आइये इसका विश्लेषण कर समझने का प्रयास करते हैं।
मित्रों सम्पूर्ण विश्व में यह अविवादित, सर्वस्थापित और सर्वस्वीकार्य तथ्य है की विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक हमारे वेद हैं, जो देववाणी हैं और इन्हें विश्व के समस्त जीवों के कल्याण के लिए देवताओ द्वारा मानव को एक ईश्वरीय ज्ञान के रूप में प्रदान किया गया था। हम सनातन धर्मियों को सदैव इस तथ्य पर गर्व करना चाहिए की हमारा धर्म ही दुनिया का एकमात्र धर्म है, क्योंकि इसके पश्चात जितने भी विचारधाराएं आयीं वो सब एक व्यक्ति विशेष के उपदेशों और मान्यताओं पर आधारित पंथ हैं। उदहारण के लिए “इस्लाम” यह एक मजहब है जिसे किसी एक व्यक्ति ने अपने मत, मान्यता और इच्छा के अनुसार सृजित किया और उसके अनुयायियों ने उसे फैलाया अतः यह एक पंथ या मजहब है। इसी प्रकार “ईसाई” यह भी एक मजहब या पंथ है जिसे किसी एक व्यक्ति के नाम और कार्य से जोड़ कर उत्पन्न किया गया और फिर फैलाया गया।
अब जरा दृष्टि डालते हैं हम अपने सनातन धर्म की कुछ मान्यताओं और शिछाओं पर:- सदा सत्य बोलो, असतो मा साद गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, जियो और जीने दो, जीवों पर दया करो, वसुधैव कुटुंबकम, सभी जीवों को जीने का समान अधिकार है, सदाचार का पालन करो, कर्म करो फल की चिंता मत करो, त्यागी बनो, दानी बनो, असहाय की सहायता करो, भूखे को भोजन दो, प्यासे को पानी पिलाओ, घर की प्रथम रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए, बड़ो का सम्मान करो, छोटो से प्रेम करो, गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा होता है, माता पिता के चरणों में स्वर्ग होता है, शरणागत की रक्षा करो, राष्ट्र से पहले कुछ भी नहीं व धरती हमारी माता है अतः धरती और प्रकृति की रक्षा करो इत्यादि। अब आप तनिक गंभीरता से ध्यान दीजिये (ये तो मात्र कुछ उदहारण मैंने यँहा रखे हैं विचार करने की दृष्टि से) उपरोक्त सभी शिक्षाओं में त्याग, तपस्या, समर्पण, करुणा, प्रेम, संतोष, स्नेह व परोपकार की सात्विक भावनाओं के अतिरिक्त कुछ भी आपको नहीं प्राप्त होगा। हमारा सनातन धर्म पूर्णरूपेण सात्विकता संतोष व् समर्पण के पवित्र धागों से गुथा गया है, जिसमे, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, छल व प्रपंच के लिए कोई स्थान ही नहीं है।
अब प्रभु श्रीराम के चरित्र पर एक दृष्टि डालते हैं।
अयोध्या जैसी विश्व की सबसे पवित्र समृद्धशाली नगरी पर राज करने वाले रघुकुल में उत्पन्न हुए। अपने तीनो भाइयों के अग्रज थे। जनता जनार्दन के आशीर्वाद के साथ साथ सम्पूर्ण राज परिवार का भी साथ उनके साथ था। परन्तु काल की महिमा अपरम्पार है, नियति ने रंग बदला और माता कैकेयी की सेविका माता मंथरा के द्वारा उन्हें १४ वर्ष के लिए वनवास करने का प्रबंध कर दिया। विश्व की समस्त वैभव, सुख, सम्पदा को पल भर में त्यागकर प्रभु श्रीराम वनगमन को प्रस्तुत हो गए, जबकि उनके पिता, उनके मंत्री, उनकी माता, उनके भाई इत्यादि सभी ने उनसे विद्रोह करने के लिए उकसाया, पर वो अपने संकल्प से नहीं डिगे।
अब माता सीता को प्रणाम करते हैं:-
वो सुकुमारी, जिनके पग कभी धरती को स्पर्श नहीं करते थे, क्योंकि पिता जनक जी स्वयं मिथिला सम्राट थे, अयोध्या में बहु बनकर आने से पूर्व तक का जीवन जिस ऐश्वर्य, सुख, सुविधा व सम्पन्नता में व्यतीत हुआ उसकी हम आप केवल कल्पना कर सकते हैं। विवाह के पश्चात रघुकुल की महारानी बनकर अयोध्या पधारी तो शायद ही विश्व का कोई सुख या वैभव होगा जो उन्हें ना प्राप्त हुआ हो अर्थात पूर्णरूपेण आनंदमय, चिंतारहित व सुखमय जीवन था पर अपने पति के वनगमन करने की सुचना मिलते ही उन्होंने बिना एक पल गवाए तुरंत अपने पति के साथ वनवास करने निर्णय ले लिया।
