यदि समाज इतना ही पितृ सत्तात्मक था तो ब्रह्म वादिनी स्त्रियाँ कहाँ से आयीं? यदि समाज इतना ही पितृ सत्तात्मक था तो शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का निर्णायक भारती को क्यों बनाया गया?
अब्दुल मियाँ की दुकान बढ़िया दूर से ही पहचान में आ जाती है। दसियों हरे झंडे दिखाई देते हैं। यही तो पहचान है जिसे गाँव के बुद्धिजीवी किलोमीटर से सूंघ लेते हैं।
लेफ्ट और लेफ्टिस्ट तो थे ही पर ये अलग से जमात पैदा हो गयी लिबरल- ये ना घर के है ना घाट के इन्हें बस लाइम लाइट में रहने की आदत है इसके लिए ये कुछ भी कर सकते है।
हमें तो आप के इतिहासकारों ने इस बात की भी आजादी नहीं दी की हम महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी के बारे में किताबों में पढ़ सके उसमें भी तो आपने भारत पर अत्याचार और चढ़ाई करने वालों की जिंदगी के बारे में लिख दी कि वो ही इस महान देश के कर्ता धर्ता थे।
In the past few years in India, we have come across an unusual situation where a number of mass media outlets seem to be “two timers” as in one branch of the organization will support the nationalist narrative and the other will support the leftist narrative.
सावरकर का मानना था कि सामाजिक अनुबंध के आधार पर राष्ट्र राज्य मजबूत नहीं हो सकता है तथा राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए कोई मजबूत बंधन आवश्यक है। आज जब देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जिहादी-वामपंथी गठजोड़ के नेतृत्त्व में अलगाववादी आवाज़े उठती हैं तो सावरकर का सामाजिक अनुबंध को लेकर दृष्टिकोण स्पष्ट समझा जा सकता है।
टिकटोक का इस्तेमाल लिबरल के दिमाग को प्रोमोट करने के लिए होना शुरू हो गया था। युवा और युवती एक साथ वीडियो में अश्लीलता का नंगा नाच करते। हद तो तब हो गई जब कोरोना वायरस को 'अल्लाह की NRC' नियुक्त कर दिया गया।
Our generation is the one that is going to decide if we tomorrow become a Latin American socialist state or live our dream to become a superpower of its kind.