जैसा अनुमान था बिलकुल उसी टोन से शुरुआत हुई। JNU में भुखमरी/सामन्तवाद/जातिवाद/अत्याचार/मनुवाद/ब्राह्मणवाद/संघवाद/पूंजीवाद से आज़ादी माँगी जा रही है और पुलिस मुसलमान होने के कारण एक activist को उठा ले जाती है। अब चूँकि यह एक फिक्षनल कहानी है तो आप जो मर्ज़ी दिखा लें, जिसे हीरो बनाना हो बना लें। 9 फ़रवरी 2016 में JNU में अफ़ज़ल गुरु की ही बरसी मनायी जा रही थी और भारत को तोड़ने के नारे और अफ़ज़ल हम शर्मिंदा है आदि नारे लगे थे, इस सच्चाई को बदल नहीं सकते हाँ फ़िल्म में कन्हैया कुमार बन के हम तो भुखमरी से आज़ादी माँग रहे हैं ऐसा भ्रम ज़रूर फैला सकते हैं। पहले दृश्य में भी समर प्रताप सिंह का PA पुलिस को ३ मुस्लिम लड़कों के नाम देता है और उनसे कहता है आदेश आ ही रहा होगा गोली मार दो। यहाँ समर प्रताप सिंह एक डायनेस्ट है।
लेखक ज़रा क्रियेटिव हो गया सीधे सीधे चाय वाला दिखा देते तो आलोचक कहते ये क्या सीधे BJP vs Left दिखा के लेफ्ट को क्लीन चिट दे रहे हो। फ़ौजियों को भी गाहे बगाहे ज़लील करने का भरपूर प्रयास किया है लेखक ने। एक जगह बात उठती है एक फाइटर पाइलट को रक्षा मंत्री बनाने की तो उसमें नेता कहता है तुम्हें क्या लगता है फ़ौज एक ३४ साल की औरत को सलाम ठोकेगी? दूसरी जगह जब समर के पिता एक बिगड़ैल डायनेस्ट को फौजी जैसा बता देता है क्यूँकि उसे भी फ़ौजियों की तरह सवाल करना नहीं आता। और आरक्षण पर भी वही घिसा पिटा रवैया। समर के पिता उसके सामने बैठे किसी मंत्री से कहता है तुम्हारा बाप जूते सिला करता था अगर हमने अत्याचार ना किया होता तुम्हारे ऊपर तो तुम्हें आरक्षण ना मिलता और ना तुम हमारे बराबर बैठ पाते। लेखक अपने दक़ियानूसी विचारों को एक नेता पे लाद रहा है। पुलिस छात्रों को पीट रही है। अच्छा नरेटिव है। हाँ पुलिस ने पिछले साल लाठियाँ चलायी थीं, उन्हीं छात्रों में से कुछ लोग दंगे करते पाए गए थे (लेखक और क्रियेटर समेत कास्ट न क्र्यू ये बात कभी नहीं मानेंगे क्योंकि इनकी विचारधारा ही ख़त्म हो जाएगी अगर ये अब मान लिया।
और ये लेखक कितना मासूम बन रहा है इनके लेफ्ट विंग आक्टिविस्ट्स को अपनी ख़बर छपवाने के लिए मॅगज़ीन (वेब पोर्टल) का सहारा लेना पड़ रहा है ऐसा ढोंग रच रहे हैं, वास्तविकता में इनकी एक छींक न्यू यॉर्क टाइम्स, वॉशिंग्टन पोस्ट, हफिंगटन पोस्ट, राय्टर्स, BBC आदि में छपती है। या तो लेखक बहुत ही भोला है या तो बहुत ही ज़्यादा left विचारधारा का ग़ुलाम। यदि एक बार को मान लें कि लेखक भोला है तो भी आप समझ सकते हैं कि कैसे एक विचारधारा आपको इतना अंधा बना सकती है कि आप पूरी तरह इनके सच को सच मान बैठें। मुझे इस बात से कोई आपत्ति नहीं है कि इस देश में सत्ता के विरोध में स्वर ना हों, स्वर हों अवश्य लेकिन ये मूर्ख जो सिनिमा का प्रयोग या अपनी लेखनी का प्रयोग सिर्फ़ एक विचाराधारा के विरूद्ध करके अपनी सड़ी हुई मानसिकता को प्रमोट करके एको चेंबर बनाकर उसी में लोटते रहना चाहते हैं, उन्हें फिर तीव्र आलोचना झेलने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। मुस्लिम लड़के मार दिए जाते हैं और ग़ायब हो जाते हैं। एक और मुस्लिम आक्टिविस्ट्स जो जेल में बंद है वो कहता है कि मुझे भी मार देंगे या ग़ायब कर देंगे। भारत सरकार के पास और कोई काम तो बाकी नहीं रह गया है बस मुस्लिम लड़कों को आतंकवादी बना के गोली से मरवाना है इस लेखक की जादुई दुनिया में (हाँ जादुई ना होती तो उसे बड़े डाइरेक्टर या बड़े स्टार कहाँ से मिलते)।
