दक्षिण एशिया के गौरवशाली इतिहास को देखते हुए, LGBTQ+ पहचान के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण के बीच एक असंगति देखी जाती है। LGBTQ+ समुदाय और उनके सदस्यों को की स्वीकृति हजारों वर्षों से मुख्य धार्मिक शास्त्रों में पाई जाती है। ‘धर्मशास्त्र’ – जैसे कि ‘मनु स्मृति’ – और ‘काम सूत्र’ में विभिन्न लिंगों के लोगों का अस्तित्व और एक ही लिंग के सदस्यों के बीच संबंधों अभिलेखित हैं।लिंग और समान यौन संबंधों के लिए संस्कृत शब्दकोश में 70 विभिन्न शब्द हैं। इतिहास शास्त्रों के महाभारत में, हमें ऐसी कहानियाँ मिलती है, जैसे की, योद्धा शिखंडी के लिंग का परिवर्तन, और राजकुमार अर्जुन का पारलैंगिक रूप – बृहन्नला| ‘वाल्मीकि रामायण’ में पांडवों और कौरवों के पूर्वज इला के लिंग की तरलता, और पुरुष देवताओं, मित्र-वरुण से ऋषि वसिष्ठ के जन्म की कहानी बताई गई है। पुराणों में, विष्णु के महिला अवतार, मोहिनी, जैसी विभिन्न कहानियां, लिंग और लैंगिकता पर ऋषियों के मत का प्रदर्शन करती हैं।
परन्तु, हम LGBT व्यक्तियों के अधिकारों के संबंध में वैदिक धर्म के मूल की स्थिति – इसके दर्शन शास्त्र – का विश्लेषण करें।
- क्या वैदिक दर्शन शास्त्रों की अवधारणाएँ LGBTQ + पहचान के अस्तित्व के लिए एक स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर सकती हैं?
- क्या ये दर्शन इस समुदाय के प्रति भेदभाव के निष्कासन में सहायता कर सकते हैं?
- इन व्यक्तियों के जीवन कैसे धर्म और संस्कृति के अनुकूल हो सकते है?
1. वैदिक तत्त्वज्ञान और LGBTQ+ पहचान
“नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः । यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥ 5.10॥” आत्मा न स्त्री, न पुरुष, और नहीं नपुंसक है | वः जो भी शरीर में निवास करता है, वही उसकी पहचान बन जाता है।
हम अपने अहंकार, शरीर, मन और बुद्धि से अपनी पहचान निर्धारित करते हैं, लेकिन उपनिषदों के अनुसार, यह हम नहीं हैं। वे हमें सिखाते हैं कि, जबकि अहंकार, शरीर, मन और बुद्धि हमारी आभासी और क्षणिक पहचान है, बल्कि, हमारी सत्य पहचान तो स्वयं आत्मा ही है, चेतना है, जो पहचान से भी मुक्त है और सभी का साक्षी है।वे ऐसा प्रस्तुत करते हैं कि आत्मा – एक व्यक्ति का अपरिवर्तनीय स्वरूप है – सभी प्राणियों के शरीरों में निवास करता है और सभी विशेषताओं (नाम) और रूपों से मुक्त है।ब्रह्म वह परम सत्य है जो अस्तित्व का आधार है, और आत्मन सभी प्राणियों में स्थित, ब्रह्म का रूप है।’अयम् आत्मा ब्रह्म’- माण्डूक्य उपनिषद (1.2)।आत्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है।आत्म लिंग और लैंगिकता की धारणाओं से परे है।ये शरीर और मन के विषय हैं।
