागर मंथन (समुद्रमंथन) के दौरान दिव्य वैदिक गाय (गौ-माता) के निर्माण की कहानी प्रकाश में आती है। पांच दैवीय कामधेनु (वैदिक गाय जो हर इच्छा को पूरा करती है), जैसे नंदा, सुभद्रा, सुरभी, सुशीला, बहुला मंथन में से उभरी है और यहाँ से दिव्य अमृत पंचगव्य की उत्पत्ति होती है। कामधेनु या सुरभी ब्रह्मा द्वारा ली गई, दिव्य वैदिक गाय (गौ-माता) ऋषियो को दी गई, ताकि उसके दिव्य अमृत पंचगव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानों और संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए किया जा सके।
आयुर्वेद में गो मूत्र को एक औषधि के रूप में उपयोग करने कि अति प्राचिन परम्परा है जो वैज्ञानिकता कि कसौटी पर भी सर्वोच्च व सटीक साबित होती है।
महर्षि पाराशर के अनुसार ब्रह्माजी ने एक ही कुल के दो भाग कर दिए-एक भाग गाय और एक भाग ब्राह्मण। ब्राह्मणों में मन्त्र प्रतिष्ठित हैं और गायों में हविष्य प्रतिष्ठित है। अत: गायों से ही सारे यज्ञों की प्रतिष्ठा है। स्कन्दपुराण में हमारे त्रिदेव अर्थात ब्रह्मा, विष्णु व महेश के द्वारा कामधेनु की स्तुति की कुछ् इस् प्रकार की गई है-
त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणम्।
त्वं तीर्थं सर्वतीर्थानां नमस्तेऽस्तु सदानघे।।
अर्थात् हे अनघे ! तुम समस्त देवों की जननी तथा यज्ञ की कारणरूपा हो और समस्त तीर्थों की महातीर्थ हो, तुमको सदैव नमस्कार है।
हमारे सनातनीशास्त्रों, व वेदों में गौरक्षा, गौ महिमा, गौ पालन आदि के प्रसंग भी अधिकाधिक मिलते हैं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण, महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत व पवित्र देव वाणी भगवद गीता में भी गाय माता का किसी न किसी रूप में उल्लेख मिलता है। गाय, भगवान श्री कृष्ण को अतिप्रिय है। गौ पृथ्वी का प्रतीक है। गौमाता में सभी देवी-देवता विद्यमान रहते हैं। सभी वेद भी गौमाता में प्रतिष्ठित हैं। गाय से प्राप्त सभी घटकों में जैसे दूध, घी, गोबर अथवा गौमूत्र में सभी देवताओं के तत्व संग्रहित रहते हैं।
ऋग्वेद- 1:164:26 में गउ माता कि महिमा का वर्णन कुछ इस प्रकार है “अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय”। अर्थात -अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |ऋग्वेद 1:164:40 के अनुसार: “सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम| अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती” । अर्थात-अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों।
ऋग्वेद- 5:83:8 में यह प्रार्थना कि गई है कि
“म॒हान्तं॒ कोश॒मुद॑चा॒ नि षि॑ञ्च॒ स्यन्द॑न्तां कु॒ल्या विषि॑ताः पु॒रस्ता॑त्। घृ॒तेन॒ द्यावा॑पृथि॒वी व्यु॑न्धि सुप्रपा॒णं भ॑वत्व॒घ्न्याभ्यः॑ ॥८॥”।
-हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य (महान्तम्) बड़े परिमाणवाले (कोशम्) घनादिकों के कोश के समान जल से परिपूर्ण मेघ को (उत्) (अचा) ऊपर प्राप्त होता है और जिससे पृथिवी को (नि, सिञ्च) निरन्तर सींचता है और (पुरस्तात्) प्रथम (विषिताः) व्याप्त (कुल्याः) रचे गये जल के निकलने के मार्ग (स्यन्दन्ताम्) बहें और जो (घृतेन) जल से (द्यावापृथिवी) पृथिवी और अन्तरिक्ष को (वि, उन्धि) अच्छे प्रकार गीला करता है वह (अघ्न्याभ्यः) गौओं के लिये (सुप्रपाणम्) उत्तम प्रकार प्रकर्षता से पीते हैं जिसमें ऐसा जलाशय (भवतु) हो, यह जानो ॥८॥।
