डिसक्लेमर: इस लेख में न तो किसी सरकार पर आरोप लगाए गए हैं और न ही किसी सरकार या राजनैतिक दल की प्रशंसा के सेतु बांधे गए हैं। यह लेख पूर्ण रूपेण उन मजदूर भाइयों और बहनों को समर्पित है जो निरंतर चल रहे हैं, सड़कों पर। जिनके कंधे पर अनाज और कपड़ों का बोझ है और मन में अपने घर जीवित पहुंचने की आशाएं। यह लेख समर्पित है उन मांओं को जो तलवों में छालों की पीड़ा लिए अपनी संतान को ममता की छाँव में समेटे हुए सैकड़ों किमी की दूरी ऐसे ही नाप रही हैं जैसे हम भोजन करने के बाद अपने कमरे में टहल लेते हैं। यह लेख समर्पित है उन बच्चों को जिन्होंने अपने मजदूर माता-पिता के कंधे पर बैठकर, पैदल चलकर, भूख में बिलखकर पूरा भारत देख लिया। यह लेख समर्पित है हमारी निष्ठुरता को, मध्यम और उच्च वर्ग की उन आकाँक्षाओं को जिनकी आंधी में ये हमारे मजदूर और कामगार भाई-बहन अकेले रह गए। ये लेख पढ़िए और विचार करिए कि हमने ऐसा अपराध क्यों किया और इस अपराध का दंड क्या है?
पूरा भारत कोरोना वायरस के संकट से जूझ रहा है। लगभग दो महीने होने को आ रहे हैं और पूरा भारत बंद है। कार्यालय अपनी पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पा रहे हैं। उद्योग उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। हजारों किमी की दूरी को घंटों और मिनटों में नाप देने वाली रेल और वायु में अठखेलियां करने वाले विमान पार्किंग शेड्स में चुपचाप खड़े हुए हैं। लोग अपने घरों में कैद हैं। सिनेमा देखना बंद है, पार्टी करना बंद है, दोस्तों के साथ लॉन्ग ड्राइव पर जाना भी बंद है। बच्चों के पार्क बंद हैं, म्यूजियम बंद हैं, महिलाओं के फ्रेंड्स क्लब भी हैं। चालू है तो मात्र मजदूरों का पलायन। उन्ही मजदूरों का पलायन जो रोजगार की खोज में अपने गाँव छोड़कर शहर आ गए थे। इन सब ने एक ऐसे जीवन का स्वप्न देखा था जहाँ दो जून का भोजन मिल सके और परिवार को एक बेहतर जीवन। इसी स्वप्न को पूरा करने के लिए ये सब अपना गाँव, खेत और खलिहान छोड़कर कॉन्क्रीट के जंगल में आ बसे। हालाँकि यह कॉन्क्रीट का जंगल इन्ही मजदूरों ने बसाया है। शहरों की चमचमाती सड़कें, आसमान को मुँह चिढ़ाती इमारतें, बस अड्डे, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन, आईटी पार्क्स, मल्टीप्लेक्स, स्टेडियम सब कुछ इन्ही मजदूरों के खून पसीने से बना है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वो पश्चिमी सभ्यता का समर्थक हो या पूर्वी संस्कृति का अनुयायी, दक्षिणपंथी विचारधारा का हो या वामपंथी भेड़चाल का, सबके दैनिक जीवन की वस्तुएं और विलासिता का साजो सामान इसी आधुनिक विश्वकर्मा का बनाया हुआ है। आधुनिकता की जिस मरीचिका का दम्भ हम निरंतर भरते रहते हैं, उस आधुनिकता की आधारशिला इन्ही कामगारों और मजदूरों के त्याग पर टिकी हुई है। लेकिन आज जब इन गरीबों पर सबसे बड़ा संकट आया तब शहर यह भी न कह सका कि चिंता मत करो, तुमने मुझे बनाया है और मैं तुम्हारा वर्तमान बिगड़ने नहीं दूंगा। सब अपने गाँवों की तरफ लौटने लगे और शहर चुपचाप खड़ा सब कुछ देखता रहा। महान अर्थव्यवस्था कहा जाने वाला शहर अपने अस्तित्व का निर्माण करने वालों का पेट न भर सका।