आज की तारीख में, विज्ञान की दृष्टि से, वैकल्पिक लैंगिकता और शारीरिक-मानसिक लिंग भेद के अनेक कारणों प्रतुत किये हुए है। आज के चिकित्सा शास्त्र के अनुसार, जन्मजात लिंग और मानसिक लिंग के अंतर के लिए, पर्याप्त प्रमाण नहीं है। समलैंगिकता और उभयलैंगिकता सहित लैंगिकता के रंगावली पर अध्ययन, कई आनुवंशिक कारकों के बीच एक आंशिक कड़ी प्रदर्शित करती है, जन्म के पूर्व कारक जैसे कि गर्भ में विशेष रसायन (chemicals) और क्रमिक पुरुष संतान में जन्म का क्रम।परन्तु, ये कारक केवल एक तिहाई कारण के बारे में बताते हैं।मस्तिष्क में यौन आकर्षण के लिए जिम्मेदार क्षेत्रों में कौन से आनुवंशिक या प्रसवपूर्व कारक प्रभावित होते हैं? शोध अस्पष्ट है। यह उचित नहीं है कि लैंगिकता या लिंग पहचान एक ‘विकल्प’ है, क्योंकि जन्म के बाद पर्यावरणीय प्रभाव लैंगिकता या लिंग पहचान को प्रभावित नहीं करते हैं।
न जायते म्रियते वा कदाचि न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।- भगवद् गीता (२.२०)
आत्मा न तो जन्म लेती है, न कभी मरती है; वह अस्तित्व में नहीं आया है, अस्तित्व में नहीं आता है, और अस्तित्व में नहीं आएगा। आत्मा अजन्म , शाश्वत, अमर और अचल है। शरीर के नष्ट होने पर यह नष्ट नहीं होता है।
ऐसी परिस्थिति में, वैदिक तत्त्वज्ञान द्वारा प्रस्तुत पुनर्जन्म का सिद्धांत, विभिन्न प्रकार के लिंग और यौन पहचानो के उद्भव के लिए एक स्पष्टीकरण प्रदान कर सकता है। व्यक्ति के आनेवाले जन्मा में, जन्मा जन्मांतर के संचित की हुई वासनाओ, इच्छाओ, और विशेषताएं व्यक्त होती है। परिणामतः, समाज में लिंग और लैंगिकता की रंगावली देखने को मिलती है।
हमारा मनोवैज्ञानिक ढांचा, जिसे अक्सर जन्म से देखा जाता है, को संस्कारों के माध्यम से समझाया जा सकता है जो हमने कई जन्मों में प्राप्त किए हैं। मन ज्ञ (सचेत अवस्था) और अज्ञ (अवचेतन अवस्था) से बना है; पिछले जन्मा के छाप, अज्ञ मन के गहराई में अंतर्निहित हैं, और भविष्य के किसी भी जीवन में प्रकट हो सकते हैं।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: । गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।। (भगवद गीता १५. ८)
चूँकि हवा एक जगह से दूसरी जगह तक सुगंध ले जाती है, ऐसे ही, वहीँ आत्मा मन और इन्द्रियों को अपने साथ ले जाता है, जब वह एक पुराने शरीर को छोड़ कर एक नए में प्रवेश करता है।
लैंगिकता पूर्वजन्म से प्राप्त एक वासना हो सकती है, जो अगले जन्म में प्रकट हुई है। कई जन्मों में, एक निश्चित लिंग के लोगों के साथ बहुत समीप का संबंध बन सकते हैं। इस तरह के सम्बन्धो के बल के प्रभाव से, दूसरे जन्म में समान लिंग या दोनों लिंगों के प्रति यौन आकर्षण हो सकता है। यह समलैंगिकता और उभयलिंगी के विषय की उलझन का अंतिम उत्तर हो सकता है |
इसी तरह, पारलैंगिक, लिंग की तरलता को अनुभव करते लोगो, नपुंसक, इत्यादि व्यक्तिओ की पहचान को समझाया जा सकता है। कई जन्मो में, लिंग बदल सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई कई जन्मो तक स्त्री का रूप धारण करता है, तो वह अचानक पुरुष के रूप में जन्म ले सकता है, जिसके परिणामस्वरूप परलैंगिकता या लिंग की तरलता का अनुभव होता है।
2. भेदभाव का सामना करना
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ईशावास्य उपनिषद् – ६ ॥
वह जो सभी प्राणियों को स्वयं में देखता है, और सभी प्राणियों में स्वयं को देखता है, वह किसी से भी द्वेष नहीं करता|