इनकी मानें तो कोई मुस्लिम लड़का आतंकवादी नहीं हो सकता, केरल से ISIS जाय्न करने वाला तो बिलकुल भी नहीं और बटला हाउस से भागकर ISIS जाय्न करने वाला भी नहीं। ये लोग सिर्फ़ सत्ता से सवाल पूछ रहे हैं या ज़्यादा से ज़्यादा अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं और फिर चाहे वो लड़ाई देश के विरुद्ध ही क्यों ना चली जाए। शाहरुख ने अनुपम खेर के शो में कहा था उसका मानना है कि हमारे बड़े तब हमारा साथ छोड़ देते हैं जब उन्हें लगता है अब हमारे बिना ये बच्चे रह लेंगे, कुछ ऐसा ही डाइलॉग समर भी अपने पिता को मारने के बाद कहता है।
लेखक बहुत ही मौलिक विचारों का धनी प्रतीत होता है। यहाँ लेखक ने जिस पार्टी को सत्ताधारी दिखाया है उसे डायनेस्ट पार्टी दिखाया है जो फ़िलहाल सत्ता में नहीं है ६ साल से लेकिन उनका network मीडिया और फ़िल्मों में बहुत शानदार तरीक़े से कम कर रहा है। जो काम पार्टी संगठन स्तर पर नहीं कर पा रही, सिनिमा के माध्यम से/साहित्य के माध्यम से ये चमचे ज़्यादा अच्छा कर ले रहे हैं। (लेखक खुद उसी विचाराधारा की किसी एक धारा का अनुयायी या अंधा-समर्थक है)।
लेखक कहीं ना कहीं इस डायनेस्टी पार्टी के उस समय के रवैये से बहुत ख़ुश नहीं है जब इसके तथा कथित activists अंदर गए थे हालाँकि वो कभी नहीं मानेगा कि वो आतंकवाद को शह दे रहा है। VNU के छात्र विवेकानन्द स्टैचू के सामने प्रदर्शन करते हैं। हक़ीक़त में JNU के छात्रों ने स्टैचू के विरोध में (विवेकानन्द के विरोध में ) भगवा जलेगा जैसे सम्माजनक शब्दों का प्रयोग किया था। कितना बड़ा छलावा है इन वामपन्थियों का उसी विवेकानन्द को भगवा बोल के गाली दो और फ़िल्म में विपरीत दिखा के आम भारतीय को यह विश्वास दिलाओ की ये युवा तो विवेकानन्द के अनुयायी हैं। सोचो इनकी नीयत में कितना खोट होगा कि इन्हें फ़िल्म बना कर सफ़ाई देनी पड़ रही है कि VNU के ये वामपंथी विवेकानंद को सेलब्रेट कर रहे हैं। हक़ीक़त में अफ़ज़ल की बरसी मनाने वाले किस हद तक लोगों को बेवक़ूफ़ समझते हैं।
विडम्बना देखिए जो वामपन्थी पहले एपिसोड में रो रहे थे कि उनको कोई न्यूज़ कवरेज नहीं मिल रहा तीसरे एपिसोड तक आते आते इतने महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं कि आज की २ मुख्य खबरों में आ जाते हैं।
पुलिस कहता है “अब टेररिस्ट बॉर्डर पर से ना आ रहे, इन यूनवर्सटीज़ में बन रहे” लेखक तक ये बात पहुँचे तो कह देता हूँ कि टेररिस्ट बॉर्डर पार से भी आ रहे और तुम्हारे फ़ेवरेट यूनिवर्सिटीस से भी इनकी ख़याली दुनिया में ही ऐसा होता होगा कि एक अदने से यूनिवर्सिटी यूनियन के स्टूडेंट लीडर को PM का PA ट्रेस/ट्रॅक करे ये लोग मासूम भी हैं और पल भर में ताकतवर भी। अभी तक आधी सीरीस ख़त्म हो गयी और सिवाय अजेंडा और makeup के कुछ दिख नहीं रहा। आगे के एपिसोड्स ऐसी नीरसता से चल रहे हैं बस फ़र्ज़ी का, बूझकर एक conflict डाल दो कुछ भी इधर उधर भिड़ा दो बस चलाते रहो। इसे ख़राब लेखन कहेंगे। डाइनेस्टी पार्टी उर्फ़ ग्रांड ओल्ड पार्टी पे भी सांकेतिक रूप से कुछ तंज़ कसे गए हैं।
अभिनय औसत है कहीं, कहीं औसत से ऊपर है। सैफ़ सहज हैं, डिम्पल अच्छी हैं, ज़ीशान नॅचुरल हैं (जैसे वे ट्विटर पे रहते हैं)। सुनील ग्रोवर और कुमुद मिश्रा थोड़ी जान डाल रहे अपने किरदार में।
कास्टिंग बहुत अच्छी नहीं हैं। सिनिमॅटोग्रफी औसत तो कहीं थोड़ी ऊपर है। निर्देशन ढीला है क्यूँकि कहानी ही लचक जाती है शुरू में अपना अजेंडा चलाने के बाद।