हे वामपंथी लम्पटों! अपने एलीटिज़म से बाहर निकलों, ज़मीनी हक़ीक़त को समझों और काम की बात करों। वर्ना सर्वहारा तो तुम्हारा मार्क्सवादी यूटोपिया कब की नकार ही चुकीं हैं, कहीं ये न हो कि बची कूची मान्यता भी ख़त्म हो जाए और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के बाहर कोई श्वान भी ना पूछे।
लेफ्ट और लेफ्टिस्ट तो थे ही पर ये अलग से जमात पैदा हो गयी लिबरल- ये ना घर के है ना घाट के इन्हें बस लाइम लाइट में रहने की आदत है इसके लिए ये कुछ भी कर सकते है।
If the Nobel laureate feels that Indian education system and system have no recognition, then instead of cribbing, who is stopping him to come to India and give his some inputs for the betterment of the country.