जैसा कि हम पहले ही स्थापित कर चुके हैं, एक भीतरी देवत्व की अवधारणा – आत्मा जो सभी प्राणियों में है, विभिन्न लिंग और लैंगिकता के लोगों के बीच समानता लाने के लिए एक समाधान है। एक अंतर्निहित एकता का सिद्धांत हमें हमारी आम एकता को देखने में सक्षम कर सकता है, और हमारी बाहरी विशेषताओं को क्षणिक के रूप में अनुभव करा सकता है। उसके साथ, हम अपनी विविधता का सम्मान कर सकते हैं, जैसा कि हम समझते हैं कि वे हमारे पूर्व जन्मों से आयी हैं। सबसे पहले, लैंगिकता और लिंग के रंगावली विषयक शिक्षा आवश्यक है। यह समझाना महत्वपूर्ण है, कि हम से भिन्न लोगो का अस्तित्व हैं।
दूसरा, हमें दृढ़ता से यह स्थापित करना चाहिए कि इस भिन्नता के बावजूद, हम मूलरूप से एक हैं। एक आतंरिक देवत्व की अवधारणा सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त कर सकती है।
3. लैंगिकता और धर्म का समन्वय
भारतीय संस्कृति परिवार, वंश, परंपराओं और विवाह को अधिक मूल्य देता है। समलैंगिकता और उभयलिंगीपन ‘धर्म’ के बारे में सवाल उठाते हैं। हमारा परिवार और समाज के प्रति कर्तव्य क्या है? विवाह संस्था, मानव संख्या और वंश वृद्धि के लिए है, जिससे परम्पराए जारी रहती है । विवाह से स्त्री और पुरुष की भूमिकाए और कर्तव्यों, गृहस्थ जीवन में निर्धारित होती है। समलैंगिक संबंध सांस्कृतिक जीवन को एक नया और अपरिचित मोड़ देती है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् | स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह: ||भगवद् गीता 3. 35।।
किसी दूसरे के उत्तम स्वाभाविक धर्म के निर्वाह से उचित है, की मनुष्य अपना दोषपूर्ण धर्म को अपनाएं। अपने धर्म के निर्वाह से मृत्यु को प्राप्त करना उत्तम है, क्यूंकि दूसरे का धर्म भय से परिपूर्ण है ।
‘धर्म’ शब्द किसी की आंतरिक प्रकृति या लक्षण का संकेत दे सकता है। यहां, यदि किसी का स्वभाव किसी विशेष लैंगिकता या लिंग का है, तो किसी को उसके अनुसार कार्य करने की सलाह दी जाती है। अपने आप को एक और लिंग या लैंगिक पहचान के लिए विवश होना – रूपांतरण चिकित्सा, अंधविश्वासों और बलपूर्वक विवाह के माध्यम से – केवल मानसिक स्वास्थ्य का अधपतन, पारिवारिक पतन और आत्महत्याओं के रूप में विनाश लाएगा।
समलैंगिक व्यवहार को प्रायः आत्यंतिक कामुक और कामातुर की दृष्टि से देखा जाता है। क्या इस समुदाय के उद्धार और सामाजिक जीवन में इसके एकीकरण के लिए वेदों के आदर्शों को लागू नहीं किया जा सकता है?
गृभणामिते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः| (ऋग्वेद, 10.85.36)
महान भाग्य के लिए, मैं वृद्धावस्था तक आपके हाथ को स्वीकार करता हूं।
समलैंगिक विवाह और गोद लेना या ‘किराए की कोख’, पारिवारिक और सामाजिक संस्थाओ के लिए एक समाधान प्रस्तुत करते हैं।
सं जास्पत्यंसुयममस्तु देवाः || (ऋग्वेद, 10.85.23)
संयम और बाल पालन के साथ वैवाहिक जीवन होना चाहिए
संसाधनों के उत्तम वितरण के लिए लैंगिकता को प्रकृति का जनसंख्या का नियंत्रण के रूप में देखा जा सकता है। गोद लेना को ‘दान’ का एक रूप माना जा सकता है, जो कई अनाथ बच्चों के जीवन को लाभान्वित कर सकता है। किराए की कोख के जरिए बच्चे का पालन पोषण भी हो सकता है। कदाचित आज मित्रा-वरुण के आदर्श समलैंगीक सम्बन्धो ग्रहण कर सकते है!