अब लखन जी को भी ह्रदय में उतार लीजिये:
सभी भाइयों के प्यारे, सभी माताओं के दुलारे व जनता जनार्दन के मध्य एक आदर्श राजकुमार की छवि वाले लखन जी। इनके समक्ष ही इनके बड़े भाई वनगमन के लिए प्रस्तुत थे। दूसरे बड़े भाई भरत सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ अपने ननिहाल में थे, इनके पास पर्याप्त अवसर था अयोध्या की सत्ता को अपने नियंत्रण में लेकर स्वयं को सम्राट घोषित करने का, परन्तु इन्होने अपने अग्रज प्रभु श्रीराम के प्रति अपने प्रेम स्नेह और अपनत्व को अयोध्या के राजसिंहासन से कंही अधिक बड़ा मन और सरे सुख को त्याग कर अपने भैया भाभी की सेवा के लिए उनके साथ वनगमन को तैयार हो गए।
अब तनिक भरत चरित्र चिंतन भी कर लें:
इन्हीं के लिए इनकी माता कैकेयी ने अपने सबसे प्रिय पुत्र श्रीराम को १४ वर्ष का वनवास का वरदान अपने पति राजा दशरथ से माँगा था। सोचिये जरा इनकी जगह आधुनिक मजहबो से सम्बंधित कोई व्यक्ति होता तो वो क्या करता, क्या वो कभी ऐसा करता जो महातपस्वी, महात्यागी व महान योगी राजकुमार भरत ने किया। राजकुमार भरत ने अपने हाथ में आये अयोध्या के स्वर्णिम सिंहासन को ठोकर मार दिया, यही नहीं अपने भातृ प्रेम में अपनी जननी को भी अपशब्द कहे और सबकुछ छोड़कर, प्रजाजनों, मंत्रियों और परिवार के सभी छोटे बड़े सदस्यों के साथ प्रभु श्रीराम को उनका अधिकार वापस लेने के लिए मनाने चल पड़े। राजकुमार भरत ने अपना सम्पूर्ण प्रयास किया परन्तु जब वे प्रभु श्रीराम को मनाने और अयोध्या लौट जाने हेतु विवश करने में असफल हो गए तो उनके पैरों की खड़ाऊं को अपने शीश पर रखकर अयोध्या लौट गए और पुरे १४ वर्षों तक एक सन्यासी के रूप में अयोध्या का कार्य भार सम्हाला अपने भाई के प्रतिनिधि के रूप में।
शत्रुघ्न सबसे छोटे थे अतः सबको सम्हालने का कार्य इन्हीं का था इसीलिए ये अपने ह्रदय की भावनाओं को अपने बड़े भाइयों की भावनाओं से जोड़कर स्वयं को मजबूत बनाये हुए थे, वे कभी लखन जी के, कभी प्रभु श्रीराम के तो कभी भरत जी केलिए किसी न किसी रूप में एक आधार बनने का प्रयास करते रहते थे।
अब तनिक कल्पना कीजिये जिस प्रकार का त्याग, समर्पण प्रेम सौहार्द, स्नेह, सदाचार और कर्तव्यपालन का उदहारण यंहा देखने को मिलता है, क्या उस प्रकार का उदहारण इस्लाम या ईसाई जैसे मजहबों में कभी भी देखने को मिला, नहीं ना।
यही नहीं, सत्यवादी राजा हरिस्चन्द्र के सद्चरित्र की बराबरी करने वाला, महाराज भगीरथ के जैसा भगीरथ प्रयास कर माता गंगा को स्वर्गलोक से मृत्यु लोक में लाने वाले प्रयास की बराबरी करने वाला, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मौर्य, ललित्यदेव, महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्द सिंह, राजा सुहेलदेव, छत्रपति शिवाजी महाराज महर्षि ऐतरेय, भगवन बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु गोविन्द सिंह, पाणिनि, व्यास, वाल्मीकि विस्वामित्र, अगस्त्य, पिंगल, पतंजलि, कणाद, कपिल मुनि, भास्कराचार्य, चवन आर्यभट्ट, वराहमिहिर, रामानुजन, सी.वि. रमन, जगदीशचंद्र बसु, होमियो जंहागीर भाभा, आदि शंकराचार्य, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद इत्यादि जैसा कोई भी चरित्र इन विधर्मियों के मजहब में नहीं पाया जाता है क्योंकि ये सभी आदर्शवाद, राष्ट्रप्रेम और सद्चरित्र की असीम पराकाष्ठा को स्पर्श करने वाली दिव्य आत्माये थी जिन्हें सनातनधर्म की धर्म पताका को सर्वोच्चता प्रदान करने हेतु समय समय पर सनातन धर्म का एक अमिट और अटूट हिस्सा बनाकर ईश्वर ने भेजा।
