Friday, April 26, 2024
HomeHindiसार्वजनिक संपत्ति के प्रति विमुखता क्यों ?

सार्वजनिक संपत्ति के प्रति विमुखता क्यों ?

Also Read

धन-संपत्ति, प्रतिष्ठा किसे प्रिय नही होती है। लेकिन धन संपत्ति और प्रतिष्ठा का मजा तब ही है जब इनपर आधिकार हो या इनके प्रति अपनत्व का भाव हो। दूसरों की संपत्ति और समृद्धि से लोगो मे ईर्ष्या पैदा होती है। अगर संपत्ति आप के दुश्मन की हो तो पूछना ही क्या। ऐसी संपत्ति को लोग फूटी आँखो देखना पसंद नही करते और मौका मिलते है उसको नुकसान पहुँचाना तो एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है, जिसे मानव अपने उत्पत्ति के समय से ही अर्जित करते आ रहा है जोकि उसे अपने आप को जीवन संघर्ष में बनाए रखने के लिए ज़रूरी था।

ये कोई नई बात नही है। यह सर्वविदित है कि शक्तिशाली ही सदैव से शासक रहा है और शोषक का पर्यायवाची रहा है। लेकिन बहुत कम लोग को संज्ञानात्मक रूप से इस बात का ज्ञान होता है कि शासित सदैव से कमजोर रहा है और शोषित का पर्यायवाची रहा है।

इस तरह से अचेतन रूप से हम सब को पता होता है कि शक्तिशाली ही शासक और शोषक होता है जबकि कमजोर शासित और शोषित होता है। इसी वजह से शक्तिशाली समूह अपना प्रभुत्व कायम रखने के लिए दूसरे कमजोर समूहों को दबाते है। ठीक उसी तरह कमजोर वर्ग शक्तिशाली समूह को किसी तरह से नीचे लाना चाहता है ताकि वो उनपर हावी ना हो सके। कहीं न कहीं इन्ही सब के बीच में ही भारत मे सार्वजनिक संपत्ति के प्रति लोगो की लापरवाही का कारण भी छुपा हुआ है।

शक्ति के प्रतीक और मानदंड समय के साथ साथ बदलते रहते है। पूर्व में बाहुबल, धार्मिक सत्ता, ज्ञान आदि शक्ति के प्रतीक और मानदंड थे, परंतु वर्तमान में धन-संपदा ही शक्ति के प्रतीक और मानदंड के रूप में स्थापित है, क्योंकि आज के युग मे कुछ भी प्राप्त किया सकता है।

आप को लग रहा होगा कि इन सब बातों का लोगो के सार्वजनिक संपत्ति के प्रति लापरवाही और विमुखता से क्या संबंध हैं। लेकिन मैं आप को आश्वस्त करना चाहूँगा कि समस्या की जड़ यहीं से शुरू होती है। अब मैं पुनः विषय पर लौटता हूँ।

सार्वजनिक सम्पत्ती से आशय उन साधनों से है जिसका उपभोग सभी जनमानस बिना किसी भेदभाव के समान रूप से करते है और सार्वजनिक संपत्ति का निर्माण आमजनों के धन-सहयोग से ही होता है।

विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे विकासशील देश मे सार्वजनिक सार्वजनिक संपत्तियों के प्रति विमुखता और लापरवाही का स्तर ज्यादा है। इसके बहुत से सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, व्यावहारिक, कारण है, जिन्हें हम वर्तमान में देख पाते है लेकिन इसकी वास्तविक जड़ें साम्राज्यवादी शासन के दौर से जुड़ी हुई है। ब्रिटिश शासन के दो सौ वर्षों के शासन के दौरान, सत्ता और सरकार शोषण का पर्यायवाची बन चुका था। ब्रिटिशो के दमनकारी और तथाकथित लोकतांत्रिक शासन के दौरान भारतीय जनमानस पर सरकार की जो छवि बनी कमोबेश आज भी वैसे ही है। जिस तरह पूर्व में सरकार को जनता का शोषक माना जाता था वैसे ही वर्तमान में लोकतांत्रिक सरकारों को जनता का अर्थ चूषक ही माना जाता है। आजादी के 70 साल बाद भी भारतीय शासक वर्ग और सरकारें अपने लोगो के मन-मस्तिष्क से सरकार की पुरानी छवि नही उतार पाई

सरकार की छवि धूमिल होने की नींव, आजादी मिलने के कुछ वर्ष पूर्व ही पड़नी शुरू हो गई थी। हुआ यूं कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने लोगो के सामने आजादी का जो स्वरूप प्रस्तुत किया था वो भिन्न-भिन्न था। आजादी को लोगो ने रामराज्य के रूप में अपने मन-मस्तिष्क में प्रतिष्ठित किया था। लेकिन आजादी जो विभत्स रूप धारण करके आई, उसने लोगो के अंतर्मन पर बहुत आघात किया। आजादी के बाद जिस तरह के राष्ट्रीय चेतना का विकास होना चाहिए था वो नही हो पाया, क्योंकि देश का एक तबका इस आजादी से शायद खुद को जोड़ नही पा रहा था। कुछ अन्य वर्ग भी थे जो आजादी के इस स्वरूप से संतुष्ट नही थे। इस नई बनी देशी सरकार और सत्ता को अंग्रेजो का स्थानापन्न मात्र माना गया और छिटपुट विरोध और विद्रोह के स्वर भी उठे। आगामी वर्षो में असफल होती सरकारी नीतियों और और लगभग उसी तरह की सरकारी कार्यशैली ने लोगो के इस विश्वास को और पुख्ता किया।