हमें याद है कि हमारे बचपन में हमारी मातायें बहने, गउ माता के गोबर से घर का पूरा आंगन, रसोईघर और पूजा घर लेप देती थी जिससे पूरे घर में सुगन्धित वायु और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह शुरू हो जाता था और पूरा परिवार ख़ुशी ख़ुशी अपनी दिनचर्या शुरू करता था। आज भी गांवों में महिलाएं सुबह उठकर गाय के गोबर से घर के मुख्य द्वार को लीपती हैं। माना जाता है कि इसमें लक्ष्मी का निवास होता है। प्राचीन काल में मिट्टी और गाय का गोबर शरीर पर मलकर साधु-संत भी स्नान किया करते थे। महर्षि वसिष्ठ ने गोमाता को परमात्मा का साक्षात् विग्रह जान कर उनको प्रणाम करने का मन्त्र उपदिष्ट किया जो निम्नवत है।
“यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत् स्थावरजङ्गमम्। तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम्॥” जिसका अनुवाद है कि ” जिसने समस्त चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है, उस भूत और भविष्य की जननी गौ माता को मैं मस्तक झुका कर प्रणाम करता हूं॥” गौमूत्र में गंगा जी का वास बताया गया है, तभी तो आयुर्वेद में चिकित्सा के लिए गौमूत्र पीने की सलाह दी जाती है। गाय के महत्व को दर्शाती कुछ पंक्तियाँ निम्नवत हैं।
घास-फूस खाकर करें, दूध, दही की रेज । इसी वजह से सज रही,मिष्ठानों की सेज ।।
गोबर करता है यहाँ, ईधन का भी काम । गो सेवा जिसने करी, हो गये चारो धाम ।।
वैतरणी पार करने के लिए गौ दान की प्रथा आज भी हमारे देश में मौजूद है। श्राद्ध कर्म में भी गाय के दूध की खीर का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इसी खीर से पितरों को तृप्ति मिलती है। पितर, देवता, मनुष्य सभी को शारीरिक बल गाय के दूध और घी से ही मिलता है।
इसीलिए ऋग्वेद- 8:101:15) में कहा गया है कि:-
घृतं वा यदि वा तैलं, विप्रोनाद्यान्नखस्थितम ! यमस्तदशुचि प्राह, तुल्यं गोमासभक्षण: !!
माता रूद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभि: ! प्र नु वोचं चिकितुपे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट !!
अर्थात- रूद्र ब्रह्मचारियों की माता, वसु ब्रह्मचारियों के लिए दुहिता के समान प्रिय, आदित्य ब्रह्मचारियों के लिए बहिन के समान स्नेहशील, दुग्धरूप अमृत के केन्द्र इस (अनागम) निर्दोष (अदितिम) अखंडनीया (गाम) गौ को (मा वधिष्ट) कभी मत मार। ऎसा मैं (चिकितेषु जनाय) प्रत्येक विचारशील मनुष्य के लिए (प्रनुवोचम) उपदेश करता हूँ।
ऋग्वेद-10:87:16 के अनुसार
“यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः| यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च ।”
अर्थात-मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |
गौ सेवा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों तत्वों की प्राप्ति सम्भव बताई गई है । भारतीय शास्त्रों के अनुसार गौ में तैतीस कोटि देवताओं का वास है । उसकी पीठ में ब्रह्मा, गले में विष्णु और मुख में रुद्र आदि देवताओं का निवास है । इस प्रकार सम्पूर्ण देवी-देवताओं की आराधना केवल गौ माता की सेवा से ही हो जाती है ।
गैया खाये साल में जितने का आहार। उस से सौ गुण मोल के देती है उपहार।।
गौ सेवा से ही भगवान श्री कृष्ण को भगवत, महर्षि गौतम, कपिल, च्यवन सौभरि तथा आपस्तम्ब आदि को परम सिद्धि प्राप्त हुई ।महाराजा दिलीप को रघु जैसे चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति हुई । गौसेवा से ही अहिंसा धर्म को सिद्ध कर भगवान महावीर एवं गौतम बुद्ध ने अहिंसात्मक धर्म को विश्व में फैलाया ।
हम सनातन धर्मियों में भी ये मान्यता है कि:- “होता है जिस का हृदय, दया-प्रेम का धाम |उस को देते हैं किशन, गौशाला का काम”|
सूत जी ने भी गउ सेवा को श्रेष्ठ बताते हुए अपने शिष्यों को उपदेश दिया।
