जिहादी शक्ति यदि ताड़का हैं तो मसीही पूतना। जैसे पूतना ने माता के वेष में हमारे सांस्कृतिक नायक श्रीकृष्ण के प्राण लेने का षड्यंत्र रचा था, वैसे ही देश के विभिन्न प्रांतों में स्थित चर्च एवं मिशनरीज, उनमें कार्यरत तमाम फादर्स-मदर्स-नन्स आदि सेवा की आड़ में हमारे भोले-भाले, निर्धन-वंचित वनवासियों को लुभाकर उनका धर्मांतरण करते हैं। इस कार्य में जुटे फादर्स-मदर्स को विश्व भर में प्रचारित-प्रसारित किया जाता है। उन्हें तमाम पुरस्कारों-सम्मानों से नवाजा जाता है, उन्हें ममता एवं सेवा की मूरत बताया जाता है। उन्हें चेहरा बनाया जाता है ताकि उनकी बातों-मान्यताओं की देश-दुनिया में व्यापक अपील हो, ताकि उनकी बातों पर किसी प्रकार की शंका या अविश्वास के लिए कोई स्थान ही न बचे, ताकि उनसे किसी प्रकार के प्रश्न-प्रतिप्रश्न ही न पूछे जाएँ। ममता और सेवा का ढिंढ़ोरा पीटने वाले ये लोग और मिशनरी संस्थाएँ बड़ी चालाकी से यह तथ्य छुपा जाती हैं कि इनकी आड़ में उन्होंने कितनों का धर्मांतरण किया? कितनों को उनकी सनातन-धारा से तोड़ा-काटा? जो ममता धर्म देखकर पसीजे, जिस सेवा-सहयोग से पूर्व मतांतरण का दुराग्रह रखा जाय, छल-बल-प्रलोभन का सहारा लिया जाय, क्या उसे निःस्वार्थ सेवा या निश्छल-निष्कलुष ममता का नाम दिया जा सकता है?
इन मिशनरीज ने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक- संपूर्ण भारतवर्ष में धर्मांतरण का यह धंधा चला रखा है। पहले सौ वर्षों में उन्होंने अफ़्रीकन देशों को धर्मांतरित किया और बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दी उन्होंने एशियाई देशों मुख्यतया भारत के अलग-अलग मतावलंबियों को ईसाई धर्म में धर्मांतरित करने के लिए निर्धारित कर रखा है। स्वातंत्रत्योत्तर-भारत के हिंदू-समाज की धर्म विषयक अतिरिक्त उदारता या अतिशय उदासीनता के कारण धर्मांतरण के इस धंधे में उन्हें ख़ूब सफलता भी मिली। स्वतंत्रता-पूर्व के दिनों में वे जानते थे कि धर्म पर प्राण न्योछावर करने वाले हिंदू मरना स्वीकार करेंगें, पर अपना धर्म, अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति नहीं छोड़ेंगे। इसलिए वे शिक्षा, सेवा, चिकित्सा की आड़ में वेष बदलकर आए और उन्हें लुभाया जो निर्धन, वंचित, साधनहीन और अभावग्रस्त थे। उन्होंने मधुवेष्टित तरीके से धीरे-धीरे उनके मन में विभाजन के विष-बीज बोए। विष-बीज बोने का उनका यह मधुवेष्टित-कार्य आज भी निर्बाध ज़ारी है। मोदी सरकार ने जिन चार हजार से भी अधिक एनजीओज को प्रतिबंधित किया है, उनमें से कई धर्मांतरण के इस धंधे में मिशनरीज के बराबर के हिस्सेदार थे। यों ही नहीं मोदी सरकार का नाम सुनते ही उनके पेट में मरोड़ने आने लगती हैं, उनका दिमाग़ बजबजाने लगता है, ज़ुबान कड़वी हो जाती है। और जिन लोगों को लगता है कि मोदी सरकार ने क्या किया उन्हें इन मसीही संस्थाओं से संबद्ध लोगों से एक बार मिलना चाहिए? उनके धर्मांतरण और देश-विरोधी कार्यों का इतिहास खंगालना चाहिए।
बड़ी आयोजना और धूर्त्तता से चर्च और पश्चिम प्रेरित एनजीओज द्वारा भोले-भाले गरीबों-वंचितों-वनवासियों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर सेवा-शिक्षा-चिकित्सा की आड़ लेकर हिंदू धर्म से ईसाई पंथ में मतांतरित किया जाता है। इस मतांतरण के लिए ईसाई मान्यता वाले देशों एवं वैश्विक स्तर की मसीही संस्थाओं द्वारा पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। नव मतांतरित व्यक्तियों-समूहों के समक्ष अपने नए संप्रदाय यानी ईसाई धर्म के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने का सदैव अतिरिक्त दबाव बना रहता है। यह दबाव उन्हें कट्टर और आक्रामक बनाता है। हिंदू मतों-मान्यताओं, हिंदू संस्थाओं या साधु-संतों पर किया गया हमला उन्हें वहाँ न केवल स्थापित करता है, अपितु नायक जैसी हैसियत प्रदान करता है। सच तो यह है कि इनका केवल धर्मांतरण ही नहीं, अपितु राष्ट्रांतरण हो जाता है। इन वंचितों-वनवासियों, सेवा-बस्तियों आदि के बीच मतांतरण को बढ़ावा देने वाली मसीही संस्थाएँ इस प्रकार के साहित्य वितरित करती हैं, इस प्रकार के विमर्श चलाती हैं कि धीरे-धीरे उनमें अपने ही पुरखे, अपनी ही परंपराओं, अपने ही जीवन-मूल्यों, अपने ही विश्वासों के प्रति घृणा की भावना पुष्ट होती चली जाती है। उन्हें पारंपरिक प्रतीकों, पारंपरिक पहचानों, यहाँ तक कि अपने अस्तित्व तक से घृणा हो जाती है।
उन्हें यह यक़ीन दिलाया जाता है कि उनकी वर्तमान दुरावस्था और उनके जीवन की सभी समस्याओं के लिए उनकी आस्था, उनकी परंपरा, उनकी पूजा-पद्धत्ति, उनका पुराना धर्म, उनके भगवान जिम्मेदार हैं। और उन सबका समूल नाश ही उनके अभ्युत्थान का एकमात्र उपाय है। उन्हें उनकी वर्तमान दुरावस्थाओं से उनका नया ईश्वर, उनकी नई पूजा पद्धत्ति ही उबार सकती है। उन्हें यह समझाया जाता है कि जिस ग़लत ईश्वर कि वे अब तक पूजा करते आए थे- उसका विरोध उनका नैतिक-धार्मिक उत्तरदायित्व है। यह उन्हें उनके नए ईश्वर का कृपा-पात्र बनाएगा। इस प्रकार कभी सेवा, कभी शिक्षा, कभी चिकित्सा, कभी साहित्य तो कभी आर्य-अनार्य के कल्पित ऐतिहासिक सिद्धांतों के माध्यम से नव मतांतरितों के रक्त-मज्जा तक में इतना विष उतार दिया जाता है कि सनातन परंपराओं के प्रतीक और पहचान भगवा तक से उन्हें आत्यंतिक घृणा हो जाती है। यह घृणा कई बार इस सीमा तक बढ़ जाती है कि वे हिंदू साधु-संतों और उनके सहयोगियों पर प्राणघातक हमले तक कर बैठते हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि मैकॉले प्रणीत शिक्षा के सह-उत्पाद, औपनिवेशिक मानसिकता के गुलाम और पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण का पर्याय मान बैठे अँग्रेजीदा लोगों की देखा-देखी आज बहुत-से आम जन भी क्रिसमस को पारंपरिक उत्सव की तरह मनाने लगे हैं, क्रिसमस ट्री लगाने लगे हैं और सपने में सेंटा-क्लॉज़ के उपहार लेकर आने का स्वप्न सँजोने लगे हैं। आश्चर्य है कि जिन तथाकथित आधुनिक-आधुनिकाओं को शिवलिंग पर दूध-जल चढ़ाना दूध और जल की अनावश्यक बर्बादी लगती है, पेड़-पौधों की पूजा-अर्चना कोरा अंधविश्वास लगता है, भगवान के अवतरण की कथा कपोल कल्पना लगती है, उन्हें सेंटा का चॉकलेट और उपहार लेकर बच्चों के सपनों में आना बड़ा तार्किक, वैज्ञानिक और प्रगतिशील लगता है। और बाज़ार ने ऐसी सोच को और बढ़ावा दिया है। बाज़ार आज सभी तीज-त्योहारों-परंपराओं पर हावी है। बाज़ार की सहायता से क्रिसमस और न्यू ईयर को भारत में भी एक महोत्सव की तरह प्रस्तुत-प्रचारित-आयोजित किया जाता है। जबकि भारत की परंपरा व संस्कृति से इनका कोई सरोकार नहीं रहा है।
प्रणय कुमार