यह सरलीकृत निष्कर्ष एवं कुप्रचार है कि विदेशी आक्रांताओं का हम साहस-संघर्ष के साथ सामना नहीं कर सके और पराजित हुए। अपितु सत्य यही है कि हम लड़े और क्या खूब लड़े! परंतु अपनी किसी-न-किसी सामाजिक-सांगठनिक-सैन्य दुर्बलता, रणनीतिक चूक, भावावेश या भीतरघात आदि के कारण हम पराजित हुए। इन पराजयों का त्रासद परिणाम यह हुआ कि देश में एक ऐसा भी दौर आया जब क्या राजा, क्या प्रजा- सबने अपने साहस, शौर्य, स्वत्व एवं स्वाभिमान को तिलांजलि देकर ‘दिल्लीश्वरो जगदीश्वरोवा” की कायरतापूर्ण अवधारणा को ही सत्य मानना प्रारंभ कर दिया।
निराशा और हताशा के घोर अंधकार भरे ऐसे ही परिवेश में भारतीय नभाकाश पर छत्रपति शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ। उनका उदय केवल एक व्यक्ति का उदय नहीं था। बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ, गौरव और स्वाभिमान, स्वराज और सुराज, स्वधर्म व सुशासन का उदय था। वे एक आदर्श राजा के जीवंत और मूर्त्तिमान प्रतीक थे। उनका राज्याभिषेक समाज और राष्ट्र की दिशा तय करने वाली, सदियों की सोई हुई चेतना और स्वाभिमान को झंकृत करने वाली युगांतकारी घटना थी। वे केवल शासक ही नहीं, अपितु एक सोच-संस्कार-संस्कृति थे, जिसमें सनातन का समस्त वैभव-गौरव समाहित था।
उनका राज्याभिषेक और हिंदवी साम्राज्य की स्थापना उनके सुदीर्घ चिंतन, संघर्ष और युगीन परिस्थितियों से प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम था। वह उनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों की सार्थक परिणति थी। सदियों से पराधीन जाति की सुषुप्त चेतना व स्वत्व को जगाने का यह उनका असाधारण व सुविचारित प्रयास था। पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिंदू जाति किसी-न-किसी आक्रांता शासकों के आधीन रही। ऐसे में शिवाजी ने पहले समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना का संचार कर उन्हें किसी बड़े ध्येय के लिए प्रेरित और संगठित किया। छोटे-छोटे कामगारों-कृषकों मेहनतकश जातियों, जुझारू मावलों को एकत्रित किया। उनमें विजिगीषु वृत्ति भरी। उनमें यह विश्वास भरा कि आदिलशाही-कुतबशाही-मुग़लिया सल्तनत कोई अदृश्य ताकत से संचालित सत्ताएँ नहीं हैं। ये अपराजेय नहीं हैं। अपितु थोड़ी-सी सूझ-बूझ, रणनीतिक कौशल, साहस, सामर्थ्य और संगठन से उन्हें हराया जा सकता है। न केवल हराया जा सकता है, अपितु प्रजाजनों की इच्छा के अनुरूप एक धर्माधारित-प्रजापालक-समदर्शी राजकीय सत्ता और राज्य भी स्थापित किया जा सकता है।
उन्होंने छोटे-छोटे किलों को जीतकर पहले अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। और तत्पश्चात उन्होंने बड़े-बड़े किले जीतकर अपना राज्य-विस्तार तो किया ही; आदिलशाही, कुतबशाही, अफ़ज़ल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह आदि प्रतिपक्षियों और उनकी विशाल सेना को भी धूल चटाई। कुछ युद्ध हारे तो बहुधा जीते। कभी संधि और समझौते किए। जब ज़रूरत पड़ी पीछे हटे, रुके, ठहरे, शक्ति संचित की और पुनः वार किया। उन्होंने भावुकता या कोरी आदर्शवादिता के स्थान पर ठोस व्यावहारिकता का पथ चुना। व्यावहारिकता का पथ चुनते समय न तो निजी एवं सनातन मूल्यों व उच्चादर्शों को ताक पर रखा, न ही प्रजा के हितों की उपेक्षा की। वस्तुतः उनका लक्ष्य राष्ट्र और धर्म-रक्षार्थ विजय और केवल विजय रहा। यह कहना निराधार नहीं होगा कि यदि औरंगज़ेब दक्षिण में मराठाओं से न उलझता तो कदाचित मुग़लिया सल्तनत का इतना शीघ्र अंत न होता। कल्पना कीजिए कि शिवाजी का नेतृत्व-कौशल, सैन्य-व्यूह और संगठन-शिल्प कितना सुदृढ़ रहा होगा कि उनके जाने के बाद भी मराठे मुगलों और अंग्रेजों से अनवरत लड़ते रहे, पर झुके नहीं।