कोरोना वायरस का संकट बढ़ता गया और भारत ने ऐसा पलायन देखा जो स्वतंत्रता के बाद नहीं देखा गया। लाखों लाख मजदूर और कामगार निकल पड़े शहरों से अपनी जन्मभूमि की यात्रा के लिए। कोई हजारों रुपये खर्च करके आया तो कोई अपनी साईकल पर निकल पड़ा। लेकिन भारत माता तब रोई होगी जब उसकी संतानें सैकड़ों किमी की यात्रा करने पैदल ही निकल पड़ीं। लेकिन हमें समझना होगा कि इस पलायन की नौबत ही क्यों आई? इतनी भारी मात्रा में प्रवास हुआ ही क्यों? क्यों लोग अपने घर, गाँव राज्य छोड़कर शहरों की ओर चले गए? जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि इस लेख में किसी भी प्रकार की राजनैतिक चर्चा नहीं होगी इसलिए मैं उन सामाजिक और व्यक्ति निर्मित परिस्थितियों की बात करता हूँ जिनके कारण लाखों की संख्या में लोग शहरों और राज्यों की ओर प्रवास कर गए।
इसका प्रारम्भ होता है उस समय से जब भारत वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहा था। लोगों में आधुनिकता के बीज प्रस्फुटित हो रहे थे। ऐसे में सबसे पहले लोगों ने कृषि का त्याग किया। असल में आम जनों के बीच यह मानसिकता पनपने लगी कि कृषि गरीबों का कार्य है। जबकि कृषि ऐसा कार्य था जिसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। सामंतवादी विचारधारा के लोग गाँवों को हीन दृष्टि से देखने लगे। शहर की चकाचौंध गाँवों तक पहुंचने लगी। गाँव का एक साधारण व्यक्ति जब यह देखता कि शहर से आने वालों का सम्मान उससे कहीं ज्यादा है तो वह भी शहर का रास्ता पकड़ लेता। आय और व्यय का अंतर सामाजिक व्यवस्था पर हावी होने लगा। आर्थिक क्षमताओं का अंतर गरीब और अमीर के रूप में परिभाषित होने लगा। अमीर बनने की लालसा लोगों को गाँव से शहर की ओर खींचने लगी। गरीबी को अभिशाप बना दिया गया। वास्तव में समाज की इस गलती के कारण गरीबी का कुचक्र आर्थिक न होकर सामाजिक रूप में बदल गया। फिर शुरू हुआ गाँवों से शहरों की ओर प्रवास। गाँव खाली होने लगे। शहरों पर भार बढ़ने लगा लेकिन जो प्रक्रिया कुछ लोगों द्वारा मजबूरी में शुरू हुई अब वह आम हो गई। इसमें गाँवों की आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है।
आधुनिकीकरण की दौड़ में बने रहने के लिए हमने गाँवों के साथ आर्थिक अन्याय भी किया। स्थानीय उत्पादों का त्याग कर हम महंगे और विदेशी ब्रांड्स की ओर भागने लगे। हमने बांस और अन्य पौधों से बनने वाले साजो सामान को नकार दिया। घर को सजाने के लिए इन ग्रामीण क्षेत्रों की विशेष कलाओं का स्थान चीन के सस्ते सामान ने ले लिया। जब फ्रिज और रेफ्रिजरेटर बाजार में आए तो मटके गायब होने लगे। कितनी कीमत होती है एक मटके की? 100 से 200 रुपये या उससे भी कुछ कम। वो मटका हमसे न खरीदा गया। दस या पंद्रह हजार का फ्रिज खरीदना और उसका बिजली का बिल भरना हमें आसान लगता है लेकिन 150 रुपये का मटका खरीदना मुश्किल। फ्रिज खरीदना गलत नहीं है और वह भी इसी अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा ही है लेकिन मटका खरीदना हमारा कर्तव्य है, भले ही हम उसे खरीदकर ऐसे ही रखे रहें या उपयोग करें। रेडीमेड कपड़ों के बाजार में घुसकर हमने गाँवों के हस्तशिल्प को भुला दिया। गाँवों में दिन रात चलने वाले चरखे बंद हो गए। सुन्दर कलाकृतियाँ बनाने वाली महिलाऐं गुमनामी के अँधेरे में खो गईं। गाँवों के चिप्स, पापड़, अचार, अमावट और मुरब्बे, फास्ट फूड के ब्लैक होल में लुप्त हो गए। शहर में रहने वाले हमारे बच्चे तो इन खाद्य पदार्थों के नाम भी नहीं जानते होंगे। गाँव के लोग आपस में मिल कर जो भी सामान बनाते थे, धीरे-धीरे उन सब का संस्थागत रूप से और व्यवहारिक रूप में भी बाजारीकरण हो गया। इन ग्रामीणों का रोजगार और आय के साधन इनसे दूर हो गए। ऐसे में शहरों में जाकर मजदूर बनने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प शेष नहीं रह गया। ऐसा नहीं है कि बाजारीकरण बुरा है लेकिन हम सब को यह ज्ञात है कि व्यावहारिक रूप से कृषकों या ग्रामीण उद्यमों को न्यूनतम लाभ ही हाथ आता है।