याद करिये किस प्रकार रोम के सम्राट कन्टेस्टाइन के ईसाई धर्म अपनाते ही कुछ ही समय में पुरे यूरोप को तलवार के बल पर ईसाई बना लिया गया। फिर इन ईसाईयों ने किस प्रकार अरब और एशिया की ओर अपने तलवार का रुख किया और सामने आने वाले हर एक दरख्त को उखाड़ते गए, बसे बसाएं गुलिस्तां को उजाड़ते गए, खून की नदियां बहाते गए और फिर ६३० ई में अरब से निकलकर इस्लाम की तलवार जब यूरोप और मध्य एशिया की ओर बढ़ी तो फिर इन दोनों मजहबों में भीषण रक्तपात हुआ और अन्ततः १४६० ई के आस पास तक आते आते ईसाईयों को उनकी ही भाषा में जवाब देते हुए इस्लाम ने अपनी हुकूमत कायम कर ली।
इधर ७१५ ई के आस पास इस्लाम की तलवार मोहम्मद बिन क़ासिम के रूप में हिंदुस्तान के सिंध प्रान्त में प्रकट हुई और भीषण रक्तपात, अत्याचार, व्यभिचार, छल, कपट व नीचता के बल पर सनातन धर्मियों (राजा दाहिर)को परास्त कर सिंध पर कब्जा कर लिया। समय का पहिया आगे बढ़ा और तैमूर, तुगलक, खिलजी, गजनवी, गोरी, लोदी, बाबर के रूप में इस्लाम उजड़ता और स्थापित होता रहा हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली के तख्त पर।
और पुनः १४५० ई से लेकर स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक पुर्तगाली, फ़्रांसिसी, अंग्रेज व कांग्रेस के रूप में इन ईसाई और इस्लाम मजहब के लोगो ने हिंदुस्तान पर ना केवल राज किया अपितु जी भर लुटा खसोटा और अपनी जेबे भरी।
परन्तु सम्पूर्ण विश्व के इतिहास का कोई भी पन्ना ऐसा नहीं है जो ये कह सके की जिस प्रकार से ईसाई व इस्लाम मजहब के लोगो ने दूसरे देशो पर तलवार, बारूद और नीचता के बल पर आक्रमण किया उनकी दौलत को लुटा वंहा के लोगो को जबरन, लालच देकर या फिर जान से मारने की धमकी देकर, ईसाई या मुस्लिम बनने के लिए मजबूर किया और बनाया उस प्रकार से सनातन धर्म के किसी राजा ने किसी भी कल खंड में किया हो।
वास्तव में इस्लाम और ईसाई मजहब के लोग अनपढ़ हुआ करते थे और इनका सम्पूर्ण जीवन छीनकर खाने, पहनने और जीने में ही लगा रहा, ये मनुष्य तो थे परन्तु जीवन इनका मानवीय नहीं था और इन्ही जैसे लोगो के लिए ये कहा गया है की:
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
अर्थ: जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग। अर्थात जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया, न ही उसने व्रत और तप किया, थोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया, न उसमें किसी भी प्राकार का ज्ञान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है। ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं। मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान जीवन व्यतीत करते हैं।
और यही अपना वाला पशुत्व वो सनातनधर्मियों में भी ढूँढने का प्रयास करते हैं और जब असफल हो जाते हैं तो नफरत से वशीभूत होकर कभी मिथ्या अपवंचना करके सनातनधर्मियों को बदनाम करने का प्रयास, कभी उनके देवी देवताओं की भद्दी तस्वीरें बनाकर उनको भड़काने का प्रयास या फिर उनके देवी देवताओं, आराध्यों, उनकी संस्कृति, भाषा, सभ्यता को अपमानित करने का प्रयास करते रहते हैं।
jay Hind Vandematram
Nagendra Pratap Singh (Advocate)