न केवल मराठों में बल्कि शिवाजी महाराज की सफलता को देखकर अन्य भारतीय राजाओं में भी स्वतंत्रता की अलख जगी। वे भी पराधीनता की बेड़ियाँ उतार फेंकने को उद्धत हो गए। दक्षिण से लेकर उत्तर तक, राजस्थान से लेकर असम तक स्वाधीनता के प्रयास तीव्र हो गए। उनसे प्रेरणा पाकर राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में सब राजपूत राजाओं ने मुगलों के विरुद्ध ऐसा आक्रमण छेड़ा कि दुबारा उन्हें राजस्थान में पाँव रखने की हिम्मत नहीं हुई। वीर छत्रसाल ने अलग रणभेरी बजा दी और स्वधर्म पर आधारित स्वशासन की स्थापना की। असम के राजा चक्रध्वज सिंह ने घोषणा की कि ”हमें शिवाजी जैसी नीति अपनाकर ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित राज्यों में मुगलों के क़दम नहीं पड़ने देना चाहिए।” कूच-बिहार के राजा रूद्र सिंह ने कहा कि ”हमें शिवाजी के रास्ते पर चलते हुए इन पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबो देना चाहिए।” दिल्लीश्वर के दरबार की शोभा बढ़ाने की बजाय कवि भूषण ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष एवं पराक्रम की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले वीर शिरोमणि महाराज शिवाजी पर ”शिवा बावनी” लिखी। उन्होंने औरंगज़ेब की चाकरी को लात मार दी। उन्होंने भरे दरबार में कहा- ”कवि बेचा नहीं जाता। जो उज्ज्वल चरित्र और स्तुति योग्य है, उसी की स्तुति करता है। तुम स्तुति के लायक नहीं हो।”
वस्तुतः शिवाजी महाराज अपने संघर्ष-पुरुषार्थ, सोच-संकल्प, नीति-नेतृत्व से संपूर्ण देश में सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहते थे। उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को केवल महाराष्ट्र और उनके काल तक सीमित करना उनके साथ सरासर अन्याय होगा। यह निरपवाद सत्य है कि उन्होंने अपने समय और समाज की चेतना को तो झंकृत किया ही, आने वाली पीढ़ियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी वे ऊर्जा और प्रेरणा के दिव्य स्रोत एवं प्रखर प्रकाशपुंज बने। पश्चिम के पास यदि ऐसा कोई योद्धा नायक होता तो वे उसे कला, सिनेमा, साहित्य के माध्यम से दुनिया भर में प्रचारित, प्रसारित एवं प्रतिष्ठित कर महानता के शिखर पर आरूढ़ करते। इसके विपरीत भारत में लोकमानस ने तो शिवाजी को सिर-माथे धारण किया, पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि कतिपय इतिहासकारों ने उन्हें पहाड़ी चूहा, चौथ व लगान वसूलने वाला लुटेरा सामंत सिद्ध करने की कुत्सित चेष्टा की।
वे पहले आधुनिक शासक थे जिसने चतुरंगिनी सैन्य-बल का गठन किया था। वे नौसेना के जनक थे। उन्होंने शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों की महत्ता समझी थी। उसके निर्माण के कल-कारखाने स्थापित किए थे। धर्मांतरितों की घर वापसी को कदाचित उन्होंने ही सर्वप्रथम मान्यता दिलवाई। उनका अष्टप्रधान बेजोड़ मंत्रीमंडल और शासन-तंत्र का उदाहरण था। उस समय के वंशवादी दौर में पेशवा का चलन, वास्तव में योग्यता का सम्मान था। अपनों को भी दंड देकर उन्होंने न्याय का उच्चादर्श रखा। जो जितने ऊँचे पद पर है, उसके लिए उतना बड़ा दंड-विधान जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने की उनकी अनूठी शैली थी। साहस, निष्ठा व प्रतिभा को पुरस्कृत करने का अनेकानेक दृष्टांत उन्होंने प्रस्तुत किया। विधर्मी आक्रांताओं को जहाँ उन्होंने अपने कोपभाजन का शिकार बनाया, वहीं अ-हिन्दू प्रजाजनों के प्रति वे उतने ही सदाशय, सहिष्णु एवं उदार रहे। शिवाजी जैसा अमर, दिव्य एवं तेजस्वी चित्र अतीत के प्रति गौरवबोध विकसित करेगा और निश्चय ही वर्तमान का पथ प्रशस्त कर स्वर्णिम भविष्य की सुदृढ़ नींव रखेगा।