यह विचारणीय है कि हम अर्थात, मध्यम और उच्च वर्ग के लोगों ने ऐसे आर्थिक रूप से पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों के लिए किया ही क्या है? हमें स्वयं जब अवसर मिला तो अपने गाँवों में काम करने के स्थान पर हम शहरों की ओर चले गए। हमनें बड़े स्टार्टअप और उद्यम शुरू किए। तकनीक के उपयोग से हम आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे निकल गए किन्तु जहाँ हमारे मूल्य, हमारी पुरातन पहचान किसी कच्चे मकान में आज भी सुरक्षित हैं, वो गाँव हम भूल गए। उस गाँव के विकास के लिए हमने कोई प्रयत्न नहीं किया। अच्छी शिक्षा प्राप्त करके हम बड़े पदों पर आसीन हो गए। नीति निर्माण में भी हमारा योगदान बढ़ने लगा किन्तु जिन गाँवों में हम रह चुके हैं और जहाँ की समस्याएं हमने देखी हैं वो गाँव हमें कैसे भूल गए। ऐसा तभी संभव है जब हमें इन समस्यायों का ही स्मरण न हो। इस लेख में मैंने पहले ही कहा कि सरकारों और संस्थाओं से ज्यादा हम जिम्मेदार हैं ग्रामीण भारत और वहां निवास करने वाले लोगों की दुर्दशा के। क्योंकि ये सरकार और संस्थाएं हमसे ही तो बनी हैं। आज जिस पलायन पर हम आंसू बहा रहे हैं या रोष प्रकट कर रहे हैं, हमारा कोई अधिकार नहीं है उस पलायन पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने का। वोट वो मजदूर भी देते हैं और हमसे ज्यादा देते हैं। जिन सुविधाओं का हम भोग करते हैं उनके निर्माण के लिए भी यही मजदूर और कामगार जिम्मेदार हैं।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कोरोना वायरस के इस संकट में लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और कोई किसी भी प्रकार के राहत कार्य में नहीं जुटा है। सक्षम व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार मजदूरों और कामगारों की सहायता में जुटे हुए हैं। महीनों से लोग लॉक डाउन शुरू होने के बाद से ही जनसमर्थन या अपनी सक्षमता से रिक्शा चालकों, कामगारों और दूसरे दैनिक आय पर आश्रित व्यक्तियों के भोजन, सैनिटेशन और सुरक्षा से सम्बंधित सहायता कर रहे हैं। लेकिन हमें अब इस रणनीति पर काम करना चाहिए जिससे संकट के समय ऐसी नौबत ही न आए। प्रवासन तो होगा और प्रवासन भारतवर्ष के एकीकरण के लिए आवश्यक भी है किन्तु सीमा अधिक हो जाने के बाद प्रवासन पूरे राष्ट्र के लिए हानिकारक हो जाता है, जैसा अभी हो रहा है।
अभी भी कुछ समाप्त नहीं हुआ है। प्रत्येक बड़े संकट की भांति यह संकट भी समाप्त हो जाएगा लेकिन उसके पश्चात हमें यह सुनिश्चित करना है कि अब हमारे गाँव पीछे मुड़कर न देखें। अब तो भारतवर्ष के सम्मुख आत्मनिर्भरता का नया लक्ष्य आ चुका है। इसके लिए बड़ी बड़ी योजनाएं बन रही हैं लेकिन योजनाएं नागरिकों की सहायता से ही प्रभावशील होती हैं। इसलिए आत्मनिर्भर भारत बनाने से पहले यह स्मरण रहे कि आत्मनिर्भर गाँवों से ही आत्मनिर्भर भारत का स्वप्न साकार होगा।