यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि राजीव गाँधी का मूल्यांकन करने में इस देश को तीस साल लग गए। हक़ीक़त ये है कि राजीव अब तक देश के सबसे अयोग्य प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। इस मामले में उनकी तुलना साठ के दशक में अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी से की जा सकती है। दोनों ही युवा और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे, दोनों ही शासन चलाने में पूर्णतः अक्षम, दोनों ही अनावश्यक रूप से महिमामंडित और दोनों ही सुरक्षा के ऊपर प्रचार की अपनी लत के चलते आसमयिक मृत्यु को प्राप्त हुए।
श्रीलंका में दखल, लिट्टे और शांति सेना –सत्ता की विरासत में तीसरी पीढ़ी के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अपने घमंड में “शांति सेना” बना कर श्रीलंका भेजी और 1200 भारतीय जवानों की मृत्यु के लिए सीधे ज़िम्मेदार हुए। हज़ारों घायल हुए सो अलग। और इनके हाथों मारे गए हज़ारों तमिल गुरिल्ले जिन्हें खुद राजीव गाँधी सरकार ने तमिलनाडु में कैंप लगा कर प्रशिक्षित किया था। ये सिर्फ राजीव की मूर्खतापूर्ण महत्वकांक्षा थी जिसने देश के पड़ोसी श्रीलंका के साथ सम्बन्ध इस हद तक ख़राब कर दिए की आज तक सामान्य नहीं हो पाए। कोलोंबो के अविश्वास का आलम ये है कि अभी हाल में इस्लामी हमलों के तुरंत बाद जब भारत ने मदद की पेशकश की तो श्रीलंकाई अधिकारियों ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। आज श्रीलंका अगर चीन की गोद में बैठ कर भारत की सुरक्षा के लिए सरदर्द बन चुका है तो इसका कारण सिर्फ राजीव सरकार की अदूरदर्शी और दम्भपूर्ण नीति थी।
सिख नरसंहार – इंदिरा गाँधी की हत्या के तुरंत बाद हुए नवम्बर 1984 के दंगों में देश भर में हज़ारों सिखों का कत्लेआम हुआ। सबसे बड़ा नरसंहार दिल्ली की सड़कों पर हुआ। तब तक प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके और विरासत के नशे में चूर राजीव ने दावा किया,”जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है”। विश्व के इतिहास में ऐसी आपराधिक बेरुखी कम ही देखी गयी है।
कश्मीरी आतंकवाद की शुरुआत –सहानुभूति लहर के चलते चुनावों में राजीव को अभूतपूर्व बहुमत हासिल हुआ। पार्लियामेंट में 426 सीटें कभी नेहरू तक को नहीं मिलीं। राजीव के घमंड जो कुछ कमी रह गयी होगी वो अब इस अप्रत्याशित जीत के बाद आसमान को छू रहा था। किसी भी तरह का विरोध राजीव को बर्दाश्त नहीं था। और इसी नशे में 1987 के कश्मीर विधानसभा चुनावों में खुलेआम गड़बड़ी की गयी और श्रीनगर में चुनाव जीत गए युसूफ शाह और उसके चुनाव एजेंट को गिरफ्तार करके कांग्रेस प्रत्याशी को विजयी घोषित कर दिया गया। युसूफ शाह पाकिस्तान चला गया और “सय्यद सलाहुद्दीन” के नाम जेकेएलएफ का गठन करके घाटी में आतंक का जनक बना। उसके साथ गिरफ्तार होने वाले एजेंट का नाम था यासीन मालिक जो कश्मीरी आतंकवाद का सबसे बड़ा चेहरा बन कर उभरा।
शाहबानो केस – शाहबानो मामले में राजीव ने पहले तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ही पलट दिया और जब उनकी कैबिनेट में मंत्री आरिफ़ मोहम्मद खान ने इसका विरोध किया तो राजीव ने उन्हें ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। मुस्लिम तुष्टिकरण की नींव तो खैर गाँधी और नेहरू ही रख चुके थे और इंदिरा ने अपने शासनकाल में इसे परवान भी चढ़ाया, परन्तु राजीव सरकार के इस कदम ने तुष्टिकरण की नीति को एक अलग आयाम दिया जिससे देश आज भी जूझ रहा है।
यूनियन कार्बाइड त्रासदी – भोपाल में गैस त्रासदी के तुरंत बाद राजीव गाँधी ने कंपनी के प्रबंधन से गुप्त समझौता करके उसके मुख्य कार्यकारी वॉरेन एंडरसन को जिस तरह देश से भगाया वो न सिर्फ अमानवीय था बल्कि इसके चलते अमरीकी अदालत में कंपनी मामूली मुआवज़ा देकर बरी हो गयी। भारत सरकार द्वारा 23 हज़ार करोड़ के दावे के जवाब में कंपनी ने मात्र तीन हज़ार करोड़ रुपया देकर जान छुड़ा ली। हज़ारों पीड़ितों के साथ ये एक भयानक मज़ाक था। विश्व भर में भी संदेश गया की भारतीय जान बहुत सस्ती है।
खालिस्तान आंदोलन –1984 में सिखों के नरसंहार के बाद राजीव गाँधी के दिए बयान के चलते सिख समुदाय में एक अलगाव की भावना घर कर गयी और जनवरी 1986 में आल इंडिया सिख स्टूडेंट फेडरेशन और दमदमी टकसाल ने स्वर्ण मंदिर में बैठक के बाद अधिकारिक रूप से खालिस्तान की मांग पेश की। इसके बाद पंजाब में जो तांडव शुरू हुआ उसे सम्हालने में एक दशक से ऊपर लग गया। हज़ारों जानें गयीं सो अलग।
बोफोर्स घोटाला – रक्षा खरीदों में दलाली तो नेहरू के ज़माने से ही व्याप्त रही जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने जीप घोटाला पकड़ा था, परन्तु राजीव गाँधी सरकार में इसने एक नया ही आयाम ले लिया। इस दलाली में राजीव की ससुराल (इतालवी)पक्ष के लोगों की संलिप्तता ने इस पूरे मामले को भ्रष्टाचार के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा भी बना दिया। परन्तु जब तत्कालीन रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने घोटाला उजागर करते हुए सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया तो राजीव ने चंद्रास्वामी की मदद से उनको सेंट किट्स मामले में फंसाने का हास्यास्पद प्रयास किया।
हम किसी भी खूबसूरत और आकर्षक व्यक्तित्व की तमाम ख़ामियों से नज़रें फ़ेर लेते हैं। यह एक मानवीय दुर्बलता है। राजीव गाँधी के मामले में भी ये ही हुआ। परन्तु समय आ गया है कि देश के बाकी नेताओं के साथ उनका भी एक तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाए।