अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अभाविप) ने आपातकाल के दौरान एक महत्त्वपूर्ण संघर्ष किया। आपातकाल भारतीय इतिहास की एक अंधेरी घटना थी, जिसके दौरान न्यायप्रियता, मुक्त विचार और लोकतंत्र की प्रणाली को धीरे-धीरे नष्ट किया गया।
If the Nobel laureate feels that Indian education system and system have no recognition, then instead of cribbing, who is stopping him to come to India and give his some inputs for the betterment of the country.
Students are not going to accept terrorist worshiping and anti-national slogan raising. These common students are never going to accept violence and vandalism on the campus.
क्या एक सभ्य लोकतंत्र को चलाने हेतु आवश्यक नागरिकों की नस्ल को पैदा करने और प्रशिक्षित करने के उद्देश्य में इस तरह के विरोध प्रदर्शन किसी तरह से उपयोगी हो पाएँगे? या ये अराजकता और तानाशाही को जन्म देंगे?
It might seem to one that students are protesting for hostel fee hike but in reality these issues are temporary in nature and these protests are manifestation of the anxiety of the ‘comrades in faculty’ whose end in all likelihood is near considering their incompatibility with the present regime.
क्या कभी भी हमने हमारे बीच रह रहे शहरी नक्सलियों के इन आतंकी सहायता समूहों को, इन स्लीपर सेल्स को जवाबदेह ठहराया है जो हमारी शिक्षा, मीडिया, मनोरंजन, राजनीति, कानून, न्यायपालिका में घर कर चुके हैं और उन्हें भीतर ही भीतर दीमक कि तरह खाये जा रहे हैं?
The subjects of the papers were ‘Culture, Gastronomy and the Politics of Beef in Digital India’ and ‘His Master’s Voice: Cultural appropriation and ‘MODI-fication of Indian Media’.