“ऋषि-मुनियों ने सूत से, पूछा – क्या है श्रेष्ठ। फ़ौरन बोले सूत जी, गौ सेवा है श्रेष्ठ”।।
“कौन काम लाभार्थ है कौन काम परमार्थ, गौ-पालन लाभार्थ है, गौ-सेवा परमार्थ”||
घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः। घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे॥
घृतं मे हृदये नित्यं घृतं नाभ्यां प्रतिष्ठितम्। घृतं सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम्॥
गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च। गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्॥
अनुवाद = घी और दूध देने वाली, घी की उत्पत्ति का स्थान, घी को प्रकट करने वाली, घी की नदी तथा घी की भंवर रूप गौएं मेरे घर में सदा निवास करें। गौ का घी मेरे हृदय में सदा स्थित रहे। घी मेरी नाभि में प्रतिष्ठित हो। घी मेरे सम्पूर्ण अंगों में व्याप्त रहे और घी मेरे मन में स्थित हो। गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे भी रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में निवास करूं। उपर्युक्त मंत्र महर्षि वशिष्ठ द्वारा उपदिष्ट है जिसका वर्णन “गवोपनिषद्” में किया गया है।
गायें जहां स्वयं तपोमय हैं वहां अपनी सेवा करने वाले को भी तपोमय बना देती हैं। यज्ञ और दान का तो मुख्य स्तम्भ ही है गाय। अत: हमारे ऋषि मुनि व हमारे पूर्वज बस यही कामना करते थे कि:-” गावो ममाग्रतो नित्यं गाव: पृष्ठत एव च। गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।। अर्थात :-‘गौएं मेरे आगे रहें। गौएं मेरे पीछे रहें। गौएं मेरे चारों ओर रहें और मैं गौओं के बीच में रहूं।’
गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है-‘गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैंकड़ों धाराओं वाला है।’ पृथ्वी पर बहने वाले झरने एक समय आता है जब वे सूख जाते हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं। अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है। साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं।
गो पालीं तब ही बने, कान्हा जी गोपाल । दूध-दही से वे करें, सब को मालामाल ।।
गायों की सेवा करो, और बचाओ जान । कान्हा आगे आयेंगे,सुख की छतरी तान ।।
ऋग्वेद के ६ वें मंडल का सम्पूर्ण २८ वां सूक्त गाय की महिमा का वर्णन कर रहा है –
“आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु।” अर्थात -प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |
“भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने”। अर्थात-गाय की देख-भाल करने वाले को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है |
“न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति।” अर्थात-गाय पर शत्रु भी शस्त्र का प्रयोग न करें |
“न ता अर्वा रेनुककाटो अश्नुते न संस्कृत्रमुप यन्ति ता अभि।” अर्थात-कोइ भी गाय का वध न करे |
“गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छन्।” अर्थात-गाय बल और समृद्धि लातीं हैं |
“यूयं गावो मेदयथा।” अर्थात-गाय यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगी तो पुरुष और स्त्रियाँ भी निरोग और समृद्ध होंगे |
“मा वः स्तेन ईशत माघशंस:।” अर्थात-गाय हरी घास और शुद्ध जल क सेवन करें | वे मारी न जाएं और हमारे लिए समृद्धि लायें |
अथर्ववेद- 3:30:1/में कहा गया है कि:- “वत्सं जातमिवाघ्न्या।” अर्थात-आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |
अथर्ववेद- 6:140:2 में कहा गया है कि:-“ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम् एष वां भागो निहितो, रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च।
अर्थात-हे दंतपंक्तियों! चावल, जौ, उड़द और तिल खाओ। यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं| उन्हें मत मारो जो माता–पिता बनने की योग्यता रखते हैं|
इस प्रकार हम देखते हैं कि गउ माता का आशीर्वाद सनातन धर्मियों के पैदा होने से लेकर उनकी मृत्यु तक प्राप्त होता रहता है। हमारा देश सोने कि चिडीया कहलाता था, क्योंकि गउ माता का हमारे समाज में सर्वोच्च स्थान था। भगवान श्रीकृष्ण का तो पूरा जीवन हि गउ माता कि सेवा करते बित गया। आज भी हमारे सनातन धर्मी समाज में कन्यादान के बाद गउ दान सबसे पुण्य का कार्य माना जाता है।
ऐसे में कुछ विधर्मी और म्लेच्छ गउ माता के मांस को खाना अपना अधिकार मानते है। ऐसे लोग नरभक्षियों कि श्रेणी में आते हैं, जो गउ माता का मांस खाने को आधुनिकता का पैमाना मानते है। सरकार को निश्चित रूप से गउ माता कि हत्या को किसी इंसान कि हत्या के बराबर हि मानकर दंड का प्रावधान करना चाहिए और गउ मांस का भक्षण करने कि इच्छा रखने वाले लोगों को मानसिक सुधार गृह में डालकर चिकित्सा करनी चाहिये।
भारत में वैदिक काल से ही गाय का महत्व रहा है। आरम्भ में आदान-प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। हिन्दू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में की जाती है।
गोहत्यां ब्रह्महत्यां च करोति ह्यतिदेशिकीम्। यो हि गच्छत्यगम्यां च यः स्त्रीहत्यां करोति च ॥ २३ ॥
भिक्षुहत्यां महापापी भ्रूणहत्यां च भारते। कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥ २४ ॥ (देवीभागवतपुराणम्)
स्वामी दयानन्द सरस्वती कहते हैं कि एक गाय अपने जीवन काल में 4,10,440 मनुष्यों हेतु एक समय का भोजन जुटाती है जबकि उसके मांस से 80 मांसाहारी लोग अपना पेट भर सकते हैं गाय की रीढ़ में स्थित सूर्यकेतु नाड़ी सर्वरोगनाशक, सर्वविषनाशक होती है। सूर्यकेतु नाड़ी सूर्य के संपर्क में आने पर स्वर्ण का उत्पादन करती है। गाय के शरीर से उत्पन्न यह सोना गाय के दूध, मूत्र व गोबर में मिलता है। यह स्वर्ण दूध या मूत्र पीने से शरीर में जाता है और गोबर के माध्यम से खेतों में। कई रोगियों को स्वर्ण भस्म दिया जाता है।वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है, जबकि मनुष्य सहित सभी प्राणी ऑक्सीजन लेते और कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। पेड़-पौधे इसका ठीक उल्टा करते हैं।
पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल के दौरान राज्य में गौहत्या पर मृत्युदंड का कानून बनाया था।
गोपाष्टमी भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पर्व है। मानव–जाति की समृद्धि गौ-वंश की समृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। अत: गोपाष्टमी के पावन पर्व पर गौ-माता का पूजन-परिक्रमा कर विश्वमांगल्य की प्रार्थना करनी चाहिए। गउ माता पूज्यनीय, वन्दनीय और सम्माननीय है, उनका संरक्षण सनातन धर्म कि संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण है। अत: उनको राष्ट्रमाता घोषित कर देना चाहिए।
ज़रा सोचिए।
“जब गाय नहीं होगी तो गोपाल कहाँ होंगे, इस दुनिया में हम सब खुशहाल कहाँ होंगे।
गायों की रक्षा-सुरक्षा के लिए क़ानून लायें, सरकार किये अपने वादे को निभायें।”
और मैं तो बस यही कहता हूँ
जिन्दगी जब तक रहेगी, फुर्सत ना होगी काम से। कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो गउ नाम से!
जय हिंद ।जय गउ माता।
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)