Friday, March 29, 2024
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Meenakshi Dikshit

यन्नेहास्ति न कुत्रचित्- अथ श्री महाभारत कथा

एक ऐसा ग्रन्थ जिसके विषय में स्वयं श्री वेदव्यास कहते हैं, “यन्नेहास्ति न कुत्रचित्” अर्थात जो महाभारत में नहीं है वो कहीं नहीं है। जिस ग्रन्थ का उपक्रम मनुष्यों को उनके अंतःकरण पर विजय प्राप्त कराने के लिए किया गया है, हम उसी को नहीं पढ़ते, न घर में रखते हैं।

शेषप्रश्नों के साथ उनका जाना

समझ में नहीं आता उन्होंने, लखनऊ का इतिहास लिखा, सहेजा या फिर लखनऊ को सिर्फ नवाबों और तवायफों में समेट दिया? चैती, सोहर, बन्ना जैसे लोकसाहित्य को लखनऊ का या अवध और अवधी का इतिहास नहीं कह सकते।

सुनो तेजस्विनी, सारे दिन तुम्हारे हैं

आश्चर्य है, स्त्रियों के जीवन में इतना व्यापक परिवर्तन होने के बाद भी, वामपंथ प्रायोजित नारी विषयक मुद्दे नहीं बदले, कविताएँ नहीं बदलीं और उनकी मांगें भी उसी कूप के मंडूक की तरह वहीँ कूदती रहती हैं।

आओ तेजस्विनी, प्रेम की बात करें

इसे लव जिहाद कहा जाये या कुछ और किन्तु सच यही है कि लड़कियों के धर्म परिवर्तन के लिए प्रेम का ढोंग किया जा रहा है और उसमें असफलता मिलने पर उनकी हत्या।

करवा चौथ: लोक परंपरा, बाज़ार और नारीवाद

बड़ी संख्या में नवयुग की स्त्रियाँ दुविधा में है। करवा चौथ को हाँ कहें या ना कहें। हाँ कहती हैं तो पिछड़ी मानसिकता से बंधी मानी जाएँगी और ना कहती हैं तो विज्ञापनों में पसरा ते लुभावना ग्लैमर हाथ से जाता है।

असुराधिपति के प्रति सहानुभूति और कृतज्ञता का पर्व

राम को न मानने, न जानने और न समझने वालों को ये सामाजिक सन्देश युक्त शुभकामनाएँ और फोन फोन तक इनकी पहुंच अपने एजेंडा को जन जन तक पहुँचाने का एक सशक्त माध्यम लगीं और उन्होंने इसका दोहन आरम्भ कर दिया।

सुनो तेजस्विनी, सिगरेट, शराब, ड्रग्स, गाली गलौच “कूल” नहीं है

पिछले लगभग ढाई दशकों में कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री विकास या स्त्री सशक्तीकरण पर बाज़ार और उपभोक्ता संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा है, जिसके कारण उसका संघर्ष शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, निर्णय क्षमता और अधिकार, आध्यात्मिक विकास जैसे मूल विषयों से भटक कर, “मैं जो चाहूं वो करूँ” पर सिमट कर रह गया है।

ये रामानुज, लक्ष्मण की नगरी है

लखनऊ की स्थापना रामानुज श्री लक्ष्मण ने की थी और उन्ही के नाम पर इसका मूल नाम लक्ष्मणपुरी है. स्वयं हनुमान जी लखनऊ के नगर देवता हैं. नगर में होने वाले बड़े मंगल महोत्सव इसके प्रमाण हैं।

पितृ पक्ष और पिता की अंतिम स्मृति

“आत्माराम” जो एक अस्थि मानी जाती है, कई हज़ार चितायें जलने पर किसी एक में निकलती है और कहते हैं ये वो शरीर होते हैं, जिनकी आत्माएं पवित्र से भी पवित्र और ईश्वर के एकदम निकट होती हैं, .इस प्रश्न का उत्तर केवल भारतीय आध्यामिक परम्परा ही दे सकती है

अपराधियों की स्वीकार्यता वाला समाज नहीं चाहिए तो……

आतंकवादी तो हमेशा से ही गरीब हेड मास्टर के बच्चे, प्रोफेसर, सिविल सर्विस एसपाईरेंट या सुरक्षा बलों से प्रताड़ित दबे, कुचले शांतिप्रिय वगैरह वगैरह होते रहे हैं।

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