कुल मिलाकर जनता खुद को सरकार से नही जोड़ पाई या फिर यों कहें कि सरकार जनता को खुद से जोड़ पाने में असफल रही। इस भेद के कारण ही जनता और सरकार के बीच की दूरी बढ़ती रही और परिणामस्वरूप सरकार को जनता से एकदम अलग-थलग माना जाने लगा।

इसी बीच लोगो ने एक बहुत ही विकट अवधारणा बनानी शुरू कर दी कि राष्ट्र निर्माण का सारा दायित्व केवल सरकार का है। लोगो का मानना था कि यदि ब्रिटिश सरकार हमारी सारी परेशानियों का कारण हो सकती है तो हमारी खुद की बनाई सरकार इन सब परेशानियों का निवारण क्यों नही हो सकती है। यह अवधारणा बहुत ही घातक सिद्ध हुई। इस तरह से जो लोग सरकार में विश्वास रखते थे और जो सरकार लोग सरकार में में विश्वास नही रखते थे; दोनो ही सरकार से दूर होते चले गए।

लोगो को पता होना चाहिए कि सृजन में सालो साल लग जाते है और विध्वंस में छण भर भी नही लगता। आजादी के बाद राष्ट्र सृजन के पथ पर चल रहा था, जिसमे सभी के सहयोग और समय की आवश्यकता थी। जनसहयोग के पहलू को जब सरकार ने ही नज़रअंदाज कर दिया तो जनता से क्या आशा की जा सकती थी। विकास के औद्योगिक मॉडल का चुनाव उस समय की एक बहुत बड़ी भूल थी। जब लोग भूखे मर रहे हो, धनोपार्जन के लिए कोई साधन न हो, जनता बेकारी का शिकार हो उस समय इंसानो पर मशीनों को तहरीज देना सभी दृष्टिकोणों से गलत था।

इस तरह सरकार और जनता; दोनो ने ही अपने दायित्वों न ही समझा और जिन दायित्वों का भान था, उसका भी सही तरीके से निर्वाह नही कर पाए। दायित्वों के उचित निर्धारण और निष्पादन के आभाव में लक्ष्य और वादे पूरे नही हो पा रहे थे, जिसके कारण धीरे-धीरे असंतोष बढ़ने लगा।

कालांतर में इसी असंतोष के कारण ही बहुत सारी सरकारें गिरती बनती रहीं लेकिन लोगो की अपेक्षाओं पर कोई खरी नही उतरी। लंबे समय तक एक दल विशेष पर लोगो का विश्वास अनायास ही बना रहा। इसका कारण उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में किसी सशक्त विपक्ष का न होना भी हो सकता है। यह बात भी एक तरह से आत्मघाती ही सिद्ध हुई। बिना ज्यादा प्रयास और सशक्त विपक्ष के आभाव में आसानी से शासन मिलते रहने से शासक वर्ग में एक आत्ममुग्धता का भाव उत्पन्न हो गया। इस आत्ममुग्धता के कारण सरकार थोड़ी असावधान और लापरवाह हो गई, जिसके परिणामस्वरूप विकास का पूरा चक्र ढुलमुल गति से चलने लगा।

इसका दुष्प्रभाव पूरे सरकारी तंत्र में फैल गया। योजनाओं में बंदर-बाँट शुरू हो गया। जो एक बार राजनीतिक प्रतिनिधि चुन लिया जाता उसकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति आश्चर्यजनक रूप से ऊपर उठ जाती थी। लोगो को भी इस घालमेल का भान होने लगा था। इन बातों ने सरकार और पूरी सरकारी व्यवस्था की साख पर बट्टा लगाने का काम किया। राजनीति समाजसेवा से व्यवसाय का रूप ले चुकी थी।

इस तरह सरकार लोगो की होते हुए भी लोगो की नही रही। लोगो ने अपने आप को सरकारी तंत्र से पूरी तरह से अलग कर लिया। लोग सरकार के प्रति उदासीन हो गए। लोगो मे अपने अधिकारों के प्रति अचेतना होने के कारण सरकार और उसका तंत्र निरंकुश होकर जवाबदेही से लगभग मुक्त-सा हो गया था।

आम लोगो मे यह मनोभावना बलवती होने लगी की सरकार और उसका पूरा तंत्र भ्रष्ट और चोर है। इसीलिए चोर की गठरी पर हाथ साफ करने किसी भी तरह से गलत नहीं है। इसी कारण लोग सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने या चोरी करने के पश्चात भी किसी तरह का अपराध बोध महसूस नहीं करते और न ही इसे नैतिक रूप से गलत मानते है। आज यह स्थिति इतनी विकराल हो गई है कि नैतिक और अनैतिक आचरण के बीच की रेखा बहुत धूमिल हो गई है। इसीलिए आज हम देखते है कि लोगो में सार्वजनिक संपत्ति के प्रति लापरवाही और उदासीनता बहुत ज्यादा बढ़ गई है।

जनता अपने हर गलत आचरण को सही ठहराने के लिए इसका ठीकरा सरकार पर फोड़ती है और सरकार अपनी कमियों को छुपाने के लिए जनता, जागरूकता और जनधन की कमी पर ठीकरा फोड़ती है।

आज हमें ज़रूरत है कि दूसरे की आँख का तिनका देखने की बजाए अपनी आँखो में पड़े लट्ठ को देखे। तभी हम एक आदर्श देश और समाज का निर्माण कर पाएंगे जो सभी प्रकार से सम्पन्न हो।

  Support Us  

OpIndia is not rich like the mainstream media. Even a small contribution by you will help us keep running. Consider making a voluntary payment.

Trending now

- Advertisement -

Latest News

